Book Title: Ahimsa ki Vijay
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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अहिंसा की विजय उसकी पीठ पर हाथ मेजा जाद' था, "वणे, मेवी शी इला नहीं पी, पर मेरी तो आज्ञा थी न ? मेरी आज्ञा तुम पालन नहीं करोगे क्या ? नरसिंह ! मैं जो यह कहता हूँ उसमें कोई मेरा स्वार्थ है क्या ? देवी के भक्तों के लिए ही यह सब करना पडता है । यह क्या तुम नही जानते ? अाज या कल मेरा काम तुम्हें ही करना है । इस मठ का अधिपति कोई दूसरा बनेगा, ऐसी तुम्हें शङ्का है क्या ?, तुम्हारे मन में कैसी भी शङ्का है तो, उसे दूर कर ! तुझे आज तक पाल पोष कर बढाया, अपना सर्व गुप्त रहस्य तुझे बतलाया, अपना निकटवती बनाया, तो भी क्या तुम्हें सन्देह है ? मुझ पर विश्वास नहीं ? जायो मुझ पर तुम्हारा तनिक भी प्रेम है विश्वास है तो अभी की अभी मेरो इच्छा पूरी करनी चाहिए।
कपटी माणिकदेव की वाक्पटता द्वारा नरसिंह का निश्चय डगमगाने लगा । पन्द्रह वर्ष से उसकी आज्ञानुसार जो कारनामे किये हैं, वे सब असत्य
और अमानुषिक हैं, तो भी उसके सान्निध्य में रहा हूँ, उसने गलत मार्ग पकडा है तो भी मुझे गुरु प्राज्ञा पालन करना चाहिए ऐसा लगने लगा उसे । उसके हृदय में सन्देह रूपी धुमा उड़ने लगी, घुमार कम हुआ और गुरु आज्ञा भंग नहीं करना, इच्छानुसार काम कर देना ऐसा निश्चय कर वह बोला
___ "गुरुदेव ! आपके वचनों पर अविश्वास दिखाया, इसके लिये आप क्षमा करें। आपकी आज्ञा पालन करना यह मैं मेरा कर्त्तव्य समझता हूँ। चलो, इसी समय में उधर जाता हूँ।" इस प्रकार बोल कर वह मठ की ओर चल पड़ा । वहाँ से दस-पांच साथियों को लेकर मल्लिपुर की राह पकडी ।