Book Title: Ahimsa ki Vijay
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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महेन्द्र का जेल में बन्दी होना-१०
अबतक सात वीर युवक जेल में जा चुके थे 1 अष्टमी के दिवस की पूजा प्रारम्भ होने जा रही है, परन्तु क्षण-क्षण में माणिकदेव उदास अन्तःकरण से बाहर की और देखता रहा था कि प्राज भी कोई पाखण्डी पाने वाला है क्या ? इसकी उसके हृदय में पूरी धसत ही बैठ गई थी। आरती समाप्त हुयो । बाजे बन्द होते होते एक वीर निर्भय युवक की गर्जना सुनाई पड़ी। "अहिंसा परमोधर्मः", जय हो अहिंसा धर्म की। "उसकी मधुर किन्तु बुलन्द आवाज ने सबको प्राकृष्ट कर लिया। कितनी शान्त मुद्रा थी उसकी ? उसको देखते ही सबके हृदय में एक नैसर्गिक प्रादर उत्पन्न हो गया । पूजा जिस दिन से आरम्भ हुयी थी, उसी दिन से एक-एक नवजवान निरपराध वीर जेल में बन्दी बनाया जा रहा था। परन्तु उनमें से किसी की भी मुद्रा
चेहरे पर बोध का तनिक भी आभास नहीं था। बे सभी शान्त और प्रसन्न चित्त थे । इससे और भी अधिक सबको आश्चर्य हो रहा था।
उस तरुण का बोलना प्रारम्भ होते ही समस्त उपस्थित जनों का लक्ष उधर ही केन्द्रित हो गया था। इतने में ही पञ्चारती लिए वह पाखण्डी माणिकदेव पुरोहित बाहर आया। क्रोध से उबलता हा बोला, "हे, लोगों ! मूर्ख सरोखे उस पाखण्डी की बड़-बडाते बकवास को क्या समझ कर सुन रहे हो ।' घरो पकड़ो उसे, डालो कैदखाने में।"
पुरोहित ने सर्व लोगों पर एकबार अपनी दृष्टि घुमायो। इसकी ईर्ष्यावृत्ति से आज एक भी व्यक्ति दौड़कर नहीं आया। सभी स्तम्भित थे । इससे वह माणिकदेव और अधिक जल-भुन उठा । और जमीन पर पाँव जोर से पटक कर दांत डसता, अधर चबाता बोला", तुम उसको नहीं पकड़ते ? देवी पर तुम्हें विश्वास नहीं ? तुम्हें उसके कोप का भय नहीं लगता ?
सर्वत्र गम्भीरता छा गई ! कोई भी कुछ नहीं बोला, सभी लोग उस तरुण को ओर मूर्तिमान से एक टक देख रहे थे ! पुरोहित का बोल-मध्य