Book Title: Ahimsa ki Vijay
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti

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Page 43
________________ [ अहिंसा को विजय स्वार्थ और क्षणिक सुखों को लात मारने वाले वीर मुझे चाहिए ? जिनकी ऐसो तयारी हो उनको प्रागे पाकर ऐसी प्रतिज्ञा करनी चाहिए । इस विषय में राजा की ही क्या अपितु प्रत्यक्ष यम की भीति देखकर भी पीछे हटने का कारण नहीं। क्योंकि हजारों मूक प्राणियों-जीत्रों का जीवन बचाने के लिए हंसते हुए प्रौर शान्ति से प्रभुनाम के साथ आत्म-बलिदान करने वालों को कैसा ही भय आने वाला नहीं । ऐसा कोई वोर है क्या ? प्राचार्य थी ने प्रश्न के साथ ही एकबार फिर अपनी दृष्टि चारों ओर घुमाई । सर्वत्र स्तब्धता ! एक भी मुख से शब्द नहीं निकला । वे पुन: उपदेश देने लगे ,देखो ! अभी भी तुम देवी से भयभीत हो ! कि वा राजा का तुम्हें भय लगता है? अभी भी विचार करो। जिसका दयाधर्म पर विश्वास है, जहाँ होने वाली हजारों पशुओं के सहार को रोकने की जिसके हृदय में कलबली है, अधर्म मार्ग पर लगे हुए अज्ञ, भोले बन्धुओं को यथार्थ सही मार्ग दिखाने की जिसको इच्छा है. ऐसा नि:स्वार्थी दीर इस इतने विशाल जन समुदाय में एक भी नहीं क्या? यह दुर्भाग्य की बात है ।” इतना बोलकर वे पुनः शान्त-चुप हो गये । इसी बीच में जनसमूह के मध्य से एक तेजस्वी तरुण खड़ा हो गया, सामने आया, सभी की दृष्टि इस नौजवान की ओर जा लगी । बह हाथ जोड कर बोला, “महाराज आपने जिस प्रकार जो करने को कहा है उस प्रकार करने की मेरी पूरी तैयारी है। इस यशस्वी कार्य के सम्पादन में में प्राणों की भी परवाह करने वाला नहीं ।” प्राचार्य महाराज को हर्ष हुआ। सभी सभासद विशेष आदरभाव से उसकी ओर देखने लगे । और पुन: एकबार अहिसा का जय-जयकार गूज उसा । उस जय-जय नाद की घुमडती प्रतिध्वनि पर्वत करणों से टकरा कर बायुमण्डल में बिखर गई । यह ध्वनि विलीन हो इसके पहले ही सातवीर और महाराज के सम्मुख करबद्ध आ खड़े हुए। उन माठों धर्मवीर नवयुवकों ने प्रतिज्ञा कर आचार्य श्री के दर्शन किये.और सफलता का आशीर्वाद लिया। सूर्यदेव प्रस्ताचल की ओर आ चुका था। उन आठ महावीरों के सम्मान और उत्साहवर्द्धन में फिर से सब लोगों ने जोर से “अहिंसा परमोधर्मः" इस प्रकार जयघोष किया। धर्मोपदेश समाप्त हुआ। क्रमशः सब लोग मण्डप के बाहर जाने लगे ।

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