Book Title: Ahimsa ki Vijay
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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सार
अहिंसा की विजय!
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पाता है इसकी उसे जानकारी थी। परन्तु उस बेचारी से क्या होने वाला था ? वह स्वयं ही एक कैदी की भांति बन्धन में पड़ी चिन्ता में झुलस रही थी।
प्रतिदिन के समान तीसरा दिवस पाया और पुनः एक तरुण पकड कर राजा को जेल में आ बंधा । यह सब देखकर मृमावती और अधिक उद्विग्न हो गई । बलि बन्द हुए बिना आहार नहीं ग्रहण करने की प्राचार्य श्री ने प्रतिज्ञा की है यह भी उसके कान में बात आ गई । अब तया उपाय करना, ? इसका बहुत देर तक गम्भीर विचार कर अपनी सखो के परामर्श से युवराज महेन्द्र को एक पत्र लिखा और एक विश्वासी नौकर के साथ गुप्त रीति से उमे चम्पानगरी पहुंचाने को कहा ।
अब तक आचार्य श्री के पाँच तरुण जेल में आ चुके थे । प्रतिदिन एक नवजवान निरपराध जेल में जाता है यह देखकर लोगों को भी एक प्रकार को चिन्ता उत्पन्न हो गई । उस तरुण का उपदेश अयोग्य था क्या ? यह प्रश्न उनके मन में उठकर मस्तक से टकराने लगा । उधर हमारा काम किस प्रकार निर्विघ्न समाप्त हो इसकी चिन्ता पुरोहित मारिणकदेव को लगी हुवी थी । बह उसी बिचार में बैठा था कि उसके गुप्तचर में एक पत्र की थैली लाकर उसके हाथ में दी।
चलि बन्द करने के लिए कहीं घया-क्या उपाय चाल हैं इसकी जानकारी के लिए माणिकदेव के अनेकां गुप्तचर लगे थे। उसके ये मिष्य सर्वत्र शुभते थे। उन्हीं में से एक गुप्तचर ने यह थैली लाकर दी थी।
सुमावती ने जो पत्र महेन्द्र को लिखे थे, उनका जवाव लाते हार नौकर को रास्ते में पकड़ लिया और उससे पत्र लेकर माणिक देव के शिष्य नका लाये थे । माणिक देव ने पत्र खोलकर देखे । उसका चेहरा झोध से लाल चट्ट हो गया, गोठ फडफडाने लगे, उसने एक दीर्घ स्वास छोडी और वें पत्र नरसिंह के सामने 'फेंक कर बोला, देख, देख ये पत्र ! उस दुष्ट राजकन्या के क्या क्या कारस्थान चल रहे हैं यह देख, ! परन्तु यह प्रसंग मेरे सम्बन्ध में है, मैं कौन है यह वह भूल गई! ठीक है, अब उसका विचार करने का समय नहीं, इस माणिकदेव के विरूद्ध जाने का परिणाम क्या होता है यह उसे प्राण जाने के समय समझ में आयेगा।" इस प्रकार मोठों में हो बुडबुडाते उसने अपने शिष्य नरसिंह की मोर देखा ।
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