Book Title: Ahimsa ki Vijay
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti

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Page 51
________________ ४४] [अहिंसा की विजय उसी समय आनन्दविभोर मृगावती अपने पिता को यह आनन्द सूचना देने को दौड़ती हुई अन्दर आई । परन्तु वहाँ पुरोहित को देखते ही उसका चेहरा फक्क रह गया । जैसे काठ मार गया हो उसे । अपनीमाज्ञा भंग : मुगि के पास जाकर नग्न मुनि का दर्शन करके आने वाली मृगावती को अपने सामने आई देखकर राजा पद्मनाभ की आँखें रक्त समान लाल-लाल हो गई। वे कठोर स्वर में डाटते हुए बोले, “जा जा वहाँ पहाड़ पर ही जाकर बैठ, उस नग्न साध के दर्शन को नहीं जाना कहने पर भी, तू वहाँ गई ?, मैंने ठोक कर निषेध किया बही काम तू ने किया, यह देवी का कितना बड़ा अपराध किया है ? जा, इसके प्रायश्चित में ही तेरा बाहर जाना बन्द ही कर दिया है ।” बाहर कहीं नहीं आ सकती नू ? अचानक बिजली पडे वक्ष की जैसी दुर्दशा होती है, उसी प्रकार मृगावती की दशा हुई । एक क्षण में उसका अपार हर्ष विषाद में परिणत हो गया । उसके आनन्द पर अप्रत्यासित वज्रपात हुआ। उसका चेहरा एकदम सफेद हो गया। विजयी पुरोहित ने उसकी ओर रुक्ष दृष्टि से देखा । बेचारी मृगावती एक शब्द भी नहीं बोली, चप-चाप निकल कर चली गई और अपनी माँ के पास जाकर गाल मुह फुलाये फफक-फफक कर रोने लगी। * KAKKAKKXX XXHEAKKHAKKAKIXXXX पशु-नर बलि-दुःखों का आमंत्रण यदि करोगे प्राणी घात प्रापको होगो शांति समाप्त SAXYRKKIMERRENAYAKRE **

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