Book Title: Ahimsa ki Vijay
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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मृगावती की निराशा-4 माणिकदेव ने जब से राजा को कहा कि आपको देवी की आज्ञा हुयी है कि "देश या राजघराने में कोई बड़ा संकट आने वाला है।" तभी से राजा का मन बहुत ही उदास और दुखी था उसे जरा भी शान्ति न थी । सन्तान सुस्त्र की आशा से उसने देवी का मन्दिर बनवाया था और बली चढाने रूप महा घोर पापकर्म शुरू किया था । सनातन जैनधर्म का त्याग कर कालीदेवी की आराधना स्वीकार की थी। यह सब परिवर्तित होने पर भी उसे कुछ भी सुख व आनन्द नहीं प्राप्त हुमा । होता कसे ? मार्ग ही विप. रीत पकडा था । उस दिन बह देवी की आज्ञा सुनने को भी स्वयं गया, और जिस समय पुरोहित ने उसके भाल पर तत्काल पशुबध कर उसके रक्त का तिलक लगाया था, उस समय अचानक ही उसके शरीर में करुणा के रोमांच भर गये थे। चौदह वर्ष से बराबर वह यह अमानुषिक दृश्य देखता रहा, परन्तु क्या वस्तुतः उससे उसका हृदय पाषाण हो गया क्या ? नहीं, यह नहीं कह सकते कि उस राजा के मन से अहिंसा धर्म का सर्वथा सर्वाभाध हो गया हो । वस्तु स्थिति यह थी कि "अर्थी दोषान्न पश्यति ।" स्वार्थी जन दोषों की और लक्ष्य ही नहीं देते हैं । राजा की भी यही दशा थी वह स्वार्थान्ध हो सारासार-हिताहित विचार से शून्य हो गया था । तो भी जन्मजान संस्कार अन्त: करण में सिसक रहे थे ।
कालीदेवी ने कहा था "नग्न साधु के उपदेश के निमित्त से राज्य पर बहुत बड़ा संकट पायेगा ।" राजा तभी से इसी धुन-बुन में लगा था कि क्या उपाय किया जाय ? यह योजना किस प्रकार लागू की जा सकती है यह एक बडी पेचीदी समस्या बन गयी थी । वह विचारता है कि जैनाचार्य को यहाँ पधारे दो महीने हो गये, परन्तु उसने राज्य विरोधी कोई प्रचार नहीं किया, मेरे विरोध में भी कुछ नहीं किया और न ही राज्य में असन्तोष हो ऐसा ही कोई काम किया है।" इस परिस्थिति में उस निरपराध साधु को अपने राज्य से निकालने का प्रयत्न करना या उस पर कोई असत्य अारोप लगाना, क्या यह अन्याय नहीं होगा ? अत्याचार नहीं होगा ?