Book Title: Ahimsa ki Vijay
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti

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Page 35
________________ [ अहिंसा की विजय क्यों1-हुआ ? यह उस चाणक्ष सखी ने उसी समय ताड लिया था और उसको उदासी को दूर करने का वह प्रयत्न भी करती रही । उसे बहुत कुछ पूछा भी लज्जावश मृगावती इधर-उधर को व्यर्थ बातें बनाकर टलमटोल करती हुयी रह जाती। मृगावती अपने अन्तः करण छुपाने का प्रयत्न करने लगती। आज भी उन दोनों का इसी सम्बन्ध में विनोद चल रहा था । मृगावती बीच-बीच में पहाड़ की ओर आने वाले मार्ग पर दृष्टि डालती जा रही थी | सखी क्या बोल रही है उस ओर उसका अधिक लक्ष्य ही नहीं था। इसी समय वह वेहता सी रास्ते की ओर उंगली से इशारा करती हुयी से हति हो बोल उठी, "वह वह देखो वही रथ आ रहा है ।" वह क्या कह गई उसे स्वयं को हो भान न रहा । सहसा बोल दी । [ ९८ "कहाँ का ? कौन का ? वह रथ ?" आञ्चर्य से उधर देखते हुए सखी ने प्रश्न किया। उधर से आते हुए रथ पर ही उसकी दृष्टि लगी थी । सखी का प्रश्न सुनकर मानों होश में आई मगावती और जीभ को दांतों के बीच दबा उसने अपना मुख दूसरी ओर कर लिया। उसके कपोलों पर हास्य की एक मादक, मधुर कली सी हास्य छटा बिखर गईं। ऐसा क्यों हुया ? यह उसकी सखी ने तत्क्षरग जान लिया । मृगावती ने भी संकोच छोडकर स्पष्ट रूप से इस विषय को अपनी सखो को खुलासा कर दिया । इस प्रकार बात चीत कर वे दोनों हंसी मजाक करती हुयी, पर्वत से नीचे उतरने लगीं। उतरते समय में मृगावती का एक-दो बार संतुलन ही निगड गया था अर्थात् जहाँ-तहाँ पाँव पडे । इतनी उतावली से वह धमाधम पर रखती उतरने लगी । पहाड़ की तलहटी के नजदीक से उसने देखा कि वह रथ भी सरसर आकर मण्डप के सामने जाकर ठहर गया। उधर जाने के लिए मृगावती ने मुख उधर ही किया। उसी समय उसे अपने पिता के वचनों का स्मरण भी हो गया । एक दम रुक गयी । उसके चेहरे पर एक हलकी सी चिन्ता रेखा चमक कर बिखर गई । गुलाब की कली सा खिला चेहरा थोडा म्लान हो गया । उसने अपने पिताजी की आज्ञा क्या है, यह सखी को बताई । और उससे सलाह देने की मांग की। वह भी सुनते हो चिन्ताग्रस्त हो गई । गुमसुम सी खड़ी रह गई । कुछ समय विचार कर मृगावती बोली, "श्राज का यह पर्व का अन्तिम दिवस है। पर्व के निमित्त से हो मुझे इन सात - आठ दिवसों को पर्वत पर आने की आज्ञा मिली है। आज यदि मैं मण्डप की ओर

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