Book Title: Ahimsa ki Vijay
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 50
________________ अहिंसा को विजय ] [४३ मनुष्य एक दृष्टि से कुछ विचारता है, उसकी अपेक्षा कुछ एक रहती है, परन्तु अन्त में फल कुछ ओर ही घटित होता है। ऐसा संसार का नियम है । अनुभव में आता है । मृगावती उस दिन मुनिदर्शनों को गई । यह देखते हो, वह समाचार माणिकदेव को कहने के लिए एक उसका, गुप्तचर दौड़ता हुमा मठ में पहुंचा, परन्तु उस समय माणिकदेव वहाँ नहीं था। वह तो राजमहल में राजा के पास प्राया था। अतः मठ में पूछ कर शीघ्रातिशीघ्र उलटे पांव राजमहल में आ धमका । मागिकदेव को इशारा कर बाहर बुलाया और सब समाचार उसे सुना दिया। मृगावती मुनिदर्शन को गई यह सुनते ही उसका कोपानल तलु से एकदम शिर पर लहक उठी । कोच से संतप्त हुआ बह पुनः राजा के पास गया। अच्छी तरह अब उसके कान खोले । उसके मुख से वचन सुनते ही पद्मनाभ घबरा गये । । मरी पुत्री ने इतना बड़ा अपराध कर डाला", ऐसा प्रतीत होने लगा, और यह पुरोहित भी आग-बबूला होकर कोई बड़ा भारी शाप देगा, संभवतः यहीं अभी भस्म कर देगा इस प्रकार विचारता हुआ राजा अनेक प्रकार से पुरोहित जी की मनवार-खशामद करने लगे, नाना प्रकार बिनती कर उसे शान्त करने का प्रयत्न करने लगे। ___ "अब यह राजकुमारी ही देवी के कोप को बलि चढने वाली है । और तुमने भी आज तक इसके विषय में कोई प्रबन्ध नहीं किया इसलिए तुम पर भी शीघ्र ही भयंकर संकट आकर तुम्हारा अवश्य ही सत्यानाश किये बिना छोडने वाला नहीं।" इस प्रकार पुरोहित के मुख से अपने और कन्या एवं दंश के प्रयाय रूप वाक्यों को सुनकर पद्मनाभ महाराज :उसकी चापलसी खुशामद करते हुए उससे कहने लगे, "माणिकदेव एक बार मुझे क्षमा करदो । यह सब भूल मेरी ही है । इससे प्रामे मैं मृगावती को बाहर कहीं भी नहीं जाने दूगा । तथा कल से मुनि का उपदेश सुनने को कोई भी नहीं जावे ऐसा भी प्रतिबन्ध लगाता हैं। सबको रोक दंगा। परन्तु इससे देवी का कोष शान्त होगा न ?" राजा के वचन सुनते ही पूरोहित का पारा कुछ उण्डा पड़ा, कुछ अच्छा सा लगा । मृगावती का ही नहीं, अपितु समस्त लोगों का ही मुनि उपदेश में जाना बन्द होगा यह सुनते ही उसे परम हर्ष हुआ। अंधेरा होने लगा । माणिकदेव जाने के लिए उठने ही वाला था, कि

Loading...

Page Navigation
1 ... 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85