Book Title: Ahimsa ki Vijay
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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हिंसा की विजय !
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जीवों को फँसाने वाली कला को हम दोनों के सिवाय अन्य कोई नहीं जानता । यह सारा जाल प्रसार देवी के नाम पर चलने वाले अन्याय और अत्याचार से मेरा मन यद्यपि घुट रहा था। कई बार इस हिंसाकाण्ड से अन्तःकरण द्रवित होता परन्तु वर्षाती नदी की भांति माणिकदेव के आतंक से सूख जाता । कैसे इस बलिप्रथा को रोका जाय यह कितनी बार मेरे मन में भी आता । इसका हेतु उन जैनाचार्य का उपदेश है जिसे अवसर पाकर मैंने सुना था और लोगों से समझा था । उनके दयामय धर्मोपदेश ने मेरी चित्तवृत्ति बिलकुल बदल दी । परन्तु धर्त माणिकदेव की संगति के कारण वे विचार अधिक देर ठहर नहीं पाते थे । फलतः पुनः मैं उसके फंदे में फंस कर इस दुर्भार्ग पर लग गया ।"
नरसिंह के मुख से यह समस्त रहस्य प्रकट किये जाने पर महाराज पद्मनाभ की पगतले की जमीन धंसने लगी। उसे माणिकदेव पर बुरी तरह कोप आया। उसी के विपरांत उपदेश से उसने अपना छात्रधर्म, कुलधर्म त्याग दिया था। देवी के नाम पर उस प्रथर्मी के कहने पर हजारों दयाधर्म, प्राणियों का संहार कराया। इसका उसको पश्चात्ताप होने लगा ।
अब आगे समय नहीं गवाना चाहिए, सूर्योदय होने के पहिले ही पुरोहित के काले कारनामे फोड कर प्रकट कर उसे पकड़ना चाहिए । ऐसा निश्चय कर वह चट से उठा और मृगावती तथा महेन्द्र इनको भी साथ में लेवे देवी के मन्दिर की ओर चल पड़े। जेल में कैद किये गये प्राठों तरुण वीरों को भी मुक्त कर साथ में ले लिया ।
पश्चात्ताप से व्यथित नरसिंह ने स्पष्ट शुद्ध अन्तःकरण से अपना अपराध स्वीकार कर लिया था। अपने अपराध की बार-बार क्षमा याचना की, मृत्युदण्ड भी आनन्द से स्वीकृत करने को तैयार था। इसी कारण राजा पद्मनाभ ने उसकी स्पष्टवादिता से क्षमा प्रदान करदी थी। उसे किसी भी प्रकार का दण्ड न देकर अपने साथ देवी के मन्दिर की ओर आने का उपदेश दिया | परन्तु माणिकदेव का मुँह नहीं देखना, यह निश्चय कर नरसिंह देवी के देवल की भोर न जाकर सीधा प्राचार्य श्री की गुफा की ओर चलता
बना ।
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