Book Title: Ahimsa ki Vijay
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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[अहिंसा की विजय नरसिंह के अधर चंचल होने लगे। उसके नेत्रों से अश्रुप्रवाह चल रहा था । विचार करने का अवसर पाते ही उसकी भावना बदल गयी और उसे अपने कृत्य पर लज्जा आ रही थी। इसीसे वह चुप चाप शान्त वडा था । महाराज के पहले ही, वह मतान्त पश्मा ' से हिचली भरता हुआ महाराज पद्मनाभ के चरणों में धडाम से गिर पड़ा। और फूट-फूट कर रोने लगा सभी लोग इस विचित्र दृश्य को प्राश्चर्य चकित हो देख रहे थे । क्षरण भर रोने के बाद उसने अपना शिर पर उठाया, हाथ जोडकर वह धीरेधीरे बोलने लगा
महाराज, क्षमा करे । यह समस्त दुष्कर्म मैन ही किया है। पुरोहित के कथनानुसार कार्य करते हुए मेरा पूर्ण पतन हो चुका है । उस पापी की आज्ञानुसार आजतक मैंने ऐसे अनेकों अमानुषिक कृत्य किये हैं। न जाने कितनी हत्याएं हुयी हैं। इसके आगे मेरे हाथ से इस प्रकार के भोर अत्याचार-अनाचार व रक्तपात न हों इसके लिए मैं सर्व गोष्ठी-पापके सामने स्पष्ट कर रहा हूँ। मेरे कुकर्म का मुझे पूर्ण पश्चात्ताप हो रहा है । इसके दण्ड में यदि आप मुझे प्रारण दण्ड देना चाहेंगे तो मैं उसे सहर्ष, प्रानन्द से भोगने को तैयार हूँ।
__ आप जिस मारिणकदेव पुरोहित पर विश्वास कर, उसे परम पूज्य गुरु मानते हैं, उसकी इच्छानुसार भाप चलते हैं, उसो माणिकदेव ने प्राज मुझे ..............."आज................आपकी ............... कन्या का वध करने के लिए भेजा था।
नरसिंह के मुख से ये भयंकर शब्द सुनते ही सभी के शरीर में रोमाञ्च भर गया, परन्तु सुयोग से मृगावती बच गयी यह देखकर सर्व जन उसे प्रेम स-स्नेह से देखने लगे । नरसिंह पुनः आगे बोला -
____ मैं पिरोहित को इच्छानुसार उसके कार्य के लिए कितनी बार यहाँ अन्त: पुर में आता रहा हूँ । इसी कारण कौन कहाँ रहता है यह मुझे पूर्ण रोति से मालूम है । राजकन्या बलिपूजा का विरोध कर रही है, हिंसा को रोकने के लिए वह प्रयत्नशील है, ऐसा ज्ञात होने से, आज रात्रि को उसकी हत्या कर उसी के रक्त का टीका देवी को प्रथम लगाना चाहिए ऐसी पुरोहित ने मुझे आज्ञा दी, वह मुझ पर पित न हो इसके लिए मैंने उसकी आज्ञा को स्वीकार किया। मात्र उसकी प्रसन्नता को मैं इस कृत्य के करने