________________ आगम अद्रुत्तरी 1. सुविसाललोयणदलं, विसुद्धदंतंसु केसरालीढं। अहरुट्ठपत्तछवियं, भवियभमरालि सुजिग्घेतं॥ 2. जसपरिमलपल्लवितं, सुबोहियं नाणभाणुकिरणेहिं। मह दिसउ वंछियत्थं, मुहपउमं वद्धमाणस्स॥ भगवान् वर्धमान का वह मुखकमल मुझे अभीष्ट अर्थ का साक्षात्कार कराए, जिसमें अतिविशाल लोचन रूपी दल-पत्र हैं, जो विशुद्ध दन्त-किरण रूपी पराग से समाकीर्ण है, अधरोष्ठ रूपी पत्रों से सुशोभित है, जो भव्य प्राणी रूपी भ्रमरों की पंक्तियों द्वारा आघ्रात है, जिसका यश परिमल (सुगंध) चारों ओर पल्लवित (विस्तृत) हो रहा है और जो (केवल) ज्ञान रूपी सूर्य की किरणों द्वारा विकसित 3. सिरिवद्धमाणसामी', समत्तगणिपिडगधारिणो' जे य। ___इक्कारसगणधारी, नामग्गहणे नमसामि॥ " श्री वर्धमानस्वामी तथा समस्त गणिपिटक को धारण करने वाले जो ग्यारह गणधर हैं, उनको मैं नामोल्लेख पूर्वक नमस्कार करता हूं। 4. सिरिवद्धमाणपट्टे, गोतमसामी य पढमपट्टधरो। . तप्पट्टे सोहम्मो, परंपरा तित्थभाविल्लो॥ श्री वर्धमान के पट्ट पर प्रथम पट्टधर गौतमस्वामी हुए। उनके पट्टधर सुधर्मा हुए, जिनकी भावी तीर्थ-परम्परा चली। . ... 5. अज्जत्ता जे समणा, ते सव्वे 'अज्जसुहम्मसीसा उ५। भावपरंपरतित्थं, वट्टति सव्वं पि तम्हा उ॥ आज तक जितने श्रमण हुए हैं, वे सब आर्य सुधर्मा के शिष्य 1. “सामि (ला)। 2. सम्मत्त (ला)। 3. धारा (द)। 4. 'परो (म)। 5. सोहम्म (ला), 'सीसाओ (म, ब, प)।