Book Title: Ahimsa ki Vijay
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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अहिंसा की विजय]
२३] अब बड विसर दिखता था इस से मृगांकी को उसे देखने को कभी इच्छा ही नहीं हुई थी। आज प्रत्यक्ष देख कर उसकी बाहरी कल्पना चरदूर हो गई । अत्यन्त प्राचीन कालीन शिल्प कला, भव्य मण्डप और देवालय को सुन्दर रचना पद्धति कला विज्ञान देख कर वह बहुत ही चकित हुयी। यह सब देखती-देखती वह गभ गृह के समीप जा पहुँची। आज राजरानी और राजकन्या मल्लिनाथ भगवान के दर्शनों को प्रायो, देख कर सभी लोगों को अजीब, अनोखा सा प्रतीत होने लगा। कितने ही लोगों ने उनका उचित पादर-सम्मान कर पूजा देखने का प्राग्रह किया । मृगावती ने आज तक कालीदेवी के मन्दिर के सिवाय कोई देवालय नहीं देखा था। "देवता कैसा होता है ?" इस विषय में वह आज तक यही समझती थी कि "काली, विकराली, जिह्वा निकाले, शस्त्रधारी, ऐसी ही मूर्ति होती है।" यही भयङ्कर रूप देव-देवी का होता है । ऐमी ही उसकी धारणा थी। परन्तु आज उसे लगा कि वह बहुत बड़ी भूल में है। उसने अन्दर गर्भ गृह में-दृष्टि डाली ओर देखा कि एक सुन्दर सिंहासन पर अति सादा, सुन्दर, शान्त मनोज्ञ वीतरागी एवं भव्य केशरी वर्ग पाषाण की कोई प्रतिमा विराजमान है । एकदम मनूष्याकार वह मूति है यह देख कर उसे अपार आश्चर्य हुआ। क्योंकि प्रथम बार उसने ऐसो प्रतिमा के दर्शन किये थे । उसने आश्चर्य और आतुर प्रश्न भरी दृष्टि से शीघ्र ही अपनी माता की ओर पीछे मुड कर देखा परन्तु मृगावतो कुछ बोली नहीं । तो भी उसके मन में क्या कल्पना पायीं यह उसने उसी समय ताड लिया । रानी की समझ में आगयी उसकी कल्पना । पन्द्रह वर्ष पूर्व रानी मुरादेवी इस पहाड़ पर अनेक वार दर्शन, पूजन, भक्ति करने आती थी। अनेकों बार उसने पूजा-विधान भी किया था । परन्तु सन्तति को प्राशा से उसने अपना कुल धर्म त्याग काली देवी की सेवा पकड ली और उसके बाद ही मृगावती का जन्म हुआ था । अतः इसका आयुष्य कर्म प्रबल था सो जीवन्त रह गई। फलतः दवी की भक्ति विशेष रूप से करने लगी । प्राज पन्द्रह वर्ष की अवधिनन्तर यह वीतराग सुन्दर प्रतिमा देखते ही एक क्षण में उसके समस्त भाव बदल गये और उसके नयन कोरों में तत्क्षण मोती से दो प्रविन्दु चमकने लगे। मृमावती को पीछे कर, आगे लपक कर पाई और झक कर जमीन में मस्तक लगा श्री मल्लिनाथ भगवान के दर्शन बडी भक्ति से किये । मृगावती ने भी उसी प्रकार दर्शन किये और उसी समय वहाँ पूजा-अभिषेक देखने को बैठ गयी । मृगावतो निश्चल एकाग्रता से एक मूर्ति समान अचल हो उस प्रतिमा को निहारतो ही रही ।