Book Title: Ahimsa ki Vijay
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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अहिंसा की विजय नहीं गई तो फिर मुझे उसका (राजकुमार का) दर्शन करने की सन्धि कभी भी मिलने वाली नहीं ! सखे ! क्या कई ? उसके एक ही कटाक्ष से मेरी यह हालत हो गई है कि मेरा मन मेरे अधिकार में हो नहीं रहा है। वह कौन है ? इस सम्बन्ध में कुछ भी जानकारी हो तभी मेरा मन समाधान पा सकता है, शान्त हो सकता है । मुनिवास को जाने की खबर यदि पिताजी को हो गई तो कल से निपचय ही यहाँ आना मेरा बन्द कर देंगे । यह सत्य है। परन्तु तो भी यदि अाज का अवसर चूक गया तो फिर कल प्राने से भी क्या प्रयोजन सिद्ध होगा ? क्या करू ?............मसे ! पिताजी की प्राज्ञा उलंघन नहीं करना. यह बराबर उचित है परन्तु"--इतना बोल कर अपनी साडी का पल्ला इधर-से-उधर हिलाती हुयो बिनोद के साथ नीचे को ओर देखने लगी। उसके मन को इस प्रकार की अवस्था देखकर उस सखी ने भी उसे सम्मति प्रदान को। तथा, कूछ ल जाती सी बे दोनों ही मण्डप को ओर चल पड़ी।
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अहिंसा अपनायो देश, जाति, समाज को बचायो
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