Book Title: Ahimsa ki Vijay
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 31
________________ २४] [अहिंसा की विजय उसका लक्ष पूजा की और तनिक भी नहीं था। क्योंकि अपलक नयन जिन विम्ब की ओर लगे थे। इस-निविकार वीतराग मूर्ति और काली देवी को विकराल मूर्ति के रूप में उसके मन में द्वन्द चल रहा था। उस सम्बन्धी अनेक प्रश्न उसने अपनी माता से किये, बार-बार उसे सता रही थी, परन्तु इतने लोगों के बीच उनकी शान्ति भंग करने का साहस मुरा देवी को नहीं हा। सैकडों जैन पूजा देखने को समन्वित थे वहाँ के स्त्री-पुरुषों को प्रशाति होगी यही सोच कर वह चुपचाप बैठी रही । उधर मृगावती के हृदय में अनेको प्रश्नों का जाल बिद्धा जा रहा था। पूजा के समाप्त होते ही बहत से लोग नीचे मूनि दर्शन को गृहा की ओर चल दिये । मगावती व मरादेवी रानी की भी उधर हो जाने की तीव्र इच्छा थी परन्तु पद्मनाभ राजा कही रुष्ट न हो जाय इस भय से उधर न जाकर बे सोधी अपने रथ की ओर ही उत्तर कर पाने लगीं। जिनदर्शन करते ही रानी का मन परिवर्तित हो गया था। मृगावती के मन में भी अनेकों विचार तरंगें उठ रहीं थी । बीच-बीच में बधीरे-धीरे मुनिवासतिका गुफा की ओर देखती जाती थी। मण्डप में हजारों लोग जमा थे । कल देखा हुआ रथ भी बहीं कहीं होगा ऐसा उसका विश्वास था । परन्तु इधर उधर कहीं भी रथ नहीं दीखा । इससे उसे बहुत निराशा हुई। विषणचित्त वह राजावाड़ा की अोर प्रागई। रानी का मन भी बहत उदास था। हमने अपनी पूर्व परम्परा को छोड़ दिया, हिंसा मार्ग स्वीकार किया, तो भी हमें पुत्र मुख नहीं प्राप्त हुआ, हमारा मार्ग विपरीत हुआ क्या ! ऐसी शङ्का उसके मन में घुमड़ने लगी । दबी के महात्म्य के प्रति उसके मन में तुघला सा अविश्वास उत्पन्न हुआ। उसके मन में इतना द्वन्द छिडा कि उस रात्रि को उसे निन्द्रा नहीं पाई, सिर दर्द भयंकर होने लगा और हल्का सा ज्वर ही पा चहा । पुनः पाँच छः दिन तक उसकी प्रकृति अच्छी नहीं हुयी। मृगावती का मन रथ में अटका था। अतः दूसरे दिन माँ के अस्वस्थ होने पर भी वह अपनी एक सखी को लेकर रथ को देखने की प्राशा से पर्वत पर चली गई। राजपुत्र के दर्शन को वह पगली सी हो रही थी। उसी प्रकार श्री जिनदर्शन का अानन्द भी उसे अपूर्व प्रानन्द दे रहा था । फलतः वह प्रतिदिन धी मल्लिनाथ स्वामी के दर्शनों को जाने लगी। पहाड से उतरते समय बहुत ही आतुरता से वह मण्डप की अोर भी दृष्टि फर कर देखती थी। परन्तु आठ दिन तक उसे बह रथ कहीं भी दृष्टिगत नहीं हआ । उसे अत्यन्त निराश ही होना पडा । अब यह पूर्ण अधीर हो गयी थी।

Loading...

Page Navigation
1 ... 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85