Book Title: Ahimsa ki Vijay
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti

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Page 79
________________ ७२] [अहिंसा की विजय भी वहीं खड़ी थी । उसको अपने पास बुलाकर ममता से उसके शिर पर हाथ फेरते हुए, गोद में लेकर वोले, "बच्ची, तुम्हारा भाग्य बहा तेज है, इसीसे ये राजकुमार यहाँ कंदी होकर पाये । उनके आने से ही तुम्हारे प्राण आज बच सके। ऐसा कह उन्होंने उन दोनों की ओर देखा । मृगावती ने लज्जा से गर्दन नीची करली । वह कुछ भी नहीं बोली। पश्चात्ताप से झुलसा नरसिंह दुःख से जमीन की ओर देखता हुआ बंठा था । उसकी अोर दृष्टि जाते ही महाराज पुनः बोले __"नरसिंह ! मृगावती के रक्त का ही टीका कालीदेवी को लगना चाहिए क्या यह देवी की प्राज्ञा थी ?" __ महाराज !, अाप अत्यन्त भोले और भावुक हैं । आपके इस भोलेपने के कारण ही माणिकदेव ने अपने इतने षड्यन्त्रों को सिद्ध क्रिया है । अब भी आपको देवी की प्राज्ञा पर विश्वास है ? यह देखकर मुझ अत्यन्त आश्चर्य हो रहा है। महाराज पत्थर की देवी कोई बोलती है क्या ? नरसिंह ने साधिकार कहा । सुनते ही "हैं इसका अर्थ क्या ?" महाराज अधिक उलझन में पडकर बोले, "देवी बोलती नहीं थी ? तो कौन बोलता ?" मैंने स्वयं कान से सुना है देवी का आदेश । तू क्या बोल रहा है यह ?" "हाँ, हाँ, महाराज आपने प्रत्यक्ष सुना है, देखा है, परन्तु यह आपकी दिशाभल थी। भोले लोगों को फंसा कर देवी का महत्व बढाने की यह एक कला है । और माज में प्रथम बार उस कला का भंडाफोड कर रहा है।" नरसिंह के इस कथन को सुनते ही सब लोग उत्कण्ठित होने लगे, सबके नेत्र उसी की ओर जा लगे। थोड़ी देर स्थिर रह कर पुनः वह अपना वक्तव्य देने लगा इस समय जो काली माता की मूर्ति है, वह पोली है, पास के मठ से उसके सिंहासन पर्यन्त एक भयार-तल घर तैयार कराया हुआ है। जब, जब देवी बोली थी, उस-उस समय मैं स्वयं उस सुरंग रूप तलघर से होकर मठ से प्राकर, देवी के सिंहासन के नीचे बैठता था और पूर्व निश्चित किये विषय के अनुसार, माणिकदेव के प्रश्नों का उत्तर में ही देता था। इस प्रकार भोले

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