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दण्डी के पश्चात् आचार्य भोज ने अनुप्रास को काव्य श्री की वृद्धि मे नितान्त उपयोगी बताया है । इनका कथन है कि जिस प्रकार चन्द्रमा मे ज्योत्स्ना एव अगनाओं मे लावण्य सौन्दर्य वृद्धि मे सहायक होता है ठीक वैसे ही अलकार अनुप्रास अलकार कवि - वाणी मे स्तवकित होकर काव्य - श्री मे वृद्धि करता है । 2
करते है
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। इनके अनुसार रस की व्यञ्जना मे अनुप्रास अधिक सहायक सिद्ध होता
"
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आचार्य मम्मट वर्णों की साम्यता मे अनुप्रास अलकार की सत्ता स्वीकार
'वर्णसाम्यमनुप्रास '
उक्त सूत्र मे प्रयुक्त वर्ण- पद व्यञ्जन परक है जिससे स्पष्ट हो जाता है कि व्यवधान से विन्यस्त वर्णमात्र मे साम्य की प्रतीति हो, और वह रसादि प्रतीति कराने में सक्षम हो तो वहाँ अनुप्रास अलकार होता है । 3 केवल स्वर - मात्र मे सादृश्य होने पर रसानुगम न हो सकेगा और न ही सहृदय - हृदयावर्जक होगा 14 आचार्य अजितसेन के अनुसार जहाँ समान अक्षरावृत्ति का श्रवण हो वहाँ अनुप्रास अलकार होता है । इन्होंने अक्षरावृत्ति मे अक्षरों के निकट सम्बन्ध को स्वीकार किया है क्योंकि अक्षरों मे निकट सम्बन्ध होने पर ही उसमे रसोभावित करने का सामर्थ्य सभव हो सकेगा । इनके अनुसार अक्षरों मे निकट का सम्बन्ध तथा समान आवृत्ति होने पर भी उसे अलकार की कोटि में तब तक स्वीकार नहीं किया जायेगा जब तक उसमे चारूत्व न होगा । इन्होंने अनुप्रास लक्षण मे भामह की भाँति 'जायते चारवो गिर का उल्लेख नहीं किया है और न ही दण्डी की भाँति 'सानुप्रासा रसावहा' का उल्लेख भी नहीं किया है तथापि इनके
यया कयाचिच्छ्रुत्वा सानुप्रासा रसावहा ।
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का०प्र० सूत्र
०क०भ०
स्वरवैसादृश्येऽपि व्यञ्जनसदृशत्व वर्णसाम्यम् न्यासोऽनुप्रास ।
का0द0
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1 रसाद्यनुगत
झलकीकर बालबोधिनी, पृष्ठ
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प्रकृष्टो
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'न च स्वरमात्रसादृश्ये रसानुगम, न वा सहृदयहृदयावर्जकत्वलक्षण प्रकर्ष इति प्रदीप । झलकीकर बालबोधिनी, पृष्ठ 494