Book Title: Ahimsa ki Vijay
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti

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Page 65
________________ ५८] [अहिंसा की विजय मे बन्द कर बह वोला, रोहित महाराज, इन भोले, गरीब लोगों को चेतावनी नहीं दो, तुम्हीं बोलो मेरा क्या अपराध है, यदि अपराध है तो तुम्हीं पकड़ो मुझे यदि मेरा अपराध है तो तुम उचित दण्ड दो। परन्तु उमके पूर्व इन अज्ञ भोले भाई बन्धुओं को चार शब्द बोलने का मुझे अवसर दो।" इस प्रकार कह कर बह लोगों की और उन्हें सम्बोधन कर बोलने लया। भाइयो ! यदि मचमन देवी माँ बलि मांगनी तो मैं स्पं प्राण देने को तैयार हैं । मेरे अकेले के रक्त से यदि देवी की तृप्ति नहीं हुयी तो तुम मेरी मृत्यु के बाद पशुबलि करना ? हमारे इस स्वार्थसाधी पुरोहित के बचनों पर विश्वास मत करो। दुर्बल, असमर्थ प्राणियों का बध कर सुख मिलने की आशा से लालसा से निर्दयी मत बनो। अपितु उनकी रक्षा में अपने प्राण अर्पण कर बीर बनो। इस बलि को बन्द करने में हमारा कोई स्वार्थ है क्या ? इसका विचार करिये । परन्तु जिसको अपना स्वार्थ सिद्ध करना है उसके पीछे लग कर आप कर्त्तव्यभ्रष्ट नहीं होना ? सावधान होइये ! देवी तनिक भी कुछ मांगती नहीं। भक्तों के पास भीख मांगकर खाना इतना दारिद्रय देवी को नहीं पाया है। आप इन मक पशुओं की बलि चढ़ा कर भूमि को रक्त से मत रंगो। हजारों प्राणियों का घात उसी की सन्तान का नाश है । तुम्हारे हृदय में दया है । आप इतना निर्दय कर्म करने को कभी भी तैयार नहीं होने वाले, ऐसा मुझे विश्वास है । बोलो, यदि मेरी बात आपको सही जचती है तो एक साथ बोलो"अहिंसा परमोधर्मः ।" उस तरुण के उपदेश से कितने ही के हृदय में दयांकुर निकल आये । इतना ही नहीं अधिकांश लोगों के उद्गार बाहर गंज उठे "अहिंसा परमो. धर्म:" "अहिंसा धर्म की जय ।" ___लोगों के मुख से अहिंसा धर्म का जयनाद सुनते ही उस तरुण का मुखकमल वस्तुतः सरोज सरीखा खिल उठा । परन्तु यह सब माणिकदेव को कैसे सहन होता ? क्रोध से अभिभूत, अविवेकी उस माणिकदेव ने अपने हाथ की पञ्चारती (बड़ी पाँच दीपकों की प्रारती) उसके भाल पर फेंक कर मारी, उसका कपाल फट गया और उससे रक्त धारा बह चली । यही नहीं वह बेहोश होकर धडाम से पृथ्वी पर गिर पड़ा। लोगों का हृदय दया से उमड़ पड़ा। ये उसे सावधानी से उठाकर होश में लाने का प्रयत्न करने

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