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कानों का तथा नूपुर परों का अलकार कहलाता है क्योंकि वह कानों एव पैरों मे धारण किया जाता है, उस पर आश्रित है विमर्शिनीकार ने 'लोक्वद' की व्याख्या करते हुए यही मन्तव्य प्रकट किया है कि - लोके हि याडेलकारों यदाश्रित स तदलकारतयोच्यते, यथा कुण्डलादि कर्णाद्याश्रितस्तदलकार ।
वि०पृ0 - 2510
हाथ के सयोग मात्र से नूपर हाथ का अलकार नहीं हो सकता और न पैर के सयोग से कटक या कुण्डल पैरों का। लौकिक आभूषणों तथा काव्यालकार का इस अश तक साम्य है । आश्रय का निश्चय शोभा, विच्छित्ति या वैचित्र्य के आधार पर होता है " ।
लोक मे जो अलकार जिस पर आश्रित होता है वह उसी का अलकार कहलाता है जैसे कुण्डलादि कर्ण पर आश्रित होने से कर्ण, का अलकार कहलाता है । इसी प्रकार अलकार शास्त्र मे भी शब्दादि पर आश्रित रहने वाला अलकार शब्दादि का अलकार कहलाता है 12 परवर्ती काल मे आचार्य विश्वनाथ तथा विद्यानाथ ने भी रुय्यक द्वारा निरूपित आश्रयाश्रयी भाव को सादर स्वीकार किया है । इसी के आधार पर इन्होंने सभग तथा अभग श्लेष को अर्थालकार के रूप में निरूपित किया है ।
रुय्यक द्वारा निखपत आश्रयाश्रयी - भाव सिद्धान्त की अपेक्षा मम्मट निरूपित अन्वय - व्यतिरेक सिद्धान्त वैज्ञानिक होने के कारण प्रामाणिक प्रतीत होता है । प्रदीप तथा उद्योतकार भी अन्वय-व्यतिरेक सिद्धान्त को ही अलकार का निर्णायक तत्व स्वीकार करते है ।
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अलकार मीमासा - डॉ० रामचन्द द्विवेदी, पृष्ठ - 169 अ0स0 पृ0 - 378 एक यो हि यदाश्रित स तदलकार एव । अलकार्यालकारणभावस्य लोकवदाश्रयाश्रायभावेनोपपत्ति ।
सा0द0, परि0-10, पृ0 - 632 एखए प्रताप - पृ0 406
- प्रकाशन - कृष्णदास अकादमी वाराणसी बालबोधिनी पृ0 - 676, पक्ति - 26