Book Title: Ahimsa ki Vijay
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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अहिंसा की विजय ]
लगे। उसी समय राजसैनिक वहां आये । और उसे उसी दशा में उठाकर राजमहल में ले गये । सब लोग उधर एक टक से देखते रहे ।
पद्मनाभ महाराज ने जब उस तरुण को रक्त से लथ-पथ देखा तो उसका हृदय भी दहल उठा । उसे यह दृश्य बहुत खराब लगा। पुरोहित के इस राक्षसी कृत्य से उसे क्रोध भी प्राया। परन्तु क्या करना चाहिए यह उसे कुछ समझ में नहीं आया । उसने उस तरुण को जेल में रखने और राजवैद्य द्वारा उसका उपचार करने की आज्ञा दी। उपयुक्त औषधोपचार होनी चाहिए। ऐसी आज्ञा देकर स्वयं उस घटना के सम्बन्ध में हताशचित्त विचार करते करते दीवानखाने में जाकर बैठ गये।
पुरोहित का यह दुष्कृत्य जिस समय मृगावती को विदित हुआ, उस समय उससे चुप-शान्त नहीं रहा गया ! उसने स्वयं जेलखाने में जाकर उस तरुण की जानकारी प्राप्त की और उसकी भले प्रकार सुव्यवस्था कर लौट आयी ।
पूजा प्रारम्भ के दिन से आज तक पाठ तरुण बन्धनबद्ध हो जेल में आ पड़े । मात्र नवमी का एक ही दिन बाकी था। पूजा के नौ दिन होने के वाद पामें दिकस बलि होने वाली थी । बलि पूजा अन्तिम दिन में ही होती थो । यदि यह बलि बन्द नहीं हुई तो आचार्य महाराज आजन्म उपवास करने बाले हैं। यह बिचार जैसे ही उसके चित्त में आया कि वह अत्यन्त कष्ट में पड़कर अपने कमरे को प्रोर गई।
यात्रा करने वाले लोगों में भी यही चर्चा चाल थी। स्थान-स्थान पर पेड़ों की छाया में पांच, दश मनुष्य इकट्ठे बैठकर परस्पर इसी सम्बन्ध में परामर्श कर रहे थे । सत्य देखो, तो यह पशुबलि देना अयोग्य हो है । इस प्रकार के शब्द अधिकांश लोगों के मुख से निकल रहे थे । मारिणकदेव पूरोहित का अमानुषिक व्यवहार देखकर-अन्याय अनीति का कृत्य प्रत्यक्ष देख कर सबका मन दुःखी था।
__नवमी का दिन भी आ गया । आज बहुत लोग पूजा देखने को एकत्रित हुए थे । परन्तु किसी के भी मुख पर उत्साह नहीं था। प्रसन्नता नहीं यो। सबका मन चिन्तातुर था कि अाज न जाने क्या नवीन घटना होगी । हमेशा की भाँति पारती की ओर किसी का भी लक्ष्य नही था ।