Book Title: Ahimsa ki Vijay
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti

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Page 26
________________ अहिंसा को विजय] अवश्य होगा । यह वह भले प्रकार जान रहा था । राजधानी के अनेक जैन लोग उनके भक्त बन चुके हैं। प्रतिदिन उनका धर्मोपदेश सुनने जाते हैं, मुनिराज के विषय में उनका अगाढ आदर व श्रद्धाभाव है। इस हालत में मेरे द्वारा मुनिमहाराज को किसी भी प्रकार का कुछ त्रास-दुःस्त्र देने का प्रयत्न हुआ तो निश्चय ही प्रजा मेरी विरोधी हो जायेगी और उससे हो राज्य पर भारी संकट आ जायेगा । इस चिन्तना से पद्मनाभ को बहुत भय लग रहा था । पर करे क्या ? कोई भी विचार स्थायी नहीं रह पा रहा था। रह-रह कर उसे लगता कालीदेवी का वचन ही सत्य है । वह अन्यथा नहीं हो सकता । जो देवी बोलती है वहीं होता है, कभी गलत नहीं हो सकता।' इस प्रकार कभी इधर झुकता तो कभी उधर झूलने लगता । वेग से प्रवाहित नदी का जल जिस प्रकार किसी विशाल वक्ष को या पाषाण को मार्ग में पाकर दो भागों में बंट जाता है, वही दशा इस समय पद्मनाभ के मनोवेग की हो गई । क्या करना यह उसे सूझ ही नहीं पड़ रहा था । देवी का सन्देश सुनने के बाद इसी दुबिधा में श्रावण मास पूरा हो गया था । अब भाद्र पदमास का पर्व भी प्रारम्भ हो गया । वर्षाकालीन नदो की बाढ समान गुरुदर्शकों की संख्या बढ़ने लगी । उपदेशामृत पान करने को राजघराने के भी बहुत से परिवार आने लगे । वे लोग अपने घर जाकर मुनिराज का गुणगान करते थे । मृगावती ने उनके यशस्वी, प्रभावी उपदेश के विषय में सुना तो उसका मन भी मुनिदर्शन को लालायित हो उठा । पिछली संध्या को रथ में सबार राजपुत्र से भेंट की घटना से वह अधिक व्यग्र हो उठो । क्योंकि मुनिदर्शन को जाने से अवश्य पुनः उससे भेट हो सकती है । अनायास उससे मिलने का अवसर प्राप्त होगा । यह उसे पाशा थी। परन्तु, मुनि दर्शन को जाना कैसे ? यह विचार आते ही उसे स्मरण आया कि, "हमारे पूर्वज पहले मन्दार पर्वत पर जिनेन्द्र पूजा करने जाते थे । पर्व तिथियों में मल्लिनाथ जिनालय में अभिषेक-पूजा विधानादि महोत्सव करते थे।" ऐसा उसने कई बार सुना था । राजघराने की स्त्रियाँ बराबर वहाँ भक्ति, दर्शन, पूजा निमित्त जाती थीं । इस निमित्त को लेकर दूसरे ही दिन उसने अपनी माँ से इस विषय की चर्चा निकाली । रानी मुरादेवी की जिनपूजा करने की व महोत्सव देखने की भावना न हो ऐसी बात नहीं थी। परन्तु उसके मन में था कि पद्मनाभ महाराज को यह विचार पसन्द नहीं प्रायेगा यही सोचकर मृगावती को इस विषय में कुछ उत्तर नहीं दिया ।

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