Book Title: Ahimsa ki Vijay
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti

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Page 82
________________ [७५ अहिंसा की विजय] अब माणिकदेव की बोलती बन्द हुयी। उसकी हृदय धडकन बढी। भयारे में नरसिंह नहीं है तो देवी बोलने वाली नहीं, क्योंकि वह यह जानता ही था कि देवी के नाम पर नह ही नसो, शिखा मुशार उसर रेखा था। फलत: भ्रमित, किंकर्तव्य विमुह सा, पागल सरीखा देवी के सामने जोर-जोर से गिडगिडाने लगा। बार-बार उन्मत्त सा प्रश्न पूछने लगा। परन्तु उत्तर कौन दे ? देवी का मुख बन्द पडा था । उसके सिंहासन के नीचे मात्र पोल थी । नरसिंह नहीं फिर उत्तर कहाँ से आता ? उसने अपना पूरा धैर्य बटोर, देवी की ओर निहारा, और बड़ी मिन्नत दिखाता बोला "देवी माँ, हे महामाये ! कालीमाते ! तू बोलती नहीं ? अपने दास को लाज नहीं रखती ? बोल !" __ इतने में पद्मनाभ ने उसकी गर्दन दबोचते हुए कहा, अरे, मूर्ख धूर्त ! पाखण्डी, मायाचारी इस प्रकार गला फाड कर तू कितना ही चीख इससे तेरा ही गला फटेगा, परन्तु क्या यह पत्थर बोलने वाला है ? जब तक भुयारे में नरसिंह नहीं होगा तब तक यह पत्थर क्या बोलने में समर्थ हो सकेगा ? महाराज पद्मनाभ के मुख से यह शब्द सुनते ही माणिकदेव के होशहवाश उड गये । वह समझ गया मेरी सारी पोल-पट्टी, मायाजाल प्रकट हो गया है उसका अहङ्कार चूर-चूर हो गया। अब मेरे जीवन का कोई महत्व नहीं । पाप का परदा पास हो गया, फिर पतित, और अपमासित जीवन से क्या? ऐसा विचार कर उसने देवी की मूर्ति पर इतने जोर से अपना मस्तक दे मारा कि माथा ही फूट गया। जीवन की प्राशा छोडकर ही उसने अपना शिर अपने आप ही फोड लिया। उससे रक्त धारा प्रवाहित हो चली। उसके शिर के धक्के से वह देबी की पोली मति भी सिंहासन से धडाम से गिर कर भमि में मा पडी। पाप का कारण और कार्य दोनों ही मानों एक साथ समाप्त हो गये। ऐसा प्रतीत हो रहा था । परन्तु माणिकदेव का जीवन इतना कच्चा न था ।

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