Book Title: Agam Athuttari
Author(s): Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 27
________________ आगम अद्दुत्तरी के लिए चला गया। वह अंत:पुर में रागयुक्त हो गया। उसने राजा. की आज्ञा-भंग के परिणाम को नहीं जाना। 28. कुसलेण घरं पत्तो, राया जाणेति तस्स चरिताई। सुविडंबिऊण' सहसा, खंडाखंडी कतो सिग्धं // राजा सकुशल घर पहुंचा और उसके चरित्र के बारे में जाना। राजा ने उसकी विडम्बना करके शीघ्र ही उसके शरीर के टुकड़ेटुकड़े करवा दिए। 29. राया तह जिणदेवो, जह दमगो तह य होति आयरिओ। सुद्धंतसमं आणा, अणंतसो छेदणं लहति॥ राजा की भांति जिनेश्वर भगवान् हैं। दरिद्र के समान आचार्य हैं। शुद्ध अंत:पुर के समान जिनेश्वर की आज्ञा है। उस आज्ञा की अवहेलना या खंडन करने वाला अनंतशः छेदन-भेदन को प्राप्त करता 30. थोवं' पि अणुढाणं, आणपहाणं करेति पावहरं। लहगो रविकरपसरो, दहदिसि तिमिरं पणासेति॥ जैसे सूर्य की छोटी-सी किरण भी दशों दिशाओं के तिमिर का नाश कर देती है, वैसे ही यदि कोई मनुष्य थोड़ा सा अनुष्ठान भी आज्ञा को प्रधान मानकर करे तो वह अनुष्ठान उसके पाप का हरण करने वाला होता है। 31. अरिहं विणा न देवो, जेसिं चित्ते विणिच्छिओ होति। __तव्वयण-करण-चरणा, सुसाहुणो तेसि मह गुरुणो॥ 32. गुरूवदेसो धम्मो, विसुद्धसिद्धंतभासितो होति / पवयण तह त्ति करणं, सम्मत्तं बेंति जगगुरुणो॥ जिस व्यक्ति के चित्त में यह निश्चय हो जाता है कि अर्हत् के बिना और कोई दूसरा देव नहीं है, उनके वचन में रत रहने वाले 1. बितो उ (अ, ब, म)। 2. थेवं (अ, म, द, हे)। 3. पावभरं (हे) 4. होई (हे)।

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