Book Title: Ahimsa ki Vijay
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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HAMAR
४]
[अहिंसा की विजय __ मध्यरात्रि व्यतीत हो गई । नवमी का चाँद ही अस्त हो गया । प्रात: कालीन शीत पवन चलने लगी, परन्तु अभी तक नरसिंह वापिस नहीं आया । यह देखकर माणिकदेव चिन्ताग्रस्त बैठा था 1 उधर कितने ही दिनों से नरसिंह के हृदय में अपने कुकर्मों के प्रति संशय उत्पन्न हो चुका है यह उसे मालूम था। इस कारण मेरा कार्य प्राज सिद्ध होगा कि नहीं इसकी उसको शंका थी । वह कपाल पर हाथ रखकर शोकातुर विचारमग्न था। उसका हृदय रह-रह कर सन्देह से भर जाता था। इसी समय पद्मनाभ राजा उन सबके साथ देवी मन्दिर में गये । मन्दिर में नन्दी दीप के सिवाय दूसरा दीपक नहीं था। वह भी धीमा-धीमा जल रहा था। उसके मन्द प्रकाश में कौन-कौन पा रहे हैं यह उसे स्पष्ट नहीं दिख रहा था।
नरसिंह तो आया ही नहीं, परन्तु अन्य सात-आठ तरुणों के साथ मृगावती को लेकर पद्मनाभ महाराज मेरे सामने खड़े हैं यह उसने देखा । यह देखते ही उसके छक्के छ ट गये। उसको सोचने-विचारने को भी समय नहीं देते महाराज पद्मनाभ ने उसकी गर्दन पकड कर क्रोध से बोले, "ओ हरामखोर तेरी देवी राजकन्या का रक्त चाहती है? बोल, जल्दी बोल तेरी देवी ने तुझे वैसी आज्ञा दी है क्या ? महाराज उसकी मोर इतनी क्रोध पूर्ण दृष्टि किये थे मानों उनकी आंखों से चिनगारियां निकल रही हों।
परन्तु इतने मात्र से, जैसे कुछ उसे समझ ही में नहीं आ रहा हो ऐसा अनजान सरिखा साधारण नहीं था। वह कोई कच्चे हृदय वाला नहीं था। नरसिंह ने मेरे सारे काले कारनामे प्रकट कर दिये हैं ऐसा उसे स्वप्न में भी विश्वास नहीं था। वह मेरे कारस्थानों को उघाड़ सकता है यह उसने सोचा ही नहीं था क्योंकि उसे पूरी तरह अपने फदे में फंसा रक्खा था। इसी कारण तिलमात्र भी सन्देह नहीं करता हुया, वह दृढ़ता और निर्दयत्ता से महाराज की ओर देखता हा बोला, हाँ, हाँ ! "देवी ने वैसी ही प्राज्ञा दी थी।"
माणिकदेव का यह धिटाई का उत्तर सुन कर महाराज सन्तप्त हो उठे, उनका कोपानल भडक उठा और भभक कर बोले, "मर्ख ! तेरी देवी बोलती है" ? ठीक है । विचार, तेरी देवी से मेरे सामने प्रश्न पूछ ! यदि उसे राजकन्या का ही रक्त चाहिए तो मैं, अभी देने को तैयार हैं। यदि देवी नहीं बोली तो आज तेरी जीवन लीला भी समाप्त हुयी समझ लेना तु ? समझे !"