Book Title: Agam Ke Panno Me Jain Muni Jivan
Author(s): Gunvallabhsagar
Publisher: Charitraratna Foundation Charitable Trust

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Page 6
________________ १२) जो व्यक्ति हिंसक है, विषय-कषाय की प्रवृत्ति में निरंतर आसक्त है, उनके दोस्ती तो क्या परिचय भी नहीं करना चाहिए । १३) ब्रह्मचर्य व्रत की सिध्दि के लिए साधक को विषय सुख के आनंद की जुगुप्सा करनी, विषय किंपाक फल समान है - उसका परिणाम कडवे दुःखदायी फल और दुर्गती देनेवाले है, इसका निरंतर चिंतन और शरीर की अशुची भावना का विचार करना। १४) शुभ क्रिया यह शुभ भाव का कारण है। १५) योग्य और पात्र जीव अपने भूतकाल के भव और भविष्य के भव का तथा यहाँ में क्यु आया हुँ, मेरा कर्तव्य क्या है, मुझे यहाँ से कहाँ जाना है इस बात का जो यथार्थ चिंतन करे तो भी उसे वैराग्य की प्राप्ति होती है। १६) मुनि हास्य और उसके कारणो का त्याग करें। १७) मुनि का एक विशेषण 'अकुतो भयक्त' भी है । यानि मुनि सदैव बाह्य-अभ्यंतर रुप से अभय-निर्भय है। १८) दिक्षा लेने के बाद 'अध्ययन काल पूरा होने के बाद मुनि निरंतर उग्र तप करके अपने शरीर के मांस-खून को क्षीण कृशकाय करें। १९) जो व्यक्ति पहले, पाप का सेवन करता है, फीर उसको ढकने के लिए झूठ बोलता है, वह व्यक्ति अति घोर गाढ कर्मो को बांधता है - ऐसा भगवान महावीर ने कहाँ है। २०) परिग्रहधारी मुनि गृहस्थ के समान ही है । ब्रह्मचर्य का संपूर्ण पालन केवल अपरिग्रही ही कर सकें, क्योंकि उसे परिग्रहरुप अपने शरीर पर भी ममत्व नहीं है।

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