Book Title: Ahimsa ki Vijay
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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[अहिंसा की विजय
बह अावाज नहीं करता धीरे से उसके पीठ पीछे जा खड़ा हुआ। नरसिंह इतना गम्भीर विचार मग्न था कि उसे कुछ भी भान नहीं हुआ। इतना चिन्ता में डुबा उसे कभी किसी ने नहीं देखा था। उसको एकान्तता और एकाग्रता देखकर माणिकडेव भी आश्चर्यचकित रह गया । थोडी देर उसको इस स्थिरता को देन मारिणकदेव ने उसकी पीठ पर थपकी मारी और बोला
नरिह : ऐसा कौन-सा विचार चल रहा है ? जिस काम के लिए गये थे बह काम हया कि नहीं?"
मरसिंह सहसा उठ खड़ा हया । वह कुछ बोला नहीं। नीची गर्दन किये चुप-चाप ही खडा रहा । उसका यह विचित्र सहसा परिणमन देख माणिकदेव को बहुत ही विचित्र लगा। क्योंकि नरसिंह उसका बिल्कुल दाहिना हाथ था। माणिकदेव के मुख से शब्द बाहर आते ही कैसा भी कठिन काम क्यों न हो तत्क्षण पूर्ण करता था। प्राणों की भी उसे परवाह नहीं होती थी। कैसा ही संकटापन्न कार्य क्यों न हो वह सफल होता रहा । था गुरुजी की आज्ञा बिरुद्ध उसने कभी भी आज तक कैसा ही विचार नहीं किया था। यह प्रथम बार है कि आज उसके हृदय में उथल-पुथल के बादल घुमड रहे थे । क्या करना क्या नहीं करना ?
माणिकदेव ने आज उसे आज्ञा दी थी कि जिन पाठ वीगें ने हिंसा वलि बन्द करने की प्रतिज्ञा करके यात्रोत्सव रोकने का भार लिया है. उनके घरों में जाकर आग लगादो, लुटवा दो, और देवी प्रचण्ड शक्ति है ऐसा उन्हें अनुभव करायो । उसका मठ काले कारनामों का अड्डा था । वहाँ अनेक गुण्डे लोग उसने एकत्रित किये थे । उनका पालन-पोषण करता था । मठ के अन्दर भुपारा तलघर था । उसी में अनेक महत्वपूर्ण कारनामे चलते थे । यह कोई प्रथम अवसर नहीं था । जब तब कोई भी कुछ भी देश के विपरीत करता तो उसके घर द्वार जलाना, लूटना, मार पीट कराना और देवी का चमत्कार बताना यही उसका धन्धा था । बीच-बीच में घटनाएं होती रहती थौं । इसी से लोगों में भय और आतंक छाया हुआ था। सब देवी के नाम पर झडे चमत्कार से अभिभूत हो गये थे । इन सब कुकृत्यों का कार्य नरसिह ही करता था । परन्तु आज ही उसने इस अनाचार-अत्याचार रूप कार्य से बिमुखता दिखलाई थी। आज ही उसने यह काम नहीं किया। मारिणकदेव की आज्ञा मिलते ही वह मठ के बाहर निकला परन्तु आज उसने अपने