Book Title: Ahimsa ki Vijay
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti

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Page 70
________________ F राजप्रासाद में खून हत्या - ११ 77 उस रात्रि के पूर्ण होते ही प्रातः सूर्योदय के साथ ही देवी के सामने बलि ढ़ने वाली है। देवी की पूजा होते कुटे ६ दिन पूर्ण हो । एक भी दिन निर्विघ्न पार नहीं पड़ा । प्रतिदिन सवेरेही प्रारती पूरी होते न होते वही एक न एक तरुण नवयुवक अहिंसा का उपदेश करता, "अहिंसा परमो धर्मः" जयघोष करता आता रहा, और देवी को पशुबलि नहीं देना, इस विषय पर अत्यन्त मार्मिक ढङ्ग से उपदेश देता रहा। उन सभी को मारिएक देव ने पाखण्डी घोषित कर जेल में भेज दिया सभी कैदी बनवा दिये थे, तो भी उपदेश से सैंकड़ों लोगों का हृदय परिवर्तित हो गया था, उनके उरस्थल से दया का झरना फूट पड़ा, उसको निर्मल गया सी धारा घोरों की भी हिंसात्मक भावना रूप कल्मष का प्रक्षालन कर रही थी । धर्मात्माओं की संख्या वृद्धि देख माणिकदेव को सन्देह हो रहा था कि संभवतः सम्पूर्ण जनता भी इसी तरह बलिपूजा का विरोध करें। "यह बलिपूजा होगी कि नहीं ?" इसी चिन्ता में वह झुलस रहा था । प्रथम दो तीन तरुणों के कैदी होने तक जनता में कुछ भी जाग्रति नहीं हुयो अपितु वे उल्टे देवी का ही चमत्कार समझ कर उसी की सामर्थ्य की प्रशंसा कर रहे थे। कालीमाता का ही माहात्म्य समझ रहे थे । परन्तु जब प्रतिदिन ही एक एक नवयुवक जेल में पडने लगा, उन निरपराध तरुण को शान्तता, मधुरता, तेजस्वी मुद्रा, प्रियवाणी, प्राणियों पर दया करने की उनकी छटपट हट, मार्मिक उपदेश और उनकी सहनशीलता देख-देख कर लोगों का हृदय द्रवित होने लगा था। उनकी वृत्ति-परिपत अहिंसा की ओर झुकने लगी । कितनों में यात्रा कर बलि नहीं देना यह चर्चा भो चालू हो गई। आचार्य अमरकीर्तिजी ने उपवास शुरू किये, इससे भी कदाचित जनता में क्षोभ उत्पन्न होता, इसका कोई नियम नहीं था । पद्मनाभ राजा ने पुरोहित के कथनानुसार यदि सर्व प्रयत्न किया होता तो भी इन अनेक कारणों से उसका मन स्थिर रहता, यद्यपि राजघराने के भी अधिकांश लोगों का झुकाव मुनिमहाराज की ओर ही था, मृगावती ने तो हिंसाकर्म बन्द

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