Book Title: Ahimsa ki Vijay
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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अहिंसा को विजय]
{५३ यदि वह प्रसन्न हो गई तो बस, फिर क्या है, मिट्टी से सोना होगा और तम मुखी हो जाये । क्षरणभर में आपकी मनोकामना पूर्ण होंगी । तुम्हें यदि देवी की कृपा चाहिए तो ..........--पकडो..........."धरो इसे .......... पकडलो, इस हरामखोर पाखण्डी को।"
इस प्रकार पुरोहित के आवेशपूर्ण वाक्य को सुनते ही कुछ मूर्ख अज्ञानी भक्तों ने देखते ही देखते इस तरुण पर हमला किया। चारों ओर से घेर कर उसे पकड़ लिया और जय-जयकार किया "जय काली माता की, 'जय' 'जय' महादेवी की।"
सभी मन्दिर से निकल गये। लोगों को अधिक स्फुरण-उत्साह चढ़ गया । देवी की शक्ति कितनी अपार है, इसकी मानों उन्हें एक जानकारी मिल गई। उन्मत्त माणिकदेव का चेहरा इस विजय से फूलकर कुप्पा हो गया । शीघ्र ही उस तरुण को पद्मनाभ राजा के पास भेज दिया। और उसे जेल में बन्द करने की आज्ञा दी। वह राजपुरोहित थान "
यह तरुण अचानक कहाँ से आया, पाठकों को बिदित ही होगा। आचार्य अमरकोति महाराज के पास जिन आठों बीरों ने अहिंसातत्व प्रसार की प्रतिज्ञा की थी उन्हीं में से यह एक व्यक्ति था । आश्विन शुद्ध एकम का दिन निकलने के साथ ही प्राचार्य श्री ने युवकों को बुला कर कहा, "हे वीरो ! आपने जो प्रतिज्ञा की है उसको पूरी करने का समय आगया है। प्राज देवी के उत्सव का पहला दिन है । देवी के मन्दिर में आज हजारों लोग जमा होंगे, वहाँ जाकर "बलि देना कितना निंद्य कर्म है पाप है यह बता कर उन्हें अहिंसा का उपदेश देना चाहिए । यह आपका कर्तव्य है । देवी को बलि बन्द हुए बिना मैं आहार ग्रहण करने वाला नहीं । यह मेरी अचल प्रतिज्ञा है। तुम में से प्रतिदिन एक-एक मन्दिर में जाओ और योग्य समय देखकर लोगों की मनोभावना बदलने का शान्तता से प्रयत्न करो। एकनिष्ठ-पंधभक्तों द्वारा कदाचित तुम्हें कष्ट आये, सहन कर तुम्हें अपना काम करना ही चाहिए । प्राण जाने का समय आने पर भी अपना ध्येय नहीं छोड़ना। कर्तव्य की कसौटी पर आप खरे उतरे तो मापका प्रात्मीक बल प्रकट होगा और निश्चय ही प्रापको बिजय हुए बिना नहीं रहेगी।"
इस प्रकार आचार्य श्री ने अपने शिष्यों को उपदेश देकर स्वयं मौनव्रत धारण निश्चिन्त हुए । प्राचार्य श्री का आज प्रथम उपवास भी प्रारम्भ