Book Title: Ahimsa ki Vijay
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti

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Page 34
________________ अहिंसा की विजय ] २७] " किन्तु " राजा अति विनय से बोलने लगा इस सुपाती के बालहठ पने का परिणाम है । जान बूझ कर मैं पहाड़ की ओर जाने की उसे श्राज्ञा देता यह क्या तुम्हें लगता है ? मैं उसे प्रोत्साहन देता क्या ? वह केवल प्राकृतिक सौन्दर्य मात्र अवलोकन करने के अभिप्राय से पहाड़ पर जाकर आती है । मृगावती पहाड़ की नैसर्गिक सुषमा देख प्रसन्न होती है ।" "लेकिन, देवी की आज़ा की अपेक्षा न करते हुए यह मनोरञ्जन सदैव को समाप्त हो जायेगा इसकी आपको जरा भी भीति नहीं ? यह चलाया राम रंग एक दिन जड से भंग होगा, इसका भय नहीं ?" पुरोहित ने पूरे अधिकार के स्वर में डाटकर कहा । प्रश्न किया । "छिः छिः ऐसा कैसे कहते हो ? देवी जी की कृपा है इसीसे तो हम सब सुखी हैं । इसी के चलते ही मृगावती को शक्त आज्ञा दी है कि, पहाड़ पर गई तो कोई बात नहीं परन्तु मुनि दर्शनों को कभी जाना ही नहीं । और इसी प्रकार हमारी मृगावती उधर जाती नहीं । इसकी मुझे पूरी जानकारी है। इस प्रकार विनती करके राजा पुरोहित को समझाने का प्रयत्न करनें लगे । सर्वसत्ताधारी राजा, तो भी पुरोहित द्वारा मनगढंत कल्पना से बनाई देवी के स्वरूप की रूपरेखा से भयभीत होकर एक दीन-हीन भिखारी की भाँति उसे प्रार्थना कर प्रसन्न करने की चेष्टा कर रहा था । संसार में इस प्रकार की अनेकों मायाचारों की गोष्टियाँ हुआ करती हैं, जिनके सम्बन्ध से ज्ञानी भी कर्त्त व्याकर्त्तव्य विमूढ हो जाते हैं । तथ्य क्या है ? इसे समझने वाले अत्यन्त अल्प जन ही हुआ करते हैं । " जिस समय राजा और पुरोहित का यह संवाद चल रहा था उस समय मृगावती पहाड हो पर थी। वह चारों ओर चिन्ताक्रान्त होकर निहार रही थी । परन्तु शुन्यदृष्टि रह इधर-उधर देखती बैठ गयी । दशलक्षण पर्व का यह अन्तिम दिवस था, इस कारण उस दिन लोगों की बहुत ही गर्दीभीड़ जमा हो रही थी । मृगावती पूर्ण स्वस्थ नहीं होने से अभिषेक पूजा करने या देखने को नहीं बैठी । मात्र जिनेन्द्र भगवान का दर्शन कर शीघ्र ही मन्दिर के बाहर आ गई । कुछ दूर एक रम्यस्थली में बैठकर अपनी सखी से बातें करने लगी। मृगावती के आचरण में इस प्रकार का अन्तर

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