Book Title: Ahimsa ki Vijay
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti

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Page 59
________________ [ अहिंसा की विजय अन्दर आया और उसने उच्च स्वर में अहिंसा परमोधर्म:" अहिंसा धर्म की जय गर्जना की। एक साथ सबकी दृष्टि उधर घूम गई । चारों ओर स्तब्धता छा गई । वह तरुण पुरुष चारों ओर देखने लगा । पुनः शान्ति से बोल ने लगा बन्धनो, आप सभी देवी की यात्रा करने के लिए यहां एकत्रित हुए हैं । देवी. आपका कल्याण करने वाली माँ है, यह आप जानते हैं। उसकी कृपा से हमें सुख प्राप्त हो, यह आप सबकी आकांक्षा है। परन्तु इस सुख के मिलने के लिए आपको देवी के लिए पशुबलि देनी चाहिए यह आपकी भूल है, यह पूर्णतः गलत है। यह धारणा ही निर्मल है। देवी यह कभी कहने वाली नहीं कि मुझे खुश करने को पशुबलि चढायो । क्योंकि हमारे सामने जिस प्रकार सुख पाने की आकांक्षा रहती है उसी प्रकार पशु: पक्षी सभी प्राणी सुख पूर्वक जीवन व्यतीत करना चाहते हैं। उन मूक प्राणियों को भी सुख-दुःख की अनुभूति होती है। उन्हें भी सुख पाने की भावना रहती है। उनके प्राण जाते समय उनको जो दुःख होता है, उनमें जो बेदना, छटपटाहट होती है, उसे देखकर यदि देवी का दया करना नहीं फूटा तो वह देवी कैसी ? अपने सामने तडफडाते अन्याय से घात किये जाने वाले, मूक निरपराध को यदि जीवनदान नहीं दे सकी तो वह तुम्हारा क्या कल्याण करेगी ? तुम ही जरा विचार करो। देवी को सभी प्राणी समान रूप से प्रिय-स्नेह दृष्टि से देखने चाहिए । इसलिए आप पशुबलि देकर देवी की विडम्बना मत करो । यदि वास्तव में तुम्हारी देवी को यदि पशुबलि चाहिये तो मैं यहाँ इनके बदले अपने प्राण अर्पण करने को तैयार हूँ। परन्तु भाइयो ! अज्ञामवश, बिना विचारे इन बेचारे, निरपराध मूक पशुओं का बध मत करो। उस स्वार्थ साधक पुरोहित के विपरीत निर्देश से यथार्थता को भूल................।" उस तरुण का वाक्य पूरा भी नहीं हुआ कि वह माणिकदेव एक खू खार बाघ की तरह बाहर दौडता आया और उसने क्रोध से गर्जते हुए कहा-"भक्त हो ! क्या पागल सरीखे देख रहे हो ? यह पाखण्डी वोलता जा रहा है, इसकी बात पर सर्वथा विश्वास नहीं करना । जिसे अपने पेट को रोटी पानी की व्यवस्था भी करने को नहीं होती ऐसा यह तुम्हें उपदेश देता है । परन्तु उससे तुम्हें क्या मिलने वाला है ? इसका तुम्ही विचार करो । यदि देवी का कोप हुआ तो समझ लो सबका ही सर्वनाश होगा । 4. - -

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