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इन्होंने यमक के 40 भेदों की भी चर्चा की है।'
परवर्ती आचार्यों की परिभाषाएँ प्राय मम्मट से प्रभावित है।८
आचार्य अजितसेन के अनुसार जहाँ श्लोक की आवृत्ति, श्लोक के पाद की आवृत्ति, पद की आवृत्ति, वर्ण की आवृत्ति, भिन्नार्थक और अभिन्नार्थक श्लोक की आदि - मध्य और अन्त की आवृत्ति से युक्त और अयुक्त भी यमकालकार होता है अर्थात् उक्त आवृत्तियाँ यमक का विषय है । आशय यह है कि जहाँ अर्थ की भिन्नता रहते हुए श्लोक - पाद - पद और वर्णों की पुनरावृत्ति होती है वहाँ यमक अलकार होता है । यह आवृत्ति पाद के आदि, मध्य तथा अन्त मे होती है तथा कहीं अन्य पाद व वर्गों से व्यवहित और कहीं अव्यवहित रूप से होती है ।
आचार्य अजित सेन कृत परिभाषा की विशेषताएँ -
श्लोक आवृत्ति मे यमक युक्त रूप मे । श्लोक की आवृत्ति मे यमक अयुक्त रूप मे । पाद की आवृत्ति मे यमक युक्त रूप मे । पाद की आवृत्ति मे यमक अयुक्त रूप मे । पद की आवृत्ति मे यमक युक्त रूप मे । पद की आवृत्ति मे यमक अयुक्त रूप मे । वर्ण की आवृत्ति मे यमक युक्त रूप मे । वर्ष की आवृत्ति मे यमक अयुक्त रूप मे ।
पुन प्रत्येक के आदि, मध्य तथा अन्त भेद होने से 8x3 - 24 भेद हो जाते है ।
डॉ0 नेमिचन्द शास्त्री ने यमक के प्रमुख भेदों का उल्लेख इस प्रकार किया है -
प्रथम और द्वितीय पाद की समानता होने से मुख यमक होता है ।
का0प्र0 सूत्र - 117 एव वृत्ति ।
का प्रतापरूद्रीय विद्यनाथ) - यमक पौनरुक्त्ये तु स्वरव्यञ्जनयुग्मयो । खि सा0द0 10/8 श्लोक पादपदावृत्तिवर्णावृत्तियुताऽयुता । भिन्नवाच्यादिमध्यान्तविषया यमक हि तत् ।।
अचि0 - 3/12