Book Title: Ahimsa ki Vijay
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti

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Page 33
________________ २६] [अहिंसा की विजय राजमहल में जा धमका ! यह पर्यषरण का अन्तिम दिवस बाद पूर्णिमा का दिन था। इससे पहाड पर हजारों लोगों का समूह चला जा रहा था । सभी मनिराज की वसतिका की ओर आनन्द से चले जा रहे थे। प्रतिदिन के समान मृगावती भी पहाड परई थी। पुरोहित महाराज जिस समय राजमहल में पहुँचा, उस समय राजा पद्मनाभ बहुत ही उदास चित्त कोई गहरे बिचार में बैठा हो ऐसे बैठा था। पुरोहित को देखते ही राजा ने भाव बदल हँसमुख होकर उसका सत्कार किया । उपहास पूर्वक हँसते हुए ही पुरोहित ने प्रासन स्वीकार किया, एवं गम्भीरता पूर्वक उधर दृष्टि कर राजा की ओर देखा तथा कहने लगामहाराज रानी साहिबा की प्रकृति ठीक है न ? प्रश्न सुनते ही राजा का चेहरा एकदम फीका हो गया-उतर गया । यह धीमें स्वर में बोले, "परन्तु आपको यह कैसे विदित हुा ।" "मुझे ?" थोड़ा अकडता, आश्चर्य से पुरोहित बोला, "जिस दिन रानी पहाड पर जाकर आई थी उसी दिन उनका स्वास्थ्य खराब हो गया था, देवी के सानिध्य में रह कर क्या मुझे इतना भी ज्ञात नहीं होगा ? ठीक है, देवी को प्राज्ञा की आपको तनिक भी परवाह नहीं, ऐसा प्रतीत होता है, लेकिन भूलना नहीं ? वह कोप सामान्य नहीं, तुम्हारा सत्यानाश का कारण अवश्व ही बन कर रहेगा । इसके सिवाय रह नहीं सकता। यह आप एक बार अच्छे से सून लो! मैं ठोक कर कहता है तुम्हारा सर्वनाश बच नहीं सकेगा ? समझे ?" इस प्रकार पुरोहित ने धैर्य से धमकी दी। "परन्तु हमारी ओर से देवी का क्या अपराध हआ ? देवी की आज्ञा के बाहर" महाराज घवरा-घबरा कर बोलने लगे, परन्तु पुरोहित ने राजा की ओर लक्ष्य न देते हुए बीच ही में कहा, "जैनमुनि के निमित्त से तुम्हारी राजधानी में बडाभारी संकट आने वाला है।" ऐसा आपने प्रत्यक्ष देवी के मुख से क्या सुना नहीं ? इतना होने पर भी देवी के अनेक भक्त मुनि के पास जाते हैं, इसका आपने कोई बन्दोवस्त नहीं ही किया, और उलटे पन्द्रवर्ष से कभी भी नहीं जाने वाली आपकी रानी भी अपनी कन्या के साथ पहाड पर जाकर पाई ! इसी पर से स्पष्ट होता है कि आप देवी की आज्ञा का कितना पालन कर रहे हैं ?"

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