Book Title: Ahimsa ki Vijay
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
View full book text
________________
आनन्द और
दुःख-७
जिस समय मृगावती अपनी सहेली के साथ मन्दार पहाड़ पर से उतर कर मुनिराज के दर्शनों को गई थी, ठीक उसी समय धूर्त माणिकदेव पुरोहित राजमहल में पद्मनाभ राजा के पास बैठा था । मृगावती मुनिमहाराज के पास जाने वाली नही यह जानकारी राजा ने जिस समय उसे दा थी, उसी समय मृगावती ने वहाँ नीचे जाकर मुनिराज के दर्शन किये थे | योगायोग ऐसा घटित हुआ कि किसी को इसकी कल्पना भी नहीं थी ।
उस दिन का उपदेश भी गजब का था। लोंगों का हृदयभेद अन्तस् में समा गया । सायङ्काल उपदेश सुनकर आने वालों के मुख से एकमात्र यही चर्चा चालू थी। मनुष्य मुनिराज की स्तुति करते फूले नहीं समा रहे थे । सर्वत्र अहिंसा धर्म का माहात्म्य सुनाई पड़ रहा था । सर्वं लोग मण्डप से बाहर हो गये उस समम मृगावती को घेर कर बहुत-सी स्त्रियां खड़ीं थीं । उसके चारों ओर जमघट लग गया | अनेक महिलाएँ उससे नाना प्रश्न कर यह जानना चाहतीं थीं कि श्राचार्य श्री के उपदेश के सम्बन्ध में उसके विचार क्या है। उसका मत इस विषय में क्या है ।
भीड कम होते ही महेन्द्र युवराज आचार्य महाराज के पास गये । वे प्रतिज्ञाबद्ध ग्राठों वीर भी वहीं खडे थे । आचार्य श्री का उपदेश सुन राज पुत्र महेन्द्र को भी जोश ग्रा चढ़ा था । उसने हाथ जोड नम्रता से मुनिराज जी से प्रार्थना की, "गुरुदेव ! आपकी आज्ञानुसार काम करने को मात्र ये माठ ही वीर तैयार हुए हैं। परन्तु एक राजा का विरोध कर इतने से लोगों से आपका कार्य सफल होगा। यह मुझे सम्भव नहीं लगता । यदि आप श्री की आज्ञा हो तो मैं सेनादल लेकर आऊँ, आपकी इच्छा पूरी करने को मैं पूर्णत: तैयार हूं। राजा का विरोध कर सफलता पाना यह एक दो का काम नहीं । उसे सैन्य बल ही होना चाहिए । ऐसा मेरा विश्वास है ।
महेन्द्र राजकुमार की मुझ पर पूर्ण श्रद्धा-भक्ति है और मेरे इस