Book Title: Ahimsa ki Vijay
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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अहिंसा की विज 1
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शुद्ध और रक्तपात, इस बात की कल्पना हो उसका शरीर थर-थर काँपने लगा। पैर लडखडाने लगे। अपने पिता के ऊपर युद्ध संकट न आवे इसके लिए इस राजकूमार से प्रार्थना करनी चाहिए। युद्ध किसी प्रकार नहीं छिड़ यह उपाय करना चाहिए ऐसा उसने निर्णय लिया। तथा वह मण्डप से बाहर निकल कर अपनी सस्त्री के साथ महेन्द्र के रथ की ओर चल पड़ो।
___महेन्द्र युवराज के रथ के पास पहुँचते ही उसके मन में सावन के बादलों के समान भनेको विचार धुनना लगे । राजकुमार यहाँ पनि पर हम किस प्रकार उनसे बोलें, क्या बोलना, वह प्रथम बार हम से कुछ पुद्धमे क्या ? क्या बोलेंगे? हम उनसे प्रार्थना करेंगी तो बह स्वीकार करेंगे कि नहीं ? इस प्रकार के अनेकों प्रश्न उस मृगावती के मन में पा रहे थे। उन बिचार तरंगों में डूबी वह शुन्य दृष्टि से रथ के पहिये के पास उस ओर देखतो हुई खड़ी हो गई। वहाँ महेन्द्र कब या मवा यह उसे भान ही नही रहा।
अपने रथ के पास राजकन्या खडी है, उसे देख कर महेन्द्र को बहुत ही आश्चर्य हुआ । मृगावती रथ के पास पहुँचते ही अपनी गर्दन नीचे कर चुपचाप खड़ी रही, वह बहुत संकोच कर रही थी । महेन्द्र ने अनुमान लगाया कि संभवतः यह मुझ से कुछ वार्तालाप करना चाहती हैं । इस प्रकार अवगत कर बह उससे बोला, “आपको कुछ कहना है क्या ?
मृगावती स्तब्ध ही थी, उसने अपनी गर्दन भी नहीं उठायो । परन्तु उसके नयन बरसने लगे, अश्र धारा अविरल बहने लगी। उसके प्रश्न विन्दुओं को देखकर महेन्द्र हैरत में पड़ गया। राजकन्या को इतना दुःख होने का भला क्या कारण हो सकता है ? इसका उसे कुछ भी कारण स्पष्ट नहीं हुआ । पुनः महेन्द्र ही बोला, "अापको इतने दुःस्व का कारण क्या है ? कारण यदि मुझे मालूम हो तो............"
"कारण आपको विदित हुअा तो ?" मृगाक्ती अथ पोंछते हुए-गद्गद् स्वर में बोली चट से ।" क्या मेरा दुःख दूर करने का आप प्रयत्न करियेगा ? इस प्रकार कह कर उसने आतुरता से राजकुमार की ओर देखा ।
“पर आपके दुःख का कारण तो समझ में आये ।" मृगावती ने पुनः नोचो दृष्टि की, गर्दन झुकाली, और कुछ मुस्कराती सी छोली "कारण आप ही हैं, ऐसा यदि कहूँ तो आपको कोप तो नहीं होगा ?"
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