Book Title: Ahimsa ki Vijay
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti

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Page 75
________________ देवी का अस्तित्व समाप्त हुआ-१२ मृगावती के शयनकक्ष में खून-हत्या हो गयी, यह बात एक क्षण में राजमहल में चारों ओर बिजली की भांति फैल गई । घबरा-घबरा कर सब लोग उसके कमरे की और दौड़ पड़े। पद्मनाभ राजा भी स्वयं आ पहुँचे । वहाँ, शैया और रक्त धारा से लथपथ कमरा देख वे दंग रह गये । उनका कलेजा मानों बाहर आ गया । मृगावती की दासी का खून होने का क्या कारण हो सकता है ? इसका कोई भी निश्चय-स्पप्टोकरण उसे नहीं हो सका । वे सब के सब भय, अातंक और आपचर्य से एक दूसरे का मुख देखते हुए स्थम्भित खडे थे । इतने ही में उस बुरके वाले हत्यारे मनुष्य को लेकर महेन्द्र वहाँ आया । उन दोनों अपरिचित मनुष्यों को राजमहल में देखकर लोग और अधिक हक्के-बक्के हो गये। उस रक्त से लथ-पथ कटार की ओर इशारा करते हुए महेन्द्र बोला, "यह देखो, खुनी अपराधी ! ऊपर की खिड़की से कूद कर भागा जा रहा था कि मैंने उसे पकड़ा और यहाँ लेकर माया।" उस खूनी-हत्यारे मनुष्य को लेकर आने वाला मनुष्य कौन है, यह पद्मनाभ ने नहीं पहिचाना । परन्तु काला बुरका खींचकर उधाडते ही वह हत्यारा कौन है ? यह उसे तुरन्त समझ में आ गया। वह तो उसका रोज का जाना-पहिचाना मारिए कदेव का पट्टशिष्य नरसिंह ही था । उसका काला बुरका उतारकर फेंक दिया और महेन्द्र उसका हाथ पकडे खडा था। यह खुन उसे क्यों करना पडा ? क्यों किया यह कुछ भी स्पष्ट नहीं हो पा रहा था। हत्या करने वाला नरसिंह बन्धनबद्ध रंगे हाथ पकडे जाने पर भी जरा भी भयातुर नहीं था । वह घबराया नहीं। नीची गर्दन किये चपचाप खड़ा था । महाराज ने उसकी ओर भेदक दृष्टि से देखते हुए कहा, "नरसिंह मैं तुम्हें अच्छी तरह जानता हूँ। यह किस प्रकार ऐसा हुआ है तुम स्पष्ट बताओ ? इस लडकी का खून फिसने किया है ?"

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