Book Title: Ahimsa ki Vijay
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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[ अहिंसा की विजय
कालीमाता की स्थापना की, पशुवलि चढाने की प्रथा प्रारम्भ की, प्रत्येक वर्ष हजारों मूक प्राणियों का संहार चालू है, क्षुद्र स्वार्थ के लिए इस प्रकार का पशुसंहार क्या क्षात्रधर्म है ? बीर क्षत्रिय नरपुङ्गव इस प्रकार का निद्यकर्म- पाकर्म कभी भी नहीं कर सकते। क्योंकि क्षत्रियों का यथार्थ धर्म अहिंसा ही है । "अहिंसा धर्म की जय" एक बार सब बोलिये । मण्डप गू ंज उठा "अहिंसा धर्म की जय" घोष से ।
पुनः क्षोक बाद आचार्य श्री का उपदेश चालू हुआ । श्रोतागण तल्लीन हो गये सभी चुपचाप कठपुतली सारी अचल एकाग्र चित्त थे । आचार्य महाराज कहने लगे "सच्चा धर्म अहिंसा ही है" यहीं सुख का कारण है, शान्तिका निमित्त है" इतना सुनते ही पुनः सबके मुख से एक साथ निकल पडा "अहिंसा धर्म की जय हो, "अहिंसा परमो धर्मः जयशील हो" इस प्रकार जयघोष हुआ । समस्त पहाड़ पर प्रतिध्वनि हुयी । मानों पर्वत ने भी समर्थन किया । इसके बाद पुनः श्राचार्य श्री ने मल्लिपुर में चलते हुए अनाचार और हिंसा का इतना हृदयस्पर्शी वर्णन किया कि सम्पूर्ण श्रोताओं के अङ्गप्रत्यङ्ग में रोमाञ्च हो गया कितनों ही के नेत्रों से अश्रुधारा बहने लगी । तथा कितने ही लोग अपने अतीत जोवन की 'हिंसा' वृति का स्मरण कर पश्चात्ताप करने लगे। कितने ही पद्मनाभ राजा को दोष दे रहे थे । कितनों ने "हम सब आगे कभी भी इस बलि रूप पाप को नहीं करेंगे ।" ऐसा निश्चय किया | महाराज श्री के प्रवचन - उपदेश के बीच-बीच में लोग "अहिंसा परमोधर्म:" इस प्रकार गर्जना करते जा रहे थे । यह अहिसा का जयनाद मण्डप के बाहर निकला और उसकी प्रतिध्वनि से पूरा पर्वत निनादित हो उठा ।
उन आचार्य श्री का सम्पूर्ण उपदेश महिलपुर की परिस्थिति के सम्बन्ध में ही था, उसी को लक्ष्य बना कर बोलने के कारण बीच-बीच में लोग कार मुख कर राजकन्या की आर देख रहे थे । बेचारी मृगावती गर्दन नीचे करे बैठी थी, उसने एक बार भी ऊपर गर्दन नहीं उठाई। इतना प्रभावशाली, स्पष्ट, यथार्थ निर्भय वक्तृत्व उसने जीवन में कभी नहीं सुना था | माणिकदेव पुरोहित को गर्वोक्तिपूर्ण भाषण के सिवाय उसने आज तक अन्य किसी का भी उपदेश नहीं सुना था । इस कारण उसे देवी का माहात्म्य और पूजाबलि इन दो बातों के सिवाय दूसरी कोई भी बात या क्रियाकलाप के विषय में जानकारी नहीं थी । इस समय श्री श्राचार्य महाराज का उपदेश