Book Title: Ahimsa ki Vijay
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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अहिंसा की विजय
[७७ रूपी लौह अहिंसारूपी पारसमणि से प्रकाशमय हो उठा । अर्थात हिंसकभावना दया रूप परिणत हो गई। जिन लोगों के हृदय में देवी बलि नही चढाने से देवी का कोप होगा-शाप होगा ऐसा भय था वह भयरूपी तमतोम उसकार नष्टहा गया जस सूयोदय होते ही रात्रिजन्य सघन अंधकार नष्ट हो जाता है । उन सबको सम्बोधन करते हुए पद्मनाभ राजा निम्न प्रकार अपने उद्गार प्रकट करने लगे
देवी के भक्तो ! आज पर्यन्त हमने अज्ञानबश, बिना विचारे देवी के नाम पर हजारों मूक पशुओं का संहार किया करते थे । स्वार्थी पुरोहित के दंद-फंदों में फंस हम अपने दया धर्म से भ्रष्ट हुए, कुल मर्यादा विहीन हुए। हम सबके पुण्योदय से इस वर्ष यहाँ आचार्य श्री अमरकीर्तिजी का चातुर्मास हुआ। उनके सत्य उपदेश के कारण ही आज से हमें यह स्वणिम सन्धि उपलब्ध हुई है । यह शुभदिन हमें प्राप्त हआ। नहीं तो न जाने कब तक हम सब इस ढोंगी, पुरोहित के मार्ग पर चलते हुए हम सबों की कितनी अधोगति होती? कौन जाने ? सुख मिलने की आशा में हम कितने अंधे बने रहे । यह उन महात्मा के प्रभाव से ही आज विदित हुआ। इस धूर्त माणिकदेव के कारण ही मैंने इन चम्पानगरी के युवराज को एवं अन्य ८ (आठ) तरुण साथियों को जेल में डाला, इतना नीच काम किया। इन सभी के परिश्रम के फलस्वरूप आज हमें सन्मार्ग लाभ हुआ है। देवी के नाम पर पूरोहित का माहात्म्य और उसका अस्तित्व आज समाप्त हुआ। इस समय हम सब श्री प्राचार्य महाराज के दर्शनों को चलें और उनका धर्मोपदेशामृत पान कर अहिंसाधर्म धारण करें।
इस प्रकार महाराज का वक्तव्य पूर्ण होते ही सर्व लोगों ने "अहिंसा परमोधर्मः" अहिंसा धर्म की जय, जैनधर्म की जय।" इस प्रकार अनेक बार जयनाद किया । उस जयनाद की प्रतिबनि से माणिकदेव की पाखें खुली । उसने सबकी ओर इष्टि फेरते हुए अत्यन्त क्षीण स्वर में कहा---
___ "मेरे धर्मवन्धुओ ! मुझे क्षमा करो। यहां एकत्रित सब लोगों का मैं भयंकर अपराधी हूँ। इस समय मुझ से अधिक कुछ बोला नहीं जाता, मैं स्वयं अपनी आत्मा का भी घातक हूँ, आप मुझे सब क्षमा करें। तथा पुनः एक बार जोर से अहिंसा का जय जय घोष करें, जिससे मेरे प्राण सुख से निकलें, मुझे शान्ति प्राप्त हो । “माणिकदेव के पश्चात्तापयुक्त भाषण सुनते