Book Title: Ahimsa ki Vijay
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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पहिसा को विजय]
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साथियों को साथ में नहीं लिया था । दशलक्षण पर्व के समय में वह गुप्तरूप से कई बार आचार्य श्री के दर्शनों को गया था। उनका उपदेश भी सुना था। अहिंसा का माहात्म्य सुन कर उसका हृदय पिघल गया था। पिछला अन्तिम दिवस का मार्मिक भाषण सुनकर तो उसका पाषाण हुदय पिघल कर पानी हो गया था । पशु बलि तो वह रोज हो देखता था । परन्तु नर हत्या करने में भी उसे हिचकिचाहट नहीं थी। ऐसे निर्दयी नरसिंह के हृदय में भी आज प्राचार्य श्री के अहिंसा तत्त्व विवेचन रूप उपदेश से दया का झरना फट पडा था । इसी से आज माणिकदेव की आज्ञा पालन नहीं कर सका ।
देवी का यथार्थ सच्चा कोई माहात्म्य है क्या ? यह शंका उसके मन में बार-बार पा रही थी। देवो वोलती नहीं थी । देवी की ओर से कोई भी किसी प्रकार सन्देश भी नहीं पाता था। न वह किसी को शाप न बरदान ही देती थी । यह बात उसे पक्की मालम थी। फिर भी बिना कारण देवी के नाम पर, केवल पुरोहित की इच्छापूर्ति के लिए इतना दुष्कृत्य करने का मुझे क्या प्रयोजन ? मैं क्यों तैयार हुग्रा इस कुकर्म को ? यह मेरी भयङ्कर भूल है, यह उसे प्रतीत होने लगा। इसी कारण आज पुरोहित की इच्छा उससे पूर्ण न हो सकी ।
नरसिंह मौन था । कुछ भी बोला नहीं, उसे शान्त, चुप देख माणिकदेव ने उसको पीठ पर हाथ फेर कर कहा, "वत्स मौन क्यों हो ? बोलते क्यों नही ? आज तुम मल्लिपुर नहीं गये ?"
"नहीं" नरसिंह स्पष्ट शब्दों में बोला ।। "क्यों क्या देवी को आज्ञा पालन नहीं करना ?"
"देवी की ? क्या वस्तुत: देवी ऐसी आज्ञा देती है ?" नरसिंह ने तेज आवाज में पूछा।
मेरे सामने मेरा ही पट्टशिष्य-मुख्यशिष्य इस प्रकार का उद्दण्डता का उत्तर दे रहा है यह देखकर मारिणकदेव का चहरा गम्भीर हो गया। एक क्षण में उसका शरीर निर्जीव जैसा हो गया । क्योंकि उसके एक-एक कार. स्थान नरसिंह को पूर्णतः स्पष्ट विदित्त थे। उसकी पूरी पोलपट्टी वह जानता था । उसे दुःखी कर एक दिन भी में जी नहीं सकता। यह वह भले प्रकार जानता था । अत: यह सब सोचकर वह अत्यन्त मधुर स्वर में, प्रेम से बोला.