Book Title: Agam Athuttari
Author(s): Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 23
________________ आगम अद्दुत्तरी अनेक द्रव्य परम्पराएं शिथिलाचार में स्थापित हो गईं। 15. वेसकरंडगतुल्लेहिं, सोवागकरंडसमाणेहिं। दव्वपरंपरगहिता, निय-नियगच्छाणुरागेणं॥ अपने-अपने गच्छ के अनुराग से होने वाली द्रव्य परम्परा को वेश्या और चाण्डाल के आभूषण की पेटी के समान जानना चाहिए। 1. ग्रंथकार अभयदेवसूरि की मान्यता है कि सुधर्मास्वामी से लेकर देवर्धिगणी क्षमाश्रमण तक सुदृढ़ आचार का पालन होने से विशुद्ध भाव-परम्परा चली लेकिन बाद में शिथिलाचार के प्रभाव से द्रव्य परम्पराएं बहुत चलीं, भाव-परम्पराओं की संख्या कम हो गईं। 2. “तुल्लाहि (अ, द)। 3. गाथा के द्वितीय चरण में छंदभंग है। 4. पराग' (अ, द)। 5. करण्डक का अर्थ है - वस्त्र, आभरण आदि रखने का भाजन। अणं (4/541) में आचार्य के संदर्भ में चार प्रकार के करण्डकों का उल्लेख है। आचार्य महाप्रज्ञ ने टीका के आधार पर उनकी विस्तृत व्याख्या की है* श्वपाक करंडक-इसमें चमड़े का काम करने के उपकरण रहते हैं अतः यह सार रहित होता है। * वेश्या करंडक-यह लक्षणयुक्त स्वर्णाभरणों से भरा होता है अतः श्वपाक करंडक की अपेक्षा अधिक सार युक्त होता है। * गृहपति करंडक-विशिष्ट मणि और स्वर्णाभरणों से भरा होने के कारण वेश्या करंडक की अपेक्षा सारतर होता है। * राज करंडक-अमूल्य रत्नों से भरा होने के कारण गृहपति करंडक की अपेक्षा अधिक सारतम होता है। . इसको प्रसंग के साथ घटित करते हुए स्थानांग टीकाकार (स्थाटी प 258) कहते हैं कि जो आचार्य श्रुत और आचार से विकल होते हैं, वे श्वपाक करंडक के समान असार होते हैं। कुछ आचार्य अल्पश्रुत होने पर भी वाणी के आडम्बर से मूढ़ लोगों को प्रभावित करते हैं, वे वेश्या-करंडक के समान होते हैं। कुछ आचार्य स्वसमय-परसमय के ज्ञाता तथा आचार सम्पन्न होते हैं, वे गृहपति करंडक के समान होते हैं तथा कुछ आचार्य सर्वगुण सम्पन्न होते हैं, वे राजकरण्डक के समान सारतम होते हैं। (ठाणं पृ. 532) प्रस्तुत ग्रंथ आगम अट्ठत्तरी में भी गाथा 15 और 17 में इन चारों करण्डकों की उपमा दी गई है लेकिन यहाँ आचार्य के संदर्भ में उपमा न होकर परम्परा के संदर्भ में उपमाएं दी गई हैं। वेश्या और श्वपाक करण्डक की तुलना द्रव्य परम्परा से की गई है, जो अपने-अपने गच्छ के अनुसार होती है। राजकरण्डक और गृहपतिकरण्डक से भाव परम्परा की तुलना की गई है। द्रव्य-परम्परा का वहन करने वाले पार्श्वस्थ और कुशील मुनि बाह्य क्रिया का आडम्बर करते हैं लेकिन साम्प्रदायिक अभिनिवेश से गच्छ का ममत्व रखते हैं।

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