Book Title: Ahimsa ki Vijay
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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बहसा को विजय ]
कारण क्या महाराज की ओर से कोई त्रुटि हो गई है ? उस संकट के निवारण का उपाय क्या है ? मापकी सेवा को महाराज सदा तैयार हैं।" इस प्रकार प्रश्न कर पुराहित नत्र बन्द कर हाथ जोड़े खड़ा हो गया और महाराज भी हाथ जोडे हुए उत्तर पाने की उत्सुकता से देवी की ओर कानलगाये विनय से खड़े हुए थे। देवी क्या उत्तर देती है। अल्प समय के बाद देवी के मुख से आवाज आ रही हो ऐसा आभास होने लगा । पुनः निम्न प्रकार स्पष्ट शब्द सुनायी देने लगे--
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राजन् आपकी भक्ति में कोई अन्तर नहीं पड़ा । परन्तु इस नगरी में एक नानादिगम्बर साधु का अहिंसा उपदेश प्रारम्भ हो गया है, वहां तुम्हारी राजधानी से सैकड़ों लोग उस उपदेश में जाने लगे हैं । वे बड़े प्रेम से उस उपदेश को सुनते हैं । आगे-पीछे उसके उपदेश से आपके रणवास व राजवाढे में भी लोगों की भावना बदलेगो, बस इसी कारण से इस राजधानी पर महासंकट होगा । सावधान हो ओ ! और उसका योग्य उपाय करो। वस।"
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देवी की आवाज बन्द हो गई । देवी के मुख से निकले शब्द बराबर सही होते हैं ऐसा राजा को विश्वास था । देवी सत्य कथन करती है इसलिए वह निश्चय समझ रहा है कि कैसा भी संकट आयेगा। यह आपत्ति अवश्य आने वाली है । नि:सन्देह भारी आपत्ति आयेगी ऐसा उसे पूर्ण विश्वास हो रहा था। उसी समय पुरोहित देवी के शब्दों का स्पष्टीकरण करते हुए कहने लगा "नग्नसाधु के कारण संकट आने वाला है।" इस प्रकार ही कुछ बडबड़ाता पद्मनाभ चाहर आया, पुरोहित ने दरवाजा खोला और बाहर खड़े रथ पर सवार होकर राजा नगरी को वापस चल दिया।
यह घटना श्रावण मास की है, अाकाश घनाघन व्याप्त था-चारों ओर काली घटाएं छायीं थीं । उसी प्रकार महाराज के अन्त: करग में भी उतना ही सधन अंधकार फैला हना था । उसका चेहरा फीका और बबराहट से भरा था देखने में भयातुर लगता था। उधर माणिक देव अपने षडयन्त्र को सफल हुआ समझ कर हंसमुख हो मठ में प्रविष्ट हुआ और अपने सामने अपने शिष्य परिवार को बैठाकर पुनः इसी विषय पर चर्चा करने लगा।