Book Title: Ahimsa ki Vijay
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti

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Page 72
________________ । अहिंसा की विजय] [६५ कुछ न बोलना हो ठोक है, कदाचित् कुछ बोलने से उसके मन पर कोई प्रोर ही परिणाम न हो जाय यह विचार कर वह उससे अधिक कुछ नहीं बोले । उसे "शान्ति से विधान्ति लो" कह कर बाहर चले गये। रात्रि आगई । घण्टे पर घण्टे बीते। अब दस बज गये। मृगावती जागी ही थी, उसे नींद कैसे आती ? इधर चम्पानगर का राजकुमार जेल में पड़ा था पर माची प्रारकीतिजी के आज र उपपास हो गये थे। माज की रात्रि व्यतीत होते ही बलि होने वाली है और प्राचार्यजी को प्राजन्म उपवास करना होगा, ये सब बाते उसके समक्ष चलचित्र बने थे, भला उसे स्वस्थता कहाँ ? नींद कैसे माती ? वह बार-बार इस कुर्सी से उस कुर्सी पर, उससे इस शोफा पर बराबर उठ बैठ कर रही थी। उसकी धडपड़ बढ़ती जा रही थी। बीच-बीच में वह भय से चौकने के समान कर रही थी । इसी से उसकी सखी उसके बहुत नजदीक ही पलंग पर सो रही थी। ग्यारह बज गये । तो भी मृगावती को-तनिक भी नींद नहीं आयी। अपनी सखी को महरी नींद में देखकर वह अति धीमे-धीमें उठी और बैठ गयी । उसने बहुत देर तक बैठकर विचार किया और सर्वत्र स्तब्धता-नीरवता फैली देखकर, वह अपने कमरे से बाहर निकली। निर्मूल चन्द्रिका छिटक रही थी। बीच-बीच में बादलो का समूह का समूह आने से अंधकार भी हो जाता था। वह बहुत धीमे-धीमे पांव रखती सीढियों को पार करने लगी । क्षणमात्र में नीचे प्रागई। सर्वत्र नीरवता छाई थी। चारों ओर शान्त वातावरण देख रही थी। इधर-उधर देखती हुई वह जेल की ओर चल पडी। राजमहल के ठीक पास ही पीछे में जो पुरानी इमारत थी उसी में वे कैदी कैद किये गये थे। राजकन्या को पहिचान कर जेल के एक पहरेदार ने मादर से उसे हाथ जोड नमस्कार किया , उसने कहा "माते आप बहत ही दयालू हैं । उस जख्मी कैदी की निगरानी करने देखने को आप इतनी रात्रि में पधारी हैं। यह देखकर मुझे बड़ा ही आश्चर्य लगता है। वास्तव में निश्चित ही उसकी अवस्था बहुत ही चिन्ताजनक है । उसके कपाल से अभी भी थोडा-थोडा रक्त बह रहा है।" उसी घायल का कुशल-समाचार लेने राजकुमारी प्राई है, यह समझ कर ही वह इस प्रकार बोल रहा था । वह आगे कहने लगा-- निमून

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