________________ पाठ-सम्पादन एवं अनुवाद 16. जं जीतमसोधिकरं, पासत्थ-पमत्त-संजयाइण्णं'। 'बहुगेहि वि आयरियं, न तेण जीतेण ववहारो॥ जो जीत अशोधिकर है, पार्श्वस्थ और प्रमत्त संयतों के द्वारा आचीर्ण है, अनेक आचार्यों द्वारा आचीर्ण होने पर भी उस जीत से व्यवहार नहीं होता है। 17. रायकरंडग-गिहवतिकरंडतुल्लेहि जा य सुग्गहिता। भावपरंपरसुद्धा, सोहम्माओ वि जिणआणा॥ शुद्ध भाव-परम्परा राजा और गृहपति के करंडक की भांति श्रेष्ठ लोगों के द्वारा गृहीत होती है। जिनेश्वर भगवान् की आज्ञा आर्य सुधर्मा से लेकर अविच्छिन्न रूप से चल रही है। 18. संघयणबुद्धिय बलं, तुच्छं नाऊण सुविहितजणाणं। गीतत्थेहिं चिण्णा, तवाइकालेसु आयरणा॥ सुविहित साधुओं के संहनन, बुद्धि और बल को न्यून जानकर जिस जीत व्यवहार का गीतार्थ साधुओं के द्वारा आचरण किया जाता है, वह तप आदि के काल में आचरणीय होता है। . 19. जं जीतं सोधिकरं, संविग्गपरायणेण दंतेणं। . . एगेण वि आयरितं, तेण य जीतेण ववहारो॥ संविग्न और दान्त साधु के द्वारा जिस शोधिकर जीत का आचरण किया जाता है, एक साधु के द्वारा आचरित होने पर भी वह जीत व्यवहरणीय होता है। * . 1. इहिं (ला), "ईणं (अ)। दोनों में उत्कृष्ट होते हैं। (विस्तार 2. जइ वि महाणाचिण्णं (जीभा 693, हेतु देखें गा. 15 का पांचवां व्यभा 4548) / टिप्पण) वे सुविहित साधु बाह्य क्रिया 3. गिहिव (अ, म)। शुद्ध करते हैं और आंतरिक 4. घर का सर्वाधिकार सम्पन्न स्वामी अभिनिवेश के कारण गच्छ के प्रति - गृहपति कहलाता था। होने वाले ममत्व को भी नहीं करते। 5. सुविहित साधुओं के द्वारा आचीर्ण 6. तवाई (अ) / . परम्परा भाव परम्परा होती है। वे 7. आइण्णं (जीभा 694, व्यभा 4549) / बाह्य क्रिया और आंतरिक साधना 8. इ (अ, ब, ला), उ (जीभा, व्यभा)।