Book Title: Agam Athuttari
Author(s): Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम अङ्गुत्तरी आचार्य अभयदेव संपादक/अनुवादक डॉ. समणी कुसुमप्रज्ञा Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम अद्भुत्तरी आचार्य अभयदेव संपादक/अनुवादक डॉ.समणी कुसुमप्रज्ञा Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक : जैन विश्व भारती, पोस्ट : लाडनूं 341306 जिला : नागौर (राज.) फोन नं. : (01581) 222080/224671 ई-मेल : Jainvishvabharati@yahoo. com (c) जैन विश्व भारती, लाडनूं ISBNo. 81-7195-219-4 BARCODE 978-81-7195-219-9 प्रथम संस्करण : 2012 मूल्य : 60 रुपये मुद्रक : श्री वर्धमान प्रेस नवीन शाहदरा, दिल्ली-३२ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंगल संदेश परम पूज्य गुरुदेव तुलसी और परम पूज्य गुरुदेव महाप्रज्ञजी के नेतृत्व और कर्तृत्व से आगम बत्तीसी का सम्पादन हुआ और उसके अनुवाद आदि का कार्य आज भी आगे बढ़ रहा है। यह एक गरिमापूर्ण कार्य है। इसके अतिरिक्त अन्य ग्रन्थों का भी सम्पादन आदि कार्य हो रहा है। प्रस्तुत ग्रन्थ 'आगम अट्टत्तरी' पाठक के सम्मुख आ रहा है। इसके सम्पादन आदि के कार्य में डॉ. समणी कुसुमप्रज्ञाजी का श्रम अन्तर्गर्भित है। पाठक इस ग्रन्थ से बहुमूल्य मार्गदर्शन प्राप्त कर सकेगा। शुभाशंसा आचार्य महाश्रमण जसोल (राजस्थान) 23 अगस्त 2012 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका अभयदेवसूरि द्वारा निर्मित आगम अद्रुत्तरी एक लघुकाय ग्रंथ है, जिसमें देव, गुरु और धर्म के स्वरूप की व्याख्या है। इस छोटी सी कृति में आचार्य ने बहुत कौशल के साथ इस रत्नत्रयी का मौलिक विवेचन किया है। आचार्य ने इस ग्रंथ में सर्वप्रथम तीर्थंकर महावीर को वंदना करके ग्यारह गणधरों को नमस्कार किया है। द्रव्य और भाव परम्परा के सम्बन्ध में आचार्य की मान्यता है कि देवर्धिगणिक्षमाश्रमण तक शुद्ध भाव परम्परा चली, उसके बाद शिथिलाचार के कारण अनेक द्रव्य परम्पराएं प्रारम्भ हो गईं। द्रव्य परम्परा को उन्होंने वेश्या और चाण्डाल तथा भाव परम्परा को गृहपति और राज करंडक से उपमित किया है। प्रस्तुत ग्रंथ में उल्लेख मिलता है कि पार्श्वस्थ और प्रमत्त साधुओं द्वारा जो आचरित जीत व्यवहार है, अनेक साधुओं द्वारा आचरित होने पर भी उस जीत से व्यवहार नहीं होता। इसके विपरीत जो सुविहित और संविग्न साधुओं द्वारा आचरित है, वह जीत व्यवहार आचरणीय है, भले वह एक ही साधु द्वारा आचीर्ण क्यों न हो। . इस ग्रंथ का वैशिष्ट्य यह है कि देव के स्वरूप का वर्णन नए रूप में किया गया है। जिनेश्वर भगवान की आज्ञा का पालन ही जिनेश्वर देव की आराधना है। जिनेश्वर देव की आज्ञा से किया गया अनुष्ठान वटवृक्ष की भांति विस्तार को प्राप्त करता है। जिनआज्ञा पूर्वक किया गया थोड़ा-सा अनुष्ठान भी पाप का हरण कर सकता है, जैसे सूर्य की छोटी-सी किरण भी दशों दिशाओं के अंधकार का नाश कर देती है। ग्रंथकार का मंतव्य है कि जो प्राणी आज्ञा को महत्त्व नहीं देता, अभिमान से उसकी अवहेलना या भंग करता है, उसका बुद्धि-वैभव, चातुर्य आदि विशेषताएं व्यर्थ हैं तथा उसकी अर्चना, प्रत्याख्यान, पौषध, उपवास, दान और शील आदि Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छह आगम अद्भुत्तरी अनुष्ठान धतूरे के फूल की भांति निरर्थक होते हैं। आज्ञाभ्रष्ट व्यक्ति गाय, मृग, वृक्ष, पत्थर, गधा, तृण और कुत्ते के समान होते हैं। कवि ने छायावादी शैली में इन सबके मुख से अपने-अपने वैशिष्ट्य को साहित्यिक शैली में प्रकट करवाया है। साथ में उनसे यह भी कहलवाया है कि आज्ञाभ्रष्ट मनुष्य के साथ हमारी उपमा करना लज्जास्पद बात है क्योंकि उनका अस्तित्व ही वन्ध्यापुत्र के समान है। यह सारा प्रसंग न केवल सांस्कृतिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है अपितु इसमें अनेक लौकिक मान्यताओं का भी समावेश है। सर्वप्रथम गाय कवि के कथन का प्रतिवाद करते हुए कहती है-"मैं शुष्क तृण खाकर भी अमृत तुल्य दूध देती हूं। मेरे गोबर से भूमि की शुद्धि, लिपाई तथा भोजन पकाने आदि कार्य होते हैं। मेरा प्रस्रवण पाप का हरण करने वाला, बालकों के शरीर को पुष्ट करने वाला तथा रोग का हरण करने वाला है। मेरे द्वारा त्यक्त दूध आदि से उत्पन्न द्रव्य पित्त-विकार को दूर करने वाले हैं। मेरे मांस से शिकारियों को तृप्ति होती है। मेरे चर्म से न केवल लोगों के पैरों की रक्षा होती है अपितु जल भरने की दृति आदि भी बनाई जाती है। मेरी पूंछ में देवता निवास करते हैं तथा ब्राह्मणों का भूभाग मुझसे सुशोभित होता है। इतने गुणों से युक्त मुझ गाय से आज्ञाभ्रष्ट मनुष्य की तुलना करते हुए हे कविश्रेष्ठ! तुमको लज्जा की अनुभूति क्यों नहीं होती? गाय की भांति ही आचार्य ने मृग, वृक्ष, पत्थर आदि के मुख से उनके अनेक वैशिष्ट्य को प्रकट करवाया है। ग्रंथकार के अनुसार आज्ञाभ्रष्ट व्यक्ति का चारित्र वेश्या और दासी के स्नेह के समान अस्थिर, किंपाक फल की भांति असार तथा तप्त लोहे पर स्वाति नक्षत्र का पानी गिरने के समान निष्फल होता है। इस प्रसंग में कवि ने और भी अनेक लौकिक उपमाओं का प्रयोग किया है। Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सात भूमिका आचार्य ने दर्शन से रहित व्यक्ति को वंदना करने का निषेध किया है क्योंकि सम्यक्त्व रत्न से भ्रष्ट व्यक्ति भवभ्रमण करते रहते हैं। दर्शनभ्रष्ट व्यक्ति को ज्ञान और चारित्र की प्राप्ति भी नहीं हो सकती। आचार्य स्पष्ट उल्लेख करते हैं कि जैसे मूल का विनाश होने पर वृक्ष पुष्पित-फलित नहीं होता, वैसे ही जिन-दर्शन से भ्रष्ट व्यक्ति मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकते। ____ आचार्य ने सज्जन-दुर्जन की संगति के परिणाम को विविध उपमाओं से समझाया है, जैसे चंदन वृक्ष की पवन से प्रेरित अन्य नीम आदि के वृक्ष भी चंदन की सुगंध के रूप में परिणत हो जाते हैं तथा चंपक के फूल से सुगंधित तिल भी चंपा की सुगंध वाले हो जाते हैं। स्वाति नक्षत्र का जल सीपी के मुख में गिरने पर मोती, सर्प के मुख में गिरने पर विष तथा केले के पत्ते पर गिरने पर श्रेष्ठ कपूर बन जाता है। ग्रंथकार का मंतव्य है कि साधु पुरुषों पर संगति का प्रभाव नहीं पड़ता, वे अपने मूल स्वभाव को नहीं छोड़ते। जैसे चंदन की लता पर सर्प अपने विष का प्रभाव नहीं छोड़ सकता। कस्तूरी के मद में रखने पर भी लहसुन अपनी गंध नहीं छोड़ता। काचमणि के साथ रखा हुआ वैडूर्य रत्न काचमणि के रूप में परिणत नहीं होता। चुगली और निंदा करने के दोषों को प्रकट करते हुए आचार्य * कहते हैं कि साधु की निंदा करने से परलोक में घोर दारिद्र्य और विघ्न-बाधाएं प्राप्त होती हैं। उस व्यक्ति को बोधि की प्राप्ति नहीं होती। असाधु के समक्ष साधु की निंदा करने से जीव हाथ-पैर से विकल, मूक, अंध, दरिद्र और घोर दुःखों को प्राप्त करते हैं। अंत में आचार्य ने ललितांगकुमार, भीमकुमार, धम्मिल्ल, दामनक, अगड़दत्त आदि अनेक कथानकों का उल्लेख किया है। - इस छोटी सी कृति में आचार्य ने शकुनशास्त्र के कुछ गूढ़ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठ आगम अद्दुत्तरी रहस्यों को भी प्रकट किया है, जो अन्यत्र देखने को नहीं मिलते, जैसे प्रथम प्रहर में दांयी ओर मृग के दर्शन शुभ शकुन है। मैथुन करते हुए गधे के गुप्त अंगों को देखने से सदैव मन-वाञ्छित प्रयोजनों की सिद्धि होती है आदि। कर्तृत्व ग्रंथ की अंतिम गाथा के आधार पर यह माना जा सकता है कि इस ग्रंथ के कर्ता आचार्य अभयदेवसूरि हैं लेकिन ये कौन से अभयदेवसूरि हैं, यह आज खोज का विषय है। अभयदेव के नाम से अनेक आचार्य हुए हैं, उनमें तीन आचार्य प्रसिद्ध हैं। प्रथम अभयदेवसूरि ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी में हुए, जो दर्शन के प्रकाण्ड विद्वान् थे। उन्होंने सिद्धसेन के सन्मति तर्क प्रकरण पर 25000 पद्य परिमाण वादमहार्णव टीका की रचना की। द्वितीय अभयदेवसूरि बारहवीं शताब्दी में हुए, जो नवांगी टीकाकार के रूप में प्रसिद्ध हैं तथा तीसरे अभयदेवसूरि सोलहवीं-सतरहवीं शताब्दी में हुए। सिद्धराज जयसिंह राजा ने जिन्हें 'मलधारी' उपाधि से विभूषित किया। इस ग्रंथ का सम्बन्ध कौन से आचार्य के साथ है, यह विमर्श का बिन्दु है। ग्रंथ-रचना के वैदुष्य को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि इस ग्रंथ के रचनाकार सुप्रसिद्ध नवांगी टीकाकार अभयदेवसूरि ही होने चाहिए। 'अट्ठत्तरिया' उल्लेख से यह स्पष्ट है कि इस ग्रंथ में 108 गाथाएं होनी चाहिए लेकिन वर्तमान में इस ग्रंथ में 115 गाथाएं मिलती हैं। इनमें कौन-सी सात गाथाएं बाद में प्रक्षिप्त हुईं, यह आज स्पष्ट नहीं है। यदि अंतिम गाथा को बाद में प्रक्षिप्त माने तो फिर कर्तृत्व के आगे भी प्रश्नचिह्न लग जाएगा। नवांगी टीकाकार अभयदेवसूरि की रचना मानें तो इस ग्रंथ की रचना का समय विक्रम की पन्द्रहवीं-सोलहवीं शताब्दी होना चाहिए। वैसे भी इस ग्रंथ की कोई भी हस्तलिखित प्रति सोलहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध से पूर्व की नहीं मिलती। Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका प्रति-परिचय (अ) यह प्रति लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्या मंदिर, अहमदाबाद से प्राप्त है। इसकी क्रमांक संख्या 18877 है। इसकी पत्र संख्या 7 हैं। प्रति स्थूल एवं स्पष्ट अक्षरों में लिखी गई है। प्रति के अंत में "इति श्रीआगमअट्टत्तरीसूत्रसमाप्तः संवत् 1933 ना वरषे कार्तिक सुदी 8 ने वार भोमे" का उल्लेख है। (द) यह प्रति लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्या मंदिर, अहमदाबाद से प्राप्त है। इसकी क्रमांक संख्या 18898 है। इसकी पत्र संख्या 7 है। इसके अंत में "इति श्रीआगमअद्रुत्तरीसूत्रसमाप्तः संवत् 1933 कार्तिकशुक्ले तिथौ द्वितीयायां भृगुवासरे लिपिकृतं बाबा बालगीरजी महादेवगीरजी / छ / / का उल्लेख है। (ब) यह प्रति लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्या मंदिर, अहमदाबाद से प्राप्त है। इसकी क्रमांक संख्या 23740 है। इसकी पत्र संख्या 6 है। अंतिम पृष्ठ खाली है। इसके अंत में "इति श्रीआगमअद्भुत्तरीसूत्रसमाप्तः संवत् 1741 वरषे मागसिरमासे शुक्लपक्षे षष्ठी तिथौ" का उल्लेख है। प्रति साफ-सुथरी एवं सुघड़ अक्षरों में लिखी हुई है। '' (म) यह प्रति महावीर आराधना केन्द्र, कोबा के कैलाशसागर सूरि ज्ञान मंदिर पुस्तकालय से प्राप्त है। इसकी क्रमांक संख्या 12666 है। यह प्रति सतरहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में लिखी हुई होनी चाहिए। इसमें कुल पत्र संख्या 5 है। प्रति के अंत में "इति श्रीआगमअद्रुत्तरीसमाप्तः" का उल्लेख है। . (ला) यह प्रति लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्या मंदिर, . अहमदाबाद से प्राप्त है। इसकी क्रमांक संख्या 17 है। इसमें Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम अद्भुत्तरी 19 पत्र हैं। इस प्रति में गाथा के ऊपर संस्कृत छाया लिखी हुई है। अंत में "इति श्रीआगमअट्टत्तरीसूत्रसमाप्तः संवत् 1933 ना ज्येष्ठप्रथमतृतीयायां" का उल्लेख है। (हे) यह प्रति श्री हेमचन्द्राचार्य जैन ज्ञान मंदिर, पाटण (गुजरात) से प्राप्त है। इसकी क्रमांक संख्या 16547 है। इसकी पत्र संख्या 15 है। इस प्रति में भी गाथा के ऊपर संस्कृत छाया लिखी हुई है। प्रति के अंत में "इति श्रीआगमअद्भुत्तरीसूत्र समाप्तः। शुभं भवतु कल्याणमस्तु वाच्यमानः चिरंजीयात् लेखकस्य" का उल्लेख है। यह प्रति भी उन्नीसवीं सदी में लिखी गई प्रतीत होती है। संपादन का इतिहास सन् 1979 का प्रसंग है। पूज्यवरों ने कुछ साध्वियों और मुमुक्षु बहिनों को आगम शब्दकोश के कार्य में नियुक्त किया। उस समय लगभग शताधिक ग्रंथों से कार्य करने का निर्णय लिया गया। ग्रंथों की सूची में एक नाम आगम अट्ठत्तरी का भी था लेकिन वह प्रकाशित रूप में प्राप्त नहीं थी। सन् 2007 में आगम कार्य के लिए कुछ हस्तप्रतियां एवं ग्रंथ देखने के लिए अहमदाबाद जाना हुआ। वहां लालभाई दलपतभाई विद्या मंदिर एवं महावीर आराधना केन्द्र कोबा-इन दोनों संस्थानों में आगम अद्रुत्तरी की हस्तलिखित प्रतियां देखीं। मन में विकल्प उभरा कि आचार्य महाप्रज्ञ के मुख से इस ग्रंथ के बारे में सुना है अत: इसका सम्पादन होना चाहिए। कई स्थानों पर पाठ की शंका होने से अनेक प्रतियों से इसका पाठ-सम्पादन किया गया है। इस ग्रंथ के अनेक स्थल पाठ और अर्थ की दृष्टि से आज भी विमर्शनीय हैं। आशा है विद्ववर्ग इस पर ध्यान केन्द्रित करेगा। इस ग्रंथ के अनुवाद को साध्वी सिद्धप्रज्ञाजी Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका ग्यारह ने न केवल आद्योपान्त सुना है अपितु अनेक क्लिष्ट एवं जटिल स्थलों के अनुवाद में संशोधन एवं परिमार्जन भी करवाया है। आज वे सदेह हमारे समक्ष उपस्थित नहीं हैं लेकिन उनका निष्काम सहयोग सदैव स्मृतिपथ पर अंकित रहेगा। गणाधिपति तुलसी और आचार्य महाप्रज्ञ को मैं अत्यन्त श्रद्धा से प्रणाम करती हूं, जिन्होंने मुझे बीस वर्ष की छोटी उम्र में आगम के कार्य में नियोजित कर श्रुत की सेवा करने का दुर्लभ अवसर प्रदान किया। परमपूज्य आचार्य महाश्रमण के मार्गदर्शन, आशीर्वाद एवं शक्ति-संप्रेषण से ही यह कार्य सम्पन्नता तक पहुंचा है। वंदनीया महाश्रमणी साध्वीप्रमुखाजी की वात्सल्य प्रपूरित दृष्टि मुझे सदैव कर्मशील बनाए रखती है। आदरणीया मुख्यनियोजिका विश्रुतविभाजी का उदारतापूर्ण सहयोग स्मरणीय है। भूतपूर्व नियोजिका समणी मधुरप्रज्ञा एवं वर्तमान नियोजिका समणी ऋजुप्रज्ञा के व्यवस्थागत सहयोग तथा सभी समणियों की हार्दिक शुभकामनाओं का स्मरण करती हुई यह संकल्प व्यक्त करती हूं कि गुरु-कृपा, संघ की शक्ति एवं बुजुर्गों के आशीर्वाद से मैं अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग में रत रह सकू। ... ग्रंथ के टंकण में कुसुम सुराना तथा संदर्भ मिलाने एवं प्रूफ से प्रूफ मिलाने आदि के कार्य में सुनीता चिंडालिया, प्रीति बैद तथा कविता सिन्हा का सहयोग भी उल्लेखनीय है। आचार्य तुलसी शताब्दी की पूर्व सन्ध्या में यह लघु लेकिन महत्त्वपूर्ण पुष्प समर्पित करते हुए मुझे सात्विक आनंद की अनुभूति हो रही है। डॉ. समणी कुसुमप्रज्ञा Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - . ग्रंथानुक्रम विषय-सूची पाठ-सम्पादन एवं अनुवाद परिशिष्ट * गाथानुक्रम * कथाएं * विशेषशब्दानुक्रम * शब्दार्थ * संकेतिका * प्रयुक्त ग्रंथ सूची - Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची ॐ ॐ ॐ ॐ - - 1, 2. महावीर के मुखारविंद का वर्णन तथा प्रार्थना। महावीर तथा गणधरों को नमन। महावीर की तीर्थ-परम्परा। 5, 6. भाव-परम्परा का वर्णन। साधु के लिए देव, गुरु और धर्म सम्मान्य। ग्रामवासी और ठाकुर का दृष्टान्त। आगमभ्रष्ट मुनि की मूल्यहीनता। द्रव्य-परम्परा का वर्णन। मूढ़ की स्थिति। द्रव्य-परम्परा और भाव-परम्परा में अंतर। द्रव्य-परम्परा में मृगावती और चंडप्रद्योत का दृष्टान्त। . देवर्धिगणि तक भाव परम्परा। द्रव्य-परम्परा की वेश्या और चाण्डाल की पेटी से तुलना। अविशोधिकर जीत व्यवहार। : 17. शुद्ध भाव परम्परा की राजा और गृहपति के करंडक से तुलना। 18, 19. गीतार्थ साधुओं द्वारा आचरणीय जीत व्यवहरणीय। 20. . . . अशठ साधु द्वारा समाचीर्ण निरवद्य जीत आचरणीय। 21, 22. आवश्यक तथा सामाचारी आदि क्रिया का निर्देश। लोकोत्तर आवश्यक का महत्त्व। 24. लोकोत्तर परम्परा की वीतराग द्वारा स्थापना। जिनेन्द्र की आज्ञा फलदायी। 26-29. आज्ञा के महत्त्व में दरिद्र पुरुष का दृष्टान्त एवं उपनय। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम अट्टत्तरी आज्ञा युक्त अनुष्ठान ही पाप नाशक। चरणकरण में उपयुक्त साधु ही वास्तविक गुरु। योग्य गुरु का उपदेश ही धर्म। अर्हत् के वचनों की विराधना से दुर्लभबोधित्व की प्राप्ति। विराधक की भक्ति, प्रत्याख्यान आदि अनुष्ठान निरर्थक। आज्ञाहीन व्यक्ति को दी गई उपमाएं। .. .. कवि के प्रति गाय का प्रतिवाद। 37-39. गाय का महत्त्व। कवि के प्रति मृग का विरोध-प्रदर्शन। मृग के चर्म का महत्त्व। 42. मृग का शकुन। 43. वृक्ष का कथन। 44-46. वृक्ष से होने वाले लाभ। 47. पत्थर का प्रतिवाद। 48, 49. चिन्तामणि रत्न का महत्त्व। . 50-52. गधे द्वारा स्वयं का माहात्म्य स्थापित करना। 53-55. तृण द्वारा स्वयं का महत्त्व बताना। 56, 57. कुत्ते का प्रतिवाद एवं स्वयं की महत्ता स्थापित करना। 58-61. आज्ञा भ्रष्ट को विविध उपमाएं। 62-66. आज्ञा रहित धर्म को दी जाने वाली उपमाएं। 67. आज्ञा रहित का अनुष्ठान निरर्थक। 68, 69. मिश्रदृष्टि को उपमा। दर्शनहीन (मिथ्यात्वी) अवंदनीय। सम्यक्त्वभ्रष्ट का भवभ्रमण। 72. दर्शनभ्रष्ट की स्थिति। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची 73. . धर्मशील व्यक्ति का दोष-कथन करने वाले स्वयं भ्रष्ट। जिनदर्शन से भ्रष्ट की गति। मोक्ष का मूल कारण-दर्शन। सम्यक्त्व-प्राप्ति के लाभ। जिन-वाणी का महत्त्व। कांक्षा से होने वाली हानियां। आचरणहीन की स्थिति। अभीक्ष्ण दर्शन की प्राप्ति के उपाय। सम्यक्त्व की परिभाषा। सम्यक्त्व का महत्त्व। वंदनीय कौन? मिथ्यादृष्टि कौन? साधुओं की निंदा करने वाले को संताप। गौरव करने से होने वाली हानि। मोक्ष का स्वरूप। वंदना किसे? ज्ञान आदि का सार क्या? सम्यक्त्व का महत्त्व। दर्शनभ्रष्ट की स्थिति। संगति का प्रभाव। सज्जन व्यक्ति संगति से अप्रभावित / पुनः सम्यक्त्व की प्राप्ति दुर्लभ। संयम रहित लिंग आदि निरर्थक। जिन-वाणी का महत्त्व। बोधि की दुर्लभता। 91. . .92-97. 101. 102. Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 107. 108 आगम अद्भुत्तरी 103, 104. साधु का अवर्णवाद बोलने से होने वाली परिणति। 105. बोधिरत्न नष्ट होने के कारण। ... 106. चुगली करने का फल। साधु की निंदा करने का फल। परवंचन और परापवाद का फल। आचार्य आदि के अवर्णवाद से दुर्लभबोधित्व की प्राप्ति। . आचार्य आदि के गुणोत्कीर्तन से सुलभबोधित्व की प्राप्ति। धर्म के फल में ललितांगकुमार तथा अधर्म में कापालिक और भीमकुमार की कथा। समता से बोधि प्राप्त करने वाले धम्मिल्ल, दामनक आदि के कथानकों का संकेत। वल्कलचीरी और सुबुद्धिमंत्री का ‘गुणानुवाद। सिद्धस्तवन करने का निर्देश। आगमअष्टोत्तरिका के रचयिता एवं इसको पढ़ने का फल। 115. Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-सम्पादन एवं अनुवाद Page #19 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम अद्रुत्तरी 1. सुविसाललोयणदलं, विसुद्धदंतंसु केसरालीढं। अहरुट्ठपत्तछवियं, भवियभमरालि सुजिग्घेतं॥ 2. जसपरिमलपल्लवितं, सुबोहियं नाणभाणुकिरणेहिं। मह दिसउ वंछियत्थं, मुहपउमं वद्धमाणस्स॥ भगवान् वर्धमान का वह मुखकमल मुझे अभीष्ट अर्थ का साक्षात्कार कराए, जिसमें अतिविशाल लोचन रूपी दल-पत्र हैं, जो विशुद्ध दन्त-किरण रूपी पराग से समाकीर्ण है, अधरोष्ठ रूपी पत्रों से सुशोभित है, जो भव्य प्राणी रूपी भ्रमरों की पंक्तियों द्वारा आघ्रात है, जिसका यश परिमल (सुगंध) चारों ओर पल्लवित (विस्तृत) हो रहा है और जो (केवल) ज्ञान रूपी सूर्य की किरणों द्वारा विकसित 3. सिरिवद्धमाणसामी', समत्तगणिपिडगधारिणो' जे य। ___इक्कारसगणधारी, नामग्गहणे नमसामि॥ " श्री वर्धमानस्वामी तथा समस्त गणिपिटक को धारण करने वाले जो ग्यारह गणधर हैं, उनको मैं नामोल्लेख पूर्वक नमस्कार करता हूं। 4. सिरिवद्धमाणपट्टे, गोतमसामी य पढमपट्टधरो। . तप्पट्टे सोहम्मो, परंपरा तित्थभाविल्लो॥ श्री वर्धमान के पट्ट पर प्रथम पट्टधर गौतमस्वामी हुए। उनके पट्टधर सुधर्मा हुए, जिनकी भावी तीर्थ-परम्परा चली। . ... 5. अज्जत्ता जे समणा, ते सव्वे 'अज्जसुहम्मसीसा उ५। भावपरंपरतित्थं, वट्टति सव्वं पि तम्हा उ॥ आज तक जितने श्रमण हुए हैं, वे सब आर्य सुधर्मा के शिष्य 1. “सामि (ला)। 2. सम्मत्त (ला)। 3. धारा (द)। 4. 'परो (म)। 5. सोहम्म (ला), 'सीसाओ (म, ब, प)। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम अद्भुत्तरी हैं। इसलिए यह सारा भाव-परम्परा युक्त तीर्थ प्रवर्तित हो रहा है। 6. सुत्तत्थकरणओ खलु, परंपरा भावतो वियाणेज्जा। सिरिजंबुसामिसिस्सा', आगमगंथाउ गहितव्वाः॥ सूत्र और अर्थ की प्ररूपणा के आधार पर भाव-परम्परा जाननी चाहिए। श्री जम्बूस्वामी की शिष्य-परम्परा आगम ग्रंथों से ग्रहण करनी चाहिए। 7. आगमं आयरंतेणं, अत्तणो हितकंखिणा। - तित्थनाहो गुरू धम्मो, सव्वे ते बहुमण्णिता॥ आगम के अनुसार आचरण करने वाले और आत्महित की इच्छा रखने वाले साधु के लिए तीर्थंकर (देव), गुरु और धर्मये सब बहुमान्य होते हैं। 8. रण्णो तणघरकरणं, सचित्तकम्मं च गामसामिस्स। दोण्हं पि दंडकरणं, 'विवरीयत्तेण उवणयओ"॥ (एक गांव में) राजा के लिए घास-फूस का घर तथा ग्रामस्वामी के लिए चित्रमय सुंदर घर बनवाया गया। विपरीत आचरण के कारण ठाकुर और ग्रामवासी दोनों को राजा ने दण्ड दिया, यह उपनय है।१० 9. आगमभट्टो मुणिवर, भूमिब्भट्ठो गयंदवरराया। धणभट्ठो ववहारी, न लहंति कवड्डियामुल्लं॥ आगमभ्रष्ट साधु, भूमिभ्रष्ट श्रेष्ठ राजा तथा धनभ्रष्ट व्यापारी 1. जंबू (म)। 9. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, 2. गहियट्ठा (अ)। कथा सं. 1 / 3. नंदी सूत्र में आचार्य पट्टावलि का विस्तार 10. जैसे राजा की अवहेलना करने पर ___ से उल्लेख है। ग्रामवासी और ठाकुर दंडित हुए, 4. कंखिणो (अ, द)। वैसे ही तीर्थंकर की आज्ञा का 5. गामि' (म, ब), "स्सा (अ)। खंडन करने वाले आचार्य और 6. दुविहं (अ, द)। साधु-ये दोनों दंडित होते हैं। 7. रीयंतेण (ब, म)। 11. भूमीभ' (म, ब)। 8. “यण्णेणुवणओ उ (ओभा 44) / 12. जहंति (म)। . Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-सम्पादन एवं अनुवाद ये सब एक कौड़ी का मूल्य भी प्राप्त नहीं करते हैं। 10. लोयाणं एस ठिती, अज्जय-पज्जयगता यमज्जाया। दव्वपरंपरठवणा, कुलक्कम' नेव मिल्हिस्सं॥ सामान्य लोगों की यह स्थिति है कि दादा-परदादा की जो कुलक्रम से मर्यादा चल रही है, वह द्रव्य-परम्परा कहलाती है। उस कुलक्रम की मर्यादा का भंग नहीं किया जाता। 11. मूढाणं एस ठिती, चुक्कंति जिणुत्तवयणमग्गाओ। हारेंति बोधिलाभं, आयहितं नेव जाणंति॥ मूढ़ व्यक्तियों की यह स्थिति है कि वे जिनोक्त वचन के मार्ग से भ्रष्ट होकर बोधि-लाभ को हार जाते हैं, वे आत्महित को नहीं जानते। . 12. दव्वपरंपरवंसो, संजमचुक्काण सव्वजीवाणं। भावपरंपरधम्मो, जिणिंदआणाउ' सुपसिद्धो॥ वंश रूप द्रव्य परम्परा संयमच्युत सब जीवों के होती है। धर्म रूप भाव-परम्परा जिनेन्द्र आज्ञा के रूप में प्रसिद्ध है। .. 13. दव्वपरंपर 'दुग्गो, पज्जोयणेण सिणेहराएणं / . कोसंबीइ मिगासुतवयणच्छलणाइ कारवितो॥ ... द्रव्य परम्परा में प्रद्योत का दृष्टान्त है, जिसने मृगावती के प्रति स्नेहराग के वशीभूत होकर मृगासुत नाम के बहाने कौशाम्बी नगरी का दुर्ग करवाया। . 14. देवड्डिखमासमणा, परंपरा भावतो वियाणेमि / - सिढिलायारे ठविता, दव्वेण परंपरा बहुगा॥ देवर्धिगणि क्षमाश्रमण तक मैं भाव-परम्परा मानता हूं। बाद में 1. 'क्कमा (ब)। 2. जिणंद (द)। 3. पज्जोअणेण दुग्गो (अ, ब, द)। . 4. रायाणं (द)। 5. कथा के विस्तार हेतु देखें परि 2, कथा सं. 2 / 6. समणं (अ, द, म)। 7. व आणेमि (हे)। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम अद्दुत्तरी अनेक द्रव्य परम्पराएं शिथिलाचार में स्थापित हो गईं। 15. वेसकरंडगतुल्लेहिं, सोवागकरंडसमाणेहिं। दव्वपरंपरगहिता, निय-नियगच्छाणुरागेणं॥ अपने-अपने गच्छ के अनुराग से होने वाली द्रव्य परम्परा को वेश्या और चाण्डाल के आभूषण की पेटी के समान जानना चाहिए। 1. ग्रंथकार अभयदेवसूरि की मान्यता है कि सुधर्मास्वामी से लेकर देवर्धिगणी क्षमाश्रमण तक सुदृढ़ आचार का पालन होने से विशुद्ध भाव-परम्परा चली लेकिन बाद में शिथिलाचार के प्रभाव से द्रव्य परम्पराएं बहुत चलीं, भाव-परम्पराओं की संख्या कम हो गईं। 2. “तुल्लाहि (अ, द)। 3. गाथा के द्वितीय चरण में छंदभंग है। 4. पराग' (अ, द)। 5. करण्डक का अर्थ है - वस्त्र, आभरण आदि रखने का भाजन। अणं (4/541) में आचार्य के संदर्भ में चार प्रकार के करण्डकों का उल्लेख है। आचार्य महाप्रज्ञ ने टीका के आधार पर उनकी विस्तृत व्याख्या की है* श्वपाक करंडक-इसमें चमड़े का काम करने के उपकरण रहते हैं अतः यह सार रहित होता है। * वेश्या करंडक-यह लक्षणयुक्त स्वर्णाभरणों से भरा होता है अतः श्वपाक करंडक की अपेक्षा अधिक सार युक्त होता है। * गृहपति करंडक-विशिष्ट मणि और स्वर्णाभरणों से भरा होने के कारण वेश्या करंडक की अपेक्षा सारतर होता है। * राज करंडक-अमूल्य रत्नों से भरा होने के कारण गृहपति करंडक की अपेक्षा अधिक सारतम होता है। . इसको प्रसंग के साथ घटित करते हुए स्थानांग टीकाकार (स्थाटी प 258) कहते हैं कि जो आचार्य श्रुत और आचार से विकल होते हैं, वे श्वपाक करंडक के समान असार होते हैं। कुछ आचार्य अल्पश्रुत होने पर भी वाणी के आडम्बर से मूढ़ लोगों को प्रभावित करते हैं, वे वेश्या-करंडक के समान होते हैं। कुछ आचार्य स्वसमय-परसमय के ज्ञाता तथा आचार सम्पन्न होते हैं, वे गृहपति करंडक के समान होते हैं तथा कुछ आचार्य सर्वगुण सम्पन्न होते हैं, वे राजकरण्डक के समान सारतम होते हैं। (ठाणं पृ. 532) प्रस्तुत ग्रंथ आगम अट्ठत्तरी में भी गाथा 15 और 17 में इन चारों करण्डकों की उपमा दी गई है लेकिन यहाँ आचार्य के संदर्भ में उपमा न होकर परम्परा के संदर्भ में उपमाएं दी गई हैं। वेश्या और श्वपाक करण्डक की तुलना द्रव्य परम्परा से की गई है, जो अपने-अपने गच्छ के अनुसार होती है। राजकरण्डक और गृहपतिकरण्डक से भाव परम्परा की तुलना की गई है। द्रव्य-परम्परा का वहन करने वाले पार्श्वस्थ और कुशील मुनि बाह्य क्रिया का आडम्बर करते हैं लेकिन साम्प्रदायिक अभिनिवेश से गच्छ का ममत्व रखते हैं। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-सम्पादन एवं अनुवाद 16. जं जीतमसोधिकरं, पासत्थ-पमत्त-संजयाइण्णं'। 'बहुगेहि वि आयरियं, न तेण जीतेण ववहारो॥ जो जीत अशोधिकर है, पार्श्वस्थ और प्रमत्त संयतों के द्वारा आचीर्ण है, अनेक आचार्यों द्वारा आचीर्ण होने पर भी उस जीत से व्यवहार नहीं होता है। 17. रायकरंडग-गिहवतिकरंडतुल्लेहि जा य सुग्गहिता। भावपरंपरसुद्धा, सोहम्माओ वि जिणआणा॥ शुद्ध भाव-परम्परा राजा और गृहपति के करंडक की भांति श्रेष्ठ लोगों के द्वारा गृहीत होती है। जिनेश्वर भगवान् की आज्ञा आर्य सुधर्मा से लेकर अविच्छिन्न रूप से चल रही है। 18. संघयणबुद्धिय बलं, तुच्छं नाऊण सुविहितजणाणं। गीतत्थेहिं चिण्णा, तवाइकालेसु आयरणा॥ सुविहित साधुओं के संहनन, बुद्धि और बल को न्यून जानकर जिस जीत व्यवहार का गीतार्थ साधुओं के द्वारा आचरण किया जाता है, वह तप आदि के काल में आचरणीय होता है। . 19. जं जीतं सोधिकरं, संविग्गपरायणेण दंतेणं। . . एगेण वि आयरितं, तेण य जीतेण ववहारो॥ संविग्न और दान्त साधु के द्वारा जिस शोधिकर जीत का आचरण किया जाता है, एक साधु के द्वारा आचरित होने पर भी वह जीत व्यवहरणीय होता है। * . 1. इहिं (ला), "ईणं (अ)। दोनों में उत्कृष्ट होते हैं। (विस्तार 2. जइ वि महाणाचिण्णं (जीभा 693, हेतु देखें गा. 15 का पांचवां व्यभा 4548) / टिप्पण) वे सुविहित साधु बाह्य क्रिया 3. गिहिव (अ, म)। शुद्ध करते हैं और आंतरिक 4. घर का सर्वाधिकार सम्पन्न स्वामी अभिनिवेश के कारण गच्छ के प्रति - गृहपति कहलाता था। होने वाले ममत्व को भी नहीं करते। 5. सुविहित साधुओं के द्वारा आचीर्ण 6. तवाई (अ) / . परम्परा भाव परम्परा होती है। वे 7. आइण्णं (जीभा 694, व्यभा 4549) / बाह्य क्रिया और आंतरिक साधना 8. इ (अ, ब, ला), उ (जीभा, व्यभा)। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम अद्दुत्तरी 20. असढेण समाइण्णं, जं कत्थई' केणई असावज्ज। न निवारितमण्णेहिं, बहुगुणमणुमेयमायरियं // अशठ साधु के द्वारा समाचीर्ण निरवद्य व्यवहार, जिसका अन्य गीतार्थ ने निषेध नहीं किया, वह बहुत गुण युक्त है, ऐसा समझकर उसका आचरण करना चाहिए। 21. आवस्सयाइकरणं, इच्छा-मिच्छादिदसविहायरणं। चिइवंदण-पडिलेहण, संवच्छर-पव्व पव्वतिही॥ 22. उदयतिहीणं ठवणा, विणयाइ सुसाहुमाणणा-दाणं। __एत्थ वि किं आयरणा, बल-बुद्धी का वि हावेइ॥ आवश्यक आदि क्रिया करना, इच्छाकार, मिथ्याकार. आदि दशविध सामाचारी' का आचरण, चैत्यवंदन, प्रतिलेखन, सांवत्सरिक पर्व. पर्वतिथि, उदयतिथि की स्थापना, आचार आदि का पालन तथा सुसाधुओं का सम्मान, दान-क्या इनके आचरण में भी किसी प्रकार 1. कत्थई (ला)। 2. कारणे (बृभा)। 3. आयरियं (ला), बहुमणुमयमेयमाइण्णं (बृभा 4499, पंव 476) / 4. "हणं (ला)। 5. संघीय जीवन को व्यवस्थित रूप से चलाने के लिए भगवान् महावीर ने दशविध सामाचारी का निरूपण किया१. इच्छाकार-कार्य करने या कराने में (तुम्हारी इच्छा हो तो मेरा यह कार्य करो) इच्छाकार का प्रयोग। 2. मिथ्याकार-भूल हो जाने पर यह मिथ्या है' ऐसा जानकर मिथ्यादुष्कृत करना। 3. तथाकार-आचार्य के वचनों को 'तहत्' कहकर स्वीकार करना।। 4. आवश्यिकी-बाहर जाते समय 'आवस्सही'-आवश्यक कार्य के लिए बाहर जाता हूं, ऐसा कहना। 5. नैषेधिकी -कार्य से निवृत्त होकर वापस लौटने पर 'निस्सिही'-मैं निवृत्त हो चुका हूं, ऐसा कहना। 6. आपृच्छा-प्रत्येक कार्य करने में आचार्य की अनुमति लेना। 7. प्रतिपृच्छा-प्रयोजन होने पर पूर्व निषिद्ध कार्य को करते समय पुनः गुरु से पूछना। 8. छंदना-आनीत आहार को साधर्मिक साधुओं को देने की इच्छा। 9. निमंत्रणा-मैं आपके लिए आहार लाऊं-कहकर आचार्य, शैक्ष आदि को निमंत्रित करना। 10. उपसंपदा-ज्ञान, दर्शन और चारित्र की विशेष प्राप्ति हेतु किसी दूसरे आचार्य के पास जाना। (विस्तार हेतु देखें आवनि 436/1-57) Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-सम्पादन एवं अनुवाद के बल या बुद्धि का ह्रास होता है? 23. अणुयोगदारसुत्ते, लोगुत्तरऽऽवस्सयं जिणवरेहि। आणाए अणुचिण्णं, मोक्खफलं होति भव्वाणं॥ ___अनुयोगद्वार सूत्र में जिनेश्वर भगवान् ने लोकोत्तर आवश्यक की बात कही है। आज्ञापूर्वक उसका आचरण करने से भव्य प्राणियों को मोक्ष का फल प्राप्त होता है। 24. आणाए अणुचिण्णाऽऽवस्सयकालम्मि समणसंघेहि। ___ लोउत्तरिया ठविता, परंपरा वीतरागेहिं॥ श्रमणसंघ के द्वारा आवश्यक काल में आज्ञा के अनुसार आचरण किया जाता है, वह लोकोत्तर परम्परा वीतराग के द्वारा स्थापित है। 25. जं किंचि अणुट्ठाणं, जिणिंदआणाएं बहुफलं होति। जह वडतरुव्व बीयं, वित्थारं लहति वुईते // कोई भी अनुष्ठान जिनेन्द्र की आज्ञा के अनुसार किया जाता है तो वह बहुत फलदायक होता है, जैसे वटवृक्ष का बीज बढ़ते- बढ़ते अति विस्तार को प्राप्त कर लेता है। 26. केण विरण्णारंको, भज्जावयणेण कारितो धणवं। सो वि य तसुत्ति भत्तो, पहाणपुरिसो कतो झत्ति॥ किसी राजा ने अपनी पत्नी के कथन से किसी दरिद्र को धनवान् बना दिया। वह दरिद्र राजा के प्रति अति भक्ति करने लगा। ..'उसकी भक्ति देखकर राजा ने उसे तत्काल प्रधान पुरुष बना दिया। 27. तस्स वि सव्वं भालिय, राया साहेति सव्वदेसा य। _ अंतेउररंगिल्लो, आणाभंगं न याणेति॥ उसको सब कुछ दायित्व सौंपकर राजा अन्य देशों को जीतने 1. 'तराव (ब, म)। 2. जिणंद (ब, म)। 3. वट्टते (ब)। 4. तस्सु (अ, म)। 5. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 3 / Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम अद्दुत्तरी के लिए चला गया। वह अंत:पुर में रागयुक्त हो गया। उसने राजा. की आज्ञा-भंग के परिणाम को नहीं जाना। 28. कुसलेण घरं पत्तो, राया जाणेति तस्स चरिताई। सुविडंबिऊण' सहसा, खंडाखंडी कतो सिग्धं // राजा सकुशल घर पहुंचा और उसके चरित्र के बारे में जाना। राजा ने उसकी विडम्बना करके शीघ्र ही उसके शरीर के टुकड़ेटुकड़े करवा दिए। 29. राया तह जिणदेवो, जह दमगो तह य होति आयरिओ। सुद्धंतसमं आणा, अणंतसो छेदणं लहति॥ राजा की भांति जिनेश्वर भगवान् हैं। दरिद्र के समान आचार्य हैं। शुद्ध अंत:पुर के समान जिनेश्वर की आज्ञा है। उस आज्ञा की अवहेलना या खंडन करने वाला अनंतशः छेदन-भेदन को प्राप्त करता 30. थोवं' पि अणुढाणं, आणपहाणं करेति पावहरं। लहगो रविकरपसरो, दहदिसि तिमिरं पणासेति॥ जैसे सूर्य की छोटी-सी किरण भी दशों दिशाओं के तिमिर का नाश कर देती है, वैसे ही यदि कोई मनुष्य थोड़ा सा अनुष्ठान भी आज्ञा को प्रधान मानकर करे तो वह अनुष्ठान उसके पाप का हरण करने वाला होता है। 31. अरिहं विणा न देवो, जेसिं चित्ते विणिच्छिओ होति। __तव्वयण-करण-चरणा, सुसाहुणो तेसि मह गुरुणो॥ 32. गुरूवदेसो धम्मो, विसुद्धसिद्धंतभासितो होति / पवयण तह त्ति करणं, सम्मत्तं बेंति जगगुरुणो॥ जिस व्यक्ति के चित्त में यह निश्चय हो जाता है कि अर्हत् के बिना और कोई दूसरा देव नहीं है, उनके वचन में रत रहने वाले 1. बितो उ (अ, ब, म)। 2. थेवं (अ, म, द, हे)। 3. पावभरं (हे) 4. होई (हे)। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-सम्पादन एवं अनुवाद तथा चरण' और करण' के पालनकर्ता सुसाधु मेरे गुरु हैं। विशुद्ध सिद्धान्त का कथन करने वाले गुरु का उपदेश धर्म है। यही प्रवचन तथ्य है, इस आस्था को जगद्गुरु तीर्थंकर ने सम्यक्त्व कहा है। 33. जो पूइज्जति देवो, तव्वयणं जे नरा विराधेति। हारेंति बोधिलाभं, कुदिट्ठिरागेण अण्णाणी॥ जो अर्हत् देव पूज्य हैं, उनके वचन की जो लोग विराधना करते हैं, वे अज्ञानी कुदृष्टि राग के कारण बोधि-लाभ को हार जाते हैं। 34. पूया-पच्चक्खाणं, पोसह-उववास-दाण-सीलादी। सव्वं पि अणुट्ठाणं, णिरत्थगं कणगकुसुमव्व॥ उसके लिए पूजा-भक्ति, प्रत्याख्यान, पौषध, उपवास, दान, शील आदि सभी अनुष्ठान धतूरे के पुष्प की भांति निरर्थक होते हैं। 1. चरणसत्तरी-पांच महाव्रत, दश पडिलेहणगुत्तीओ, श्रमणधर्म, सतरह प्रकार के संयम, अभिग्गहा चेव करणं तु।। दशविध वैयावृत्त्य, नौ ब्रह्मचर्य की (ओभा 3) गुप्तियां, ज्ञान आदि त्रिक, बारह प्रकार ओघनियुक्ति के टीकाकार ने चरण का तप तथा चतुर्विध कषाय-निग्रह- और करण का भेद स्पष्ट करते ये चरण के सत्तर अंग हैं। ये चारित्र हुए कहा है कि नित्य अनुष्ठान चरण को सुदृढ़ बनाते हैं अतः इनको चरण- तथा प्रयोजन होने पर किया जाने सत्तरी कहा जाता है वाला अनुष्ठान करण कहलाता है। वय-समणधम्म-संजम- 3. एक सम्यक्त्वी के लिए अर्हत् के वेयावच्चं च बंभगुत्तीओ। अतिरिक्त चतुर्विध देव वंदनीय नहीं नाणाइतियं तव-कोह- होते तथा अर्हत् वचन के अनुसार .. निग्गहाई चरणमेयं॥ चरण सत्तरी और करण सत्तरी का . . (ओभा 2) पालन करने वाले सुसाधु गुरु ही . 2. करणसत्तरी-चतुर्विध पिण्डविशोधि, वंदन करने योग्य होते हैं। - पांच समितियां, बारह भावनाएं, बारह 4. कुद्दिष्ट्ठि (अ, द)। साधु प्रतिमाएं, पंचविध इंद्रिय- 5. धतूरे का फूल देखने में सुंदर लेकिन निरोध, पच्चीस प्रकार की प्रतिलेखना सुगंध रहित होता है। वह किसी . तथा चतुर्विध अभिग्रह-ये करण उपयोग में नहीं आता। उसको खाने के सत्तर भेद हैं वाले का जीवन संकट में पड़ जाता पिण्डविसोही समिई, है, वैसे ही आज्ञा से रहित सभी . भावण पडिमा य इंदियनिरोहो। धार्मिक अनुष्ठान निरर्थक होते हैं। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम अद्भुत्तरी 35. जेसिं न आणबुद्धी, विजा-विण्णाण-चउरिमा सुद्धी। तो 'गो-मिग २-रुक्ख-पत्थर, खर-तिण-सुणगादि सारिच्छं॥ जिन मनुष्यों के पास जिन-आज्ञा विषयक बुद्धि, विद्या, विज्ञान, चतुराई और शोधि नहीं होती, वे व्यक्ति गाय, मृग, वृक्ष, पत्थर, गधा, तृण और कुत्ते के समान होते हैं। . 36. भक्खे सुक्कतणाई, दुद्धं अप्पेमि अमियसारिच्छं। छगणाउ भूमिसुद्धी, लिंपण-पयणादिकज्जेसु॥ (कवि की इस उपमा को सुनकर गाय इसका प्रतिवाद करते हुए कहती है-) मैं सूखे तृण खाकर अमृत तुल्य दूध प्रदान करती हूं। मेरा गोबर भूमि की शुद्धि, भूमि की लिपाई और भोजन पकाने आदि कार्य में सहयोगी होता है। 37. पासवणं पावहरं, बालाणं दिट्ठिरोगहरणं' च। मह उज्झाओ दव्वा, पित्तविकाराउ रोयणयं॥ मेरा प्रस्रवण पाप का हरण करने वाला', बालकों के दृष्टि रोग को दूर करने वाला है। मेरे द्वारा त्यक्त दूध आदि से उत्पन्न द्रव्य पित्त-विकार को दूर करने वाले पाचक और पुष्टिकारक होते 38. आहेडप्पमुहाई, लहंति तित्तिं मुए वि मंसाउ। चम्माउ पादरक्खा, जलभायणयाइ० जायंति॥ ___ मेरे मरने पर शिकारी आदि लोग मांस से तृप्ति का अनुभव करते हैं। मेरे चर्म से निर्मित चप्पल, जूते आदि से पैरों की रक्षा होती है तथा चर्म से दृति आदि जल-भाजन बनाए जाते हैं। 1. बुद्धी (अ, द, ब)। 7. गाय का प्रस्रवण पाप का हरण 2. गोमि (द, अ)। करता है-यह वैदिक या लौकिक 3. सुण्हाइं (अ, ब, म, हे)। मान्यता है। 4. अमय' (अ, द)। 8. अष्टांग हृदय में भी उल्लेख मिलता 5. पुट्ठि (ब, म, हे), 'पुट्ठि' पाठ रखने है कि गोमूत्र से आंखें गरुड़ के से 'बालकों की पुष्टि करने वाला समान दूर तक देखने वाली बन जाती तथा रोग को दूर करने वाला है', यह हैं। (अष्टांग उत्तरस्थान 13/33 पृ. 464) अर्थ होगा। 9. आहोड' (अ, हे), "हाई (अ, द)। 6. वुझाओ (म)। 10. “यणाइं (द, म, ब), “यणाओ (हे)। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-सम्पादन एवं अनुवाद * 39. देवा वसंति पुच्छे, विप्पाणं भूमिभाग सुरहीओ। उवमिजंतो एसिं, कइकुसलो किं न लज्जेसि?॥ ___ मेरी पूंछ में देवता निवास करते हैं। गायों से ब्राह्मणों का स्थान शोभित होता है। ऐसे गुणों से युक्त मुझ गाय से आज्ञा रहित पुरुष की उपमा करते हुए हे कवि कुशल! तुम लज्जा का अनुभव क्यों नहीं करते हो? 40. जाणामो गीयगुणा, मरणं अप्पेमु कण्णरसिगा य। 'अइसिंगीउ व२ दंता, भिक्खं पावंति जोइंदा॥ (मृग विरोध प्रदर्शित करते हुए कहता है-) हम गीत के गुणों को जानते हैं। हम कर्ण के रसिक बनकर मरण को प्राप्त हो जाते हैं। हमारे सींग से बने वाद्य को बजाकर दान्त योगी भिक्षा प्राप्त करते हैं। - 41. मह चम्माओ सेज्जासण पुत्थिय-कणग-कुंदणाकरणं। मह नामेण मयंको, मियच्छि नयणाण उवमाणं॥ मेरे चर्म से शय्या और आसन का निर्माण होता है। पुस्तक तथा बाण के तरकश रखने के लिए भी मेरा चर्म उपयोग में आता है। मेरे नाम से चन्द्रमा का नाम 'मृगांक' तथा महिला की आंखों को 'मृगाक्षी' की उपमा दी जाती है। 42. पढमपहरम्मि दक्खिण, सउणा मण्णंति पंडिता विसदा। . उवमिजंतो एसिं, कइकुसलो किं न लज्जेसि?॥ विशद पंडित प्रथम प्रहर में दायीं ओर मेरे दर्शन को शकुन 1. ब्रह्मवैवर्त पुराण (21/91-93) के वाद्यों का विशेष महत्त्व रहा है। अनुसार गाय के शरीर में समस्त प्राचीन काल में बकरी अथवा मेंढ़े देवताओं का निवास है तथा उसके / के सींगों से वाद्य बनाए जाते थे। पैरों में सभी तीर्थ निवास करते हैं। वर्तमान में हिरण अथवा बारहसिंगा भविष्यमहापुराण के उत्तरपर्व के 69 / / के सींग से वाद्य बनाए जाते हैं। अध्याय (पृ. 432-34) में भी वर्तमान में भी हिरण के सींग से विस्तार से गाय के माहात्म्य का बनी सिंगी योगी लोग बजाते हैं। वर्णन मिलता है। विस्तार हेतु देखें जैन आगम वाद्य 2. सिंगाओ (म, हे), सिंगाओ वा (अ, कोश पृ. 42, 43 / 4. सेज्जा पुण (हे)। 3. प्राचीन वाद्यों में सींग से बनाए गए 5. ब और म प्रति में यह गाथा नहीं है। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 आगम अद्दुत्तरी मानते हैं। ऐसे गुणों से युक्त मुझ मृग से आज्ञा रहित पुरुष की उपमा देते हुए हे कविकुशल! तुम लज्जा का अनुभव क्यों नहीं करते? 43. मत्तंड चंड' दीधिइ', तावपतावेण खेदखिण्णाणं / फेडेमो पंथसमं, पहियाणं पंथखिण्णाणं॥ (अब वृक्ष कहता है)-"मैं प्रचंड सूर्य की किरणों के ताप से तप्त, खेदखिन्न तथा पथ-श्रम से खिन्न पथिकों की क्लान्ति को दूर करता हूं।" 44. अप्पे चारुफलाइं, गिहादिकज्जेसु पोत-नावाए। वीणा-मुयंग वंसुलि, पडहं' ढुल्लाइँ तोरणया॥ मैं सुंदर फल देता हूं। मेरा काष्ठ घर, पोत, नाव आदि को निर्मित करने में काम आता है तथा इससे वीणा, मृदंग, बांसुरी, पटह, ढोल तथा तोरण आदि भी निर्मित होते हैं। 45. रयहरण हत्थदंडा, पडिगहमादीणि कज्जसाधूणं। झाडो वि कप्परुक्खो, वणसई 'सम्वाउ नामाओ७॥ मेरे काष्ठ से साधुओं के योग्य रजोहरण, हस्तदंड, पात्र आदि वस्तुएं निर्मित होती हैं। कल्पवृक्ष भी वृक्ष ही है। सारी वनस्पतियां भी वृक्ष कहलाती हैं। 46. वत्थासण-घुसिण चंदण, चेइकज्जेसु रोगहरणेसु। ओसहिपमुहादीणं, किं बहु वण्णेमि अप्पणया॥ वस्त्र, बैठने का आसन, केशर, चंदन, चैत्य आदि के कार्य में मेरा उपयोग होता है। रोग-हरण में कुछ प्रमुख औषधियों का प्रयोग होता है। मैं अपना वर्णन और अधिक क्या करूं? 1. पयंड (ब)। 2. दिधीइ ( अ, द), दीधीइ (हे)। 3. तावतावेण (म, हे)। 4. खिन्नखि° (अ, ला, हे)। 5. पडुहि (म, ब)। 6. वणस्सइ (अ), वणस्सई (द)। 7. झाडना' (अ, म, ला)। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-सम्पादन एवं अनुवाद . 47. मत्तो जिणहरपडिमा, घर-हट्ट-विमाण-धाम'-दुग्गादी। पारसपत्थरफासा, लोहो वि य कंचणो होति॥ (पत्थर भी प्रतिवाद प्रस्तुत करते हुए कहता है-) मुझसे जिनेश्वर भगवान् की प्रतिमा निर्मित होती है। घर, हाट, विमान, धाम, दुर्ग आदि निर्मित होते हैं। पारस पत्थर के स्पर्श से लोहा भी स्वर्ण बन जाता है। 48. चिंतिज्जंतं पूरइ, चिंतामणि किं न होज्ज पत्थरयं। जातिरयणेहिं ठवितं, कुत्तीयावणयसंबंधं॥ चिन्तामणि रत्न मन-चिंतित प्रयोजनों को पूरा करता है, क्या वह पत्थर नहीं है? जात्य रत्नों के बीच स्थापित इसका कुत्रिकापण से सम्बन्ध होता है। 49. तुट्ठो हरति सिरोरं, रुट्ठो मारेमि देवसंकलितो। उवमिजंतो एसिं', कइकुसलो किं न लज्जेसि?॥ . देवताधिष्ठित होने से तुष्ट होकर यह लोगों के दारिद्र्य को दूर करता है तथा रुष्ट होकर मैं लोगों के प्राण हरण कर लेता हूं', ऐसे गुणों से युक्त मुझ पत्थर से आज्ञाभ्रष्ट पुरुष को उपमित करते हुए हे कविकुशल! क्या तुमको लज्जा का अनुभव नहीं होता? 50. दिण्णं वहेमि भारं, सीउण्ह सहेमि सव्वदा कालं। .. संतोसे चिट्ठामी, लज्जं कारेमि आरुहणं॥ ... (गधा कहता है-) मैं दत्त भार को वहन करता हूं। सर्वदा सर्दी और गर्मी सहन करता हूं। सदा संतुष्ट रहता हूं। मुझ पर बैठने वाले को मैं लज्जित कर देता हूं। -- 1. धाउ (ब)। . 2. दुग्गाई (हे)। 3. जैसे कुत्रिकापण में तीनों लोक की सभी वस्तुएं प्राप्त होती हैं, वैसे ही चिन्तामणि रत्न से मन-वांछित फल प्राप्त होता है। 4. एयं (म)। 5. गाथा के प्रथम चरण में अन्य पुरुष का तथा द्वितीय चरण में उत्तम पुरुष का प्रयोग हुआ है। संभवत: छंद की दृष्टि से ऐसा प्रयोग हुआ होगा। 6. चिट्ठामि (अ, द)। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम अद्भुत्तरी 51. लंधिज्जति न सीम, ममुत्तिसवणाउ' सुवंसनरवतिणो। ___ जाणे पहरपमाणं', गमणागमणे व सुहमसुहं // अच्छे वंश के राजा मेरे वचन को सुनकर सीमा का उल्लंघन नहीं करते। मैं प्रहार करने वाले को जानता हूं। मेरे गमन-आगमन के आधार पर शुभ-अशुभ शकुन को जाना जाता है। 52. मेहुणसण्णारूढे, पासंति ममंगमागमविहिण्णू। . तेसि मणवंछितत्थं, साहेमी सव्वकालेणं॥ - शास्त्रवेत्ता ऐसा मानते हैं कि मैथुन संज्ञा में आरूढ़ मेरे गुप्त अंग को देखने वालों की मैं सब काल में मन-वाञ्छित प्रयोजनों की सिद्धि करता हूं। 53. जे रंक-ढिंकपमुहा, गिहाणि छायंति कुणति जीवत्तं। - भक्खंताण पसूणं, पुटुिं दुद्धं च अप्पेमि॥ (अब तृण कहता है)-दरिद्र और दिक आदि तृण से घर की छत का आच्छादन करते हैं। दरिद्र घास बेचकर जीविका चलाते हैं। मेरा आहार करने वाले पशुओं को मैं पुष्टि और दूध प्रदान करता हूं। 54. संगामे रोसिल्ला, न हणंति तिणं मुहम्मि लिंताणं / जायंति य निग्गंथा, सेज्जा-दंतादि सुद्धिकते॥ ___ मुझे मुख में लेने पर संग्राम में रोष युक्त व्यक्ति भी उसका वध नहीं करता। निर्ग्रन्थ साधु शय्या के लिए तथा दांत आदि की शुद्धि के लिए तृण की याचना करते हैं। 55. दब्भतिणेणं विप्या, पवित्तकरणाइ वेदपाठेणं। उवमिजंतो एसिं, कइकुसलो किं न लज्जेसि?॥ दर्भ के तृण से ब्राह्मण वेदपाठ के द्वारा वस्तु को पवित्र करते 1. 'त्तिठव' (म), 'त्तिवचणाउ (ब)। प्रस्थान के समय गधे का दायीं 2. 'जाणे पहरपमाणं' का अर्थ स्पष्ट नहीं ओर से बायीं ओर जाना शुभ है। यहां 'पहरयमाणं' पाठ होना शकुन माना जाता है। चाहिए। 5. “कालीणं (अ, ब, म, द)। 3. य (अ, द)। 6. गेहाणि (ब)। 4. शकुनशास्त्रियों की मान्यता है कि 7. लित्ताणं (ला)। . Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-सम्पादन एवं अनुवाद हैं। गुणों से युक्त मुझ तृण को आज्ञाभ्रष्ट व्यक्ति से उपमित करते हुए हे कविकुशल! तुम लज्जा का अनुभव क्यों नहीं करते हो? 56. साहसियं बहुलद्धं भक्खे अद्धे करेमि संतोसं। सुहदीहनिद्द जागर', सउज्जमं सूरि! मा जुत्तं // (अब कुत्ता अपनी बात कहता है-) मैं साहस के द्वारा अनेक घरों से भोजन भी प्राप्त करता हूं और जितनी भूख है, उससे आधा अपर्याप्त खाकर भी संतोष करता हूं। मैं सुखपूर्वक दीर्घ निद्रा से जाग जाता हूं, उद्यम-पराक्रम के गुण से युक्त हूं। इसलिए हे आचार्य! आज्ञाभ्रष्ट व्यक्ति से मेरी तुलना युक्त नहीं है। 57. 'सामीभत्त-कयण्ण'३, वाडिं रक्खे रएमि मेहुणयं। एहिं समं तुलंतो, सुपंडिय! किं न लज्जेसि?॥ ___ मैं स्वामिभक्त और कृतज्ञ हूं। घर की रक्षा करता हूं तथा मैथुन में रत रहता हूं। आज्ञाभ्रष्ट लोगों के साथ मेरी तुलना करते हुए हे सुपंडित! तुम लज्जा का अनुभव क्यों नहीं करते? 58. निब-नियगुणमाहप्पं, कहिउं लज्जावितो य कविराओ। आगमभट्ठायारा, लहरी संखुब्भ विण्णेया॥ सबके द्वारा अपने-अपने गुणों का माहात्म्य कहने से कविराज लज्जित हो गया। (तब कवि उपमा देते हुए कहते हैं-) आगम विहित आचार से भ्रष्ट व्यक्ति को समुद्र की लहरों की भांति निरर्थक जानना चाहिए। 59. वंझापुत्तसमाणा, भूमिसिलंधुव्व गयणमुढिव्व। . . अंधग्गे वरतरुणी, हावयभावाई सारिच्छं॥ आगम विहित आचार से भ्रष्ट व्यक्ति वंध्या-पुत्र, पृथ्वी पर उगे कुकुरमुत्ता, आकाश को मुट्ठी में बांधने तथा अंधे व्यक्ति के समक्ष श्रेष्ठ तरुणी के हाव-भाव प्रदर्शन के समान व्यर्थ होते हैं। ..1. “लद्धा (म, ब)। 2. जागरिअं (द, म)। 3. भत्तं कयण्णत्तं (ब, म), "गणुं (अ, ला), सामिभ' (हे)। 4. एएहिं (म)। 5. संखुव्व (अ, ब, हे)। 6. भावा य (ब)। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम अद्भुत्तरी 60. बहिराण कण्णजावो, वीणाण' वादणं जहा लोगे। तह आणापरिभटुं', नडुव्व सविडंबगंरे चरणं॥. जैसे बधिरों के समक्ष चुगली तथा वीणा-वादन निरर्थक होता है, वैसे ही आज्ञा-भ्रष्ट व्यक्ति का आचरण नट की भांति विडम्बना युक्त होता है। 61. आणाभटुं चरणं, वेसा-दासीण णेह तत्तुल्लं। किंपागफलमसारं, तत्तायसि साइयं नीरं // ___ आज्ञाभ्रष्ट साधु का चारित्र वेश्या और दासी के स्नेह, के समान (अस्थिर) होता है। वह किंपाक फल की भांति असार तथा तप्त लोहे के ऊपर स्वाति नक्षत्र के पानी गिरने के समान निष्फल होता है। 62. गयभुत्तकविट्ठफलं, पयंगरंगुव्व तह य मिगतण्हा। * विणयविहूणं रूवं, संझारागुव्व विज्जुलयं // विनय रहित रूप गजभुक्त कपित्थ-फल, सूर्य की प्रभा', मृगतृष्णा, संध्या-राग तथा बिजली की चमक की भांति नाशवान् होता है। 63. नयणविहीणं सुमुहं, रसाइया लवणभावबाहिरिया। नीईं विणा किं रज्जं, पेम्मं विणा ण घरबंधो०॥ आज्ञा रहित धर्म नयन के बिना सुंदर मुख, नमक के बिना रस आदि, नीति के बिना राज्य तथा प्रेम रहित गृहस्थ जीवन के समान होता है। 64. लच्छी विणा न सुक्खं, सोयारविवज्जितं च वक्खाणं। पुत्तं विणा ण वंसो, तह आणविवज्जितो धम्मो॥ जैसे लक्ष्मी के बिना सुख, श्रोता के बिना व्याख्यान तथा पुत्र के बिना वंश नहीं चलता, वैसे ही आज्ञा से रहित धर्म नहीं होता। 1. वीणाए (अ)। 7. यहां आचार्य अभयदेवसूरि ने क्षणभंगुर 2. आणपरिब्भर्टी (ब)। वस्तुओं के उदाहरण दिए हैं। सूर्य का 3. बिडं (अ, द)। रंग सुबह अरुण होता है, दोपहर को 4. तत्ताइसी (ला)। श्वेत तथा शाम को पुनः लाल हो 5. वेश्या और दासी को जब तक पैसा जाता है। वह बदलता रहता है। मिलता है, तब तक स्नेह रखती हैं, 8. रसोईया (ला)। उसके बाद वे सम्बन्ध तोड़ लेती हैं। 9. णीइ (अ), णीई (ला)। 6. कवित्थ' (म)। 10. पर" (अ, द, हे)। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 23 पाठ-सम्पादन एवं अनुवाद * 65. इक्कडयसुण्णसहितो, दसगुणितो लहति कोडिमाहप्पं / तव्विरहे किं सुण्णा, लहेति संखाइ सह मिल्लं॥ शून्य से युक्त एक का अंक दस गुणित होकर करोड़ों के माहात्म्य को प्राप्त कर लेता है। एक के बिना केवल शून्य क्या शत, सहस्र आदि संख्या को प्राप्त कर सकता है? 66. इक्कं जिणिंदआणा', सुण्णोवमियाइ आणरहिताई। वत-दाण-सील-नाणं, न लहति इक्कं पि तंबडयं॥ जिनेन्द्र की आज्ञा एक अंक के समान है। आज्ञा रहितता केवल शून्य के समान है। आज्ञा के बिना व्रत, दान, शील और ज्ञान एक पैसे का मूल्य भी नहीं पाते हैं। 67. जो कोइ आणरहितो, पूयापमुहं करेति तिक्कालं। तस्स वि सव्वमसुद्धं, आणाबज्झं अणुट्ठाणं // आज्ञा से रहित कोई पुरुष यदि तीनों काल में पूजा-भक्ति आदि अनुष्ठान करता है तो उसका अनुष्ठान आज्ञा बाह्य होने के कारण अशुद्ध होता है। 68. जह कोइ मिस्सदिट्ठी, उभओ कालं करेति सज्झायं। ___नालेरदीवमणुया', अन्ने 'रागो न दोसत्तं॥ 69. ते डमरूमणितुल्ला", घंटाजालुव्व ककचकिंतणया। कुक्करचम्मरसिल्लो', सातं न लहेति घुसिणस्स॥ - जैसे नारिकेरद्वीप का निवासी अन्न के प्रति राग-द्वेष नहीं करता, जैसे डमरुक मणि दोनों ओर से बजती है, जैसे घंटा-जाल और काटती हुई करवत दोनों ओर जाती हैं, जैसे कुत्ते के चर्म में आसक्त व्यक्ति केशर का स्वाद नहीं ले पाता, वैसे ही मिश्रदृष्टि 1. जिणंद (म, ब)। 8. घंटालालुव्व (द, ब)। 2. सुन्नोवमाइ (ब, म)। 9. कूकर (अ, द, ब, म, हे)। 3. कोई (द), को वि (हे)। 10. नालिकेर द्वीप के निवासी नारियल 4. वणु' (अ, द, ब, हे)। अथवा फल के आधार पर जीवन 5. नालिअर' (ला)। व्यतीत करते हैं। वहां धान्य उत्पन्न 6. राउन्न (म)। नहीं होता अतः वे धान्य का प्रयोग 7. मणीतु (अ, द, ब, म)। नहीं करते। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम अद्रुत्तरी व्यक्ति दोनों काल में स्वाध्याय करते हुए भी धर्म के रस का आनंद नहीं ले सकता। 70. सणमूलो धम्मो, उवदिट्ठो जिणवरेहि सीसाणं। तं सोऊण सकण्णोरे, दंसणहीणो न वंदिज्जा // जिनेश्वर भगवान् ने शिष्यों के लिए दर्शनमूलक धर्म का उपदेश दिया है। उसे सावधानी से सुनकर दर्शनहीन को वंदना नहीं करनी चाहिए। __71. सम्मत्तरयणभट्ठा, जाणंता बहुविहाइ सत्थाई। सुद्धाराधणरहिता, भमंति' जत्थेव तत्थेव॥ बहुत शास्त्रों को जानने वाले भी यदि सम्यक्त्व रत्न से भ्रष्ट हैं तो वे शुद्ध आराधना से रहित होकर इधर-उधर भटकते रहते हैं। 72. जे दंसणेण भट्ठा, नाणे भट्ठा चरित्तभट्ठा जे। एते भट्ठ-विभट्टा, सेसं पि जणं विणासंति॥ जो दर्शन से भ्रष्ट हैं, वे ज्ञान और चारित्र से भी भ्रष्ट होते हैं। वे नष्ट और भ्रष्ट व्यक्ति दूसरे लोगों का भी विनाश करते रहते हैं। 73. जे के विधम्मसीला, संजम-तव-नियम-जोगजुत्ताय। ताणं दोस भणंता, 'भग्गा भग्गत्तणं'६ बेंति // जो धर्मशील व्यक्ति संयम-तप-नियम तथा योगयुक्त हैं, उनके दोषों को बताने वाले स्वयं भ्रष्ट हैं इसीलिए वे दूसरों को भग्नव्रत वाला कहते 74. जह मूलम्मि विणढे, दुमस्स परिवार नत्थि परिवुड्डी। तह जिणदंसणभट्ठा, मूलविणट्ठा न सिझंति॥ जैसे जड़ का विनाश होने पर वृक्ष के परिवार की वृद्धि नहीं 1. जैसे डमरुक मणि दोनों तरफ बंधी करता है। होती है, वैसे ही मिश्रदृष्टि विधि- 2. सिस्साणं (अ, म, ब, द)। पूर्वक और अविधिपूर्वक-दोनों 3. सण्णाणे (ब, द)। अनुष्ठान करता है। जैसे घंटे की 4. वंदिज्जो (अ, म, ब, द)। डंडी और करवत की धारा दोनों 5. भमंते (ब)। तरफ जाती है, वैसे ही मिश्रदृष्टि 6. भट्ठा भट्ठत्तणं (हे)। . शुभ और अशुभ दोनों अनुष्ठान 7. दिति (अ, द, ब, म)। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-सम्पादन एवं अनुवाद 25 होती, वैसे ही जो जिनदर्शन से भ्रष्ट हैं, वे मूल से भ्रष्ट हैं। वे सिद्धि गति को प्राप्त नहीं करते। 75. जह मूलाओ खंधो, साहापरिवार बहुगुणो होती। तह जिणदंसणमूलो, निद्दिट्ठो मोक्खमग्गस्स॥ जैसे मूल से स्कन्ध तथा उससे बहुगुणित शाखा-प्रशाखा आदि निष्पन्न होते हैं, वैसे ही जिनेश्वर भगवान् ने मोक्षमार्ग का मूल दर्शन को कहा है। 76. लभ्रूण य मणुयत्तं, सहितं तह उत्तमेण गुत्तेणं। लभ्रूण य सम्मत्तं, अक्खयसुक्खं च मोक्खं च॥ मनुष्यत्व को प्राप्त करके जो प्राणी उत्तम गोत्र से युक्त होता है, सम्यक्त्व को प्राप्त करके वह प्राणी अक्षय सुख और मोक्ष को प्राप्त करता है। . 77. जिणवयणमोसधमिणं', विसयसुहविरेयणं अणभिभूत। . जर-मरण-वाहिहरणं, खयकरणं सव्वदुक्खाणं॥ जिनवचन रूप औषधि विषय-सुख रूप व्याधि के लिए विरेचन है, दूसरों से अपराभूत है, जरा, मरण और व्याधि का हरण करने वाली तथा सब दुःखों का क्षय करने वाली है। . 78. जिणवयणमोसहेणं', कंखावाही न फिट्टते जेसिं। - अमियं विसुव्व तेसिं, अणंतसो लहति मरणाइं॥ जिनवचन रूप औषधि से जिनकी कांक्षा रूप व्याधि नष्ट नहीं होती, उनके लिए अमृत भी विष तुल्य है। वे अनंत बार जन्म-मरण . . को प्राप्त करते हैं। 79. आगमायारभट्ठा, जाणंता लज्ज-गारवभएणं। तेसिं पि नत्थि बोधी, पावं अणुमोदमाणाणं॥ . आगम में वर्णित आचार को जानते हुए भी जो लज्जा, गौरव * 1. सुहं (अ)। 2. “ण ओसह' (द, ब, म, हे), - 'यणं ओस (द)। . 3. अमियभूयं (अ, ब)। 4. “यणं ओस' (अ)। 5. फिट्टइ (द)। 6. समयायारभट्ठाणं (अ, द, हे ) / Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम अद्भुत्तरी और भय से उसका आचरण नहीं करते। पाप का अनुमोदन करने वाले उन लोगों को भी बोधि की प्राप्ति नहीं होती। 80. गच्छायारं दुविधं, तीसु' वि जोगेसु संजमो वावि। णाणम्मि करणसुद्धे, अभिक्खणं दंसणं होति॥ द्विविध गच्छाचार-उत्सर्ग और अपवाद, तीन योग-मन, वचन और काया में संयम तथा ज्ञानयोग और करणयोग में शुद्धि होने पर उसको अभीक्ष्ण दर्शन की प्राप्ति होती है। .. .. 81. जीवादीसदहणं, सम्मत्तं जिणवरेहिं पण्णत्तं। ववहारनिच्छएणं, जाणतो लहति सम्मत्तं॥ जिनेश्वर भगवान् ने जीव आदि नव पदार्थों पर श्रद्धा रखने को सम्यक्त्व कहा है। व्यवहार और निश्चय को जानता हुआ प्राणी सम्यक्त्व को प्राप्त करता है। 82. जिणपण्णत्तं धम्मं, सद्दहमाणस्स होति रयणमिणं। : सारं गुणरयणाण य, सोवाणं पढममोक्खस्स॥ जिन-प्रज्ञप्त धर्म में श्रद्धा करने से सम्यक्त्व-रत्न की प्राप्ति होती है। यह सभी गुण-रत्नों में सारभूत तथा मोक्षमार्ग का प्रथम सोपान है। 83. दंसण-णाण-चरित्ते, तव नियमे विणय-खंति गुणइल्ला। एते वि वंदणीया, जे गुणवादी गुणधराणं॥ जो दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, नियम, विनय और शांति आदि गुणों से युक्त हैं तथा गुणी व्यक्तियों की गुणोत्कीर्तना करने वाले हैं, वे वंदनीय होते हैं। 84. आणाजुत्तं संघ, दटुं जो मण्णते न मच्छरिओ। सो संजमपडिवण्णो, मिच्छादिट्ठी मुणेतव्वो॥ आज्ञा युक्त संघ को देखकर जो मात्सर्य से उसे स्वीकार नहीं करता, संयम स्वीकार करने पर भी उसे मिथ्यादृष्टि जानना चाहिए। 1. गंथं वायं (द)। 2. तेसु (ला)। 3. जीवाईस (म, ब)। 4. नियम (ब, म)। 5. आवश्यकनियुक्ति में वंदना किसको करनी चाहिए और किसको नहीं करनी चाहिए, इसका विस्तार से वर्णन है। (द्र. आवनि 719-26) Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-सम्पादन एवं अनुवाद 27 .85. अमराण वंदिताणं, रूवं दट्ठण जेसि मणतावो। सो संतावो तेसिं, भवे भवे होज्जऽणंतगुणो॥ देवताओं के द्वारा वंदनीय साधुओं के रूप को देखकर जिनके मन में संताप होता है, उनका वह संताप भव-भव में अनंत गुणा होता जाता है। 86. आगममायरमाणं', सच्चुवदेसे कहासु रसियाणं। जे गारवं करेंते, सम्मत्तविवज्जिता होंति॥ आगम के अनुसार आचरण करने वाले तथा सत्य उपदेश की वार्ता में रसिक साधु भी यदि गौरव-अभिमान करते हैं तो सम्यक्त्व से रहित हो जाते हैं। 87. नाणेण दंसणेण य, तवेण संवरिओं संजमगुणेण। चउण्हं पि समाओगे, 'मोक्खो जिणसासणे भणितो // ज्ञान, दर्शन, तप और संयम-इन चारों के समायोग को जिनशासन में मोक्ष कहा है। ८८.नह देहं वंदिज्जति, न जाति-कल-रूव-वण्ण'वेसंच। गुणहीणं को वंदे, समणं वा सावगं वावि॥ शरीर को वंदना नहीं की जाती। न ही जाति, कुल, रूप, वर्ण और वेश आदि को वंदना की जाती है। गुणहीन श्रमण या श्रावक को कौन वंदना करता है? 89. णाणं नरस्स सारं, सारं नाणस्स सुद्धसम्मत्तं / सम्मत्तसार चरणं, सारं चरणस्स निव्वाणं॥ मनुष्य जन्म का सार ज्ञान है, ज्ञान का सार शुद्ध सम्यक्त्व, सम्यक्त्व का सार चारित्र तथा चारित्र का सार निर्वाण है। 1. “रणाणं (अ, द, म, ब), रयाणं (ला)। नहीं रहता। 2. सुद्धोवएस (म)। 4. संवरेण (अ, ब, द, म, हे)। 3. ठाणं सूत्र में तीन प्रकार के गौरव 5. चउहिं (अ, म)। . बताए गए हैं-ऋद्धि गौरव, रस 6. मुक्खो हि जिणेहि पण्णत्तो (अ, द, ___ गौरव और साता गौरव अर्थात् म, ला, हे)। ऋद्धि, रस और सुख का अभिमान 7. इ (अ, द, हे)। करने से व्यक्ति का दृष्टिकोण सम्यक् 8. रूवस्सं (अ, द), रूवं च (हे)। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम अद्रुत्तरी 90. दाणं वसणालिद्धं', सीलं रंकुव्व पालणं अहलं।. जरदाहुव्व तवादी, झाणं दुक्खे निदाणं च॥ सम्यक्त्व के बिना दान व्यसन रूप, शील का पालन रंक की भांति निष्फल, तप आदि ज्वरदाह के समान तथा ध्यान दु:ख का कारण होता है। 91. कुग्गहगहगहिताणं, सुतित्थजत्ता य चित्तभमणुव्व। ___ भमणुव्व भावणाओ, दंसणभटेण जाणेण॥. दर्शन भ्रष्ट व्यक्ति कुग्रह से गृहीत व्यक्ति के समान होता है। उसकी तीर्थ यात्रा चित्तभ्रमण तथा भावना भवभ्रमण के समान होती है। 92. चंदण-पवणपणुल्लित, परिमलरसियावरे विचंदणया। चंपककुसुमसुगंधित, तिल्ला उ होति चंपिल्लो॥ जैसे चंदन वृक्ष की पवन से प्रेरित परिमल के रसिक अन्य नीम आदि के वृक्ष चंदन की सुगंध के रूप में परिणत हो जाते हैं तथा चंपक के फूल से सुगंधित तिल भी चंपा की सुगंध वाले हो जाते हैं। (वैसे ही अच्छी या बुरी संगति से व्यक्ति उस रूप में परिणत हो जाता है।) 93. साइजलं सुइसिप्पे, पडितं मुत्ताहलं च हालहलं। सप्पमुहे वरघुसिणं, कदलीदलमज्झसंपत्तं॥ स्वाति नक्षत्र का जल पवित्र सीपी में पड़ने से मोती, सर्प के मुख में पड़ने से हालाहल विष तथा केले के पत्ते पर गिरने से श्रेष्ठ कपूर बन जाता है। 94. चंदणलयं भुयंगा, विसं न मिल्हंति तस्स किं दोसो। इच्छुग्गो किं चंड, खारत्तं नेव मेल्हेइ॥ सर्प यदि चंदन लता पर विष को नहीं छोड़ते हैं तो इसमें 1. वसणं लद्धं (अ, क)। 2. निहाणं (मु, द)। 3. कुग्गहगहिया अग्गह (ब, हे)। 4. सुत्तित्थ' (म, क)। 5. व (द, ब)। 6. "लद्ध (अ, द, म, हे)। 7. चंदं (ब, द)। 8. मिल्हेइ (म, द), तु. पंव 733 / Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-सम्पादन एवं अनुवाद चंदन का क्या दोष? इक्षु के अग्रभाग में उत्पन्न नलस्तम्ब नामक तृण यदि तीव्र खारेपन को नहीं छोड़ता तो इसमें इक्षु का क्या दोष? 95. मिगमदगंधे लसणं, न चयई कइया वि अप्पणो गंधं। रविकरपसरंतेहिं, अंधत्तं होति उल्लूणं'॥ कस्तूरी के मद में रखने पर भी लहसुन अपनी गंध नहीं छोड़ता। सूर्य की किरणों का प्रसार होने पर भी उल्लू अंधेपन को नहीं छोड़ते। 96. एगुदरसमुप्पण्णा, सहजाता य सहवड्डितसरीरा। __न वि होंति य समसीला, कक्कंधु-कंटसमतुल्ला॥ एक उदर से उत्पन्न, साथ में जन्मे हुए और साथ में पलेपुसे भाई भी बेर के कांटे के समान एक जैसे शील-आचरण वाले नहीं होते। __97. एवं परोवयारो, साहु असाहूण संगमारूढो। सेवासंगादिफलं, कुपत्तपत्ताणुसारेणं॥ इस प्रकार साधु असाधु की संगत में आरूढ़ होकर भी परोपकारी होता है। किन्तु सेवा और संगति का फल तो कुपात्र या सुपात्र के अनुरूप ही मिलता है। 98. किं कायमणिनिउत्तो, वेरुलिओ किं हवई कायमणी। कसवट्टएहि घसितं, किं कणगं होति मसिवण्णं॥ क्या काचमणि के साथ रखा हुआ वैडूर्यमणि काचमणि के रूप में परिवर्तित होता है? क्या कसौटी पर घिसा हुआ सोना श्याम वर्ण वाला होता है? - 99. लब्भति विमाणवासो, लब्भति लीला य वंछिता' लच्छी। . इह हारितं न लब्भति, दुल्लभरयणुव्व सम्मत्तं॥ प्राणी विमानवास (देवलोक) को प्राप्त कर सकता है, लीला 1. चायई (अ, द, हे)। और अभावुक। वैडूर्यमणि अभावुक 2. उलुआणं (अ, द, हे)। होती है, वैसे ही सज्जन पुरुष 3. हवइ (ब), हवेइ (द)। अभावुक होते हैं / वे दुर्जनों की संगति 4. आवश्यक नियुक्ति (728) के अनुसार से प्रभावित नहीं होते। पदार्थ दो प्रकार के होते हैं- भावुक 5. वत्तिया (अ, द, हे)। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ आगम अट्टत्तरी करती मनोवाञ्छित लक्ष्मी को प्राप्त कर सकता है लेकिन दुर्लभ रत्न की भांति गए हुए सम्यक्त्व को प्राप्त नहीं कर सकता। 100. संजमरहितं लिंगं, दंसणभटुं न संजमं भणितं। आणाहीणं धम्मं, निरत्थगं होति सव्वं पि॥ संयम रहित लिंग, दर्शनभ्रष्ट संयम और आज्ञाहीन धर्म-ये सब निरर्थक हैं। . 101. जिणवयणं अलहंता, जीवा पावेंति तिक्खदुक्खाई। लहिऊण जं पमत्ता, ताणं चिय घोरसंसारो॥ जिनवचन को प्राप्त नहीं करने वाले जीव तीक्ष्ण दुःखों को प्राप्त करते हैं। जो सम्यक्त्व रूप सम्पदा को प्राप्त करके प्रमाद करते हैं, उनको घोर संसार ही प्राप्त होता है। 102. गयपारे संसारे, आणानिहणा अणंतसो कालं। न लहंति बोधिलाभं, लहिऊण वि के वि हारेंति॥ इस अपार संसार में आज्ञा रहित व्यक्ति अनंत काल तक बोधि को प्राप्त नहीं करते। कुछ व्यक्ति बोधि को प्राप्त करके भी उसे गंवा देते हैं। 103. किवणत्तणेण कोई, दोसे पयडेति साधुसंघाणं / __'जंपति अवण्णवादं", संगं न करे सुसाहूणं॥ कृपणता के कारण कोई व्यक्ति साधु-संघ के दोषों को प्रकट करता है, उनके प्रति अवर्णवाद बोलता है और अच्छे साधुओं की संगति नहीं करता है। 104. 'दुट्ठा सुसाहुनिंदा , इह परलोगे वि दुट्ठदारिद्दा / पइजम्मं विग्घकरी, 'सुरक्खिया सप्पजाइव्व॥ सुसाधुओं की निंदा अच्छी नहीं होती। इससे इहलोक तथा 1. अणोरपारे (ब, म)। 2. किविण (अ) 3. कोइ (ब, म), केइ (हे)। 4. सुसाहुसं° (ब, म)। 5. अवण्णवायं जंपइ (म, ब)। 6. सुसाहुनिंदा दुट्ठा (ब, म)। 7. "दालिद्दा (अ, द, म, हे)। 8. भवे भवे (ब, म)। 9. सुपक्खचाएण दट्ठव्या (अ, द, हे)। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-सम्पादन एवं अनुवाद परलोक में घोर दारिद्र्य प्राप्त होता है। वह सम्यक् प्रकार से पाले पोसे सर्प जाति' की भांति प्रत्येक जन्म में विघ्न देने वाली होती 105. दुद्रुत्तणेण पिसुणत्तणेण दुवियड्डकोधबहुलेणं। हारेंति बोधिलाभं, कीड-पयंगा य जायंति॥ दुष्टता, पिशुनता, दुर्विदग्धता तथा क्रोधबहुलता से जीव बोधिलाभ को गंवा देते हैं और कीट-पतंगे की योनि में उत्पन्न होते हैं। 106. पिट्ठीमंसे रसिया, जलसप्पिणिपमुहरुहिरसोसा य। बालयऽमिज्झा किमिया, जायंति य दुब्भिगंधिल्ला॥ चुगली करने में रसिक व्यक्ति रक्त शोषण करने वाली जलसर्पिणी तथा कचरे में दुर्गन्धयुक्त छोटे-छोटे कीड़े के रूप में उत्पन्न होते हैं। __ 107. टुंटा मूगा' अंधा, दारिदा घोरदुक्खबाहुल्ला। - सूला भिण्णसरीरा, साहु असाहुग्गनिंदाए॥ असाधु के सामने साधु की निंदा करने से जीव हाथ-पैर से विकल, मूक, अंध, दारिद्र्य से युक्त तथा घोर दुःख से युक्त होते हैं। उनका शरीर शूल से भेदा जाता है। 108. परवंचणेण रत्ता, परापवादेण अप्पसंसणया। ताणं कत्तो बोधी, परमप्पाणं च बोल्लेति॥ - परवंचन में आसक्त तथा परापवाद से स्वयं की प्रशंसा करने वाले लोगों को बोधि की प्राप्ति कहां से होगी? वे दूसरों की तथा स्वयं की आत्मा को संसार में इबोते हैं। 1. सर्प की जाति का कितना ही पालन- 3. “मुहाइरु' (ब, म)। पोषण किया जाए, वह पालनकर्ता 4. वालय' (अ, द, ब, म)। के लिए घातक होती है। थोड़ा सा 5. मुंगा (हे)। - 'प्रतिकूलआचरण होते ही प्रतिशोध ले 6. असाहूणनिं (ला)। लेती है। 7. "मप्पणया (ला)। . 2. पिट्ठ (ब, म)। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 32 आगम अद्दुत्तरी 109. ठाणाणंगे भणितं, पंचण्हमवण्णवादबहुलेणं। दुल्लभबोधीभावं', लभंति जीवा य निच्चं पि॥ स्थानांग सूत्र में कहा गया है कि पांच व्यक्तियों का अवर्णवाद बोलने से व्यक्ति सदैव दुर्लभ-बोधित्व' को प्राप्त करते हैं। 110. एसिं सुवण्णवादे, जीवा पावंति सुलभबोधित्तं / . जह मगहाहिवकण्हादिएहि लद्धं खु सम्मत्तं॥ इनके गुणों की उत्कीर्तना करने वाले जीव सुलभबोधित्व' को प्राप्त करते हैं। जैसे मगधाधिप श्रेणिक और कृष्ण' आदि ने गुणोत्कीर्तना से सम्यक्त्व को प्राप्त किया। 111. धम्मा जयं थुवंतो, ललितंगकुमारुव्व लहति बोधिफलं। बहुवितहकवालिओ वि हु, भीमकुमारुव्व जायंति // धर्म से व्यक्ति विजयी होता है तथा ललितांगकुमार की भांति बोधि-फल को प्राप्त करता है। अत्यन्त वितथ आचरण करने वाला कापालिक भी भीमकमार२ की भांति, अहिंसक हो जाता है। हुआ। 1. बोहिय (अ, द, म, हे)। * अर्हत्-प्रज्ञप्त धर्म का वर्णवाद करता 2. पांच स्थानों से जीव दुर्लभ-बोधित्व कर्म का उपार्जन करता है * आचार्य-उपाध्याय का वर्णवाद करता * अर्हतों का अवर्णवाद करता हुआ। हुआ। * अर्हत् प्रज्ञप्त धर्म का अवर्णवाद करता * चतुर्विध संघ का वर्णवाद करता हुआ। हुआ। * आचार्य-उपाध्याय का अवर्णवाद करता * तप और ब्रह्मचर्य के विपाक से हुआ। दिव्य गति को प्राप्त देवों का वर्ण* संघ का अवर्णवाद करता हुआ। वाद करता हुआ। (ठाणं 5/134) * तप और ब्रह्मचर्य के विपाक से दिव्य 6, ७.कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, गति को प्राप्त देवों का अवर्णवाद करता कथा सं. 4, 5 / हुआ। (ठाणं 5/133) 8. धम्मेण (ब, म)। 3. अवण्ण' (म)। 9. वितरबालिओ (अ, ला, हे)। 4. दुलह° (म)। 10. यहां एकवचन' के स्थान पर 5. पांच स्थानों से जीव सुलभ-बोधिकत्व 'बहुवचन' का प्रयोग है। कर्म का अर्जन करता है- 11. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. * अर्हतों का वर्णवाद-श्लाघा करता हुआ। 2, कथा सं.६। 12. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 7 / Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-सम्पादन एवं अनुवाद 112. धम्मिल्ल-दामणइया, सत्तेणं अगडदत्तनरवतिणो। समयाए दमदंतो', मुणिवति-मेयारिओ जाण॥ धम्मिल्ल, दामनक और अगडदत्त राजा ने सत्य (सत्त्व) से तथा दमदंत, मुनिपति' और मेतार्य ने समता से बोधि को प्राप्त किया। 113. धन्नो वक्कलचीरी, कुलिंगमझे विलहति सम्मत्तं। धन्नो सुबुद्धिमंती, धम्मायरियाउ पडिबुद्धो॥ वल्कलचीरी धन्य था, जिसने कुलिंगियों के बीच में भी सम्यक्त्व को प्राप्त कर लिया तथा सुबुद्धि मंत्री भी धन्य था, जो धर्माचार्य से प्रतिबुद्ध हो गया। 114. विहि-अविहिं च न याणे, बिंबंदटुं जिणिंददेवाणं। सिद्धाणं संथवणं, कायव्वं निउणबुद्धीए॥ व्यक्ति भले विधि और अविधि को नहीं जाने पर उसे जिनेश्वर देव का बिम्ब देखकर निपुणबुद्धि से सिद्धों का स्तवन करना चाहिए। . 115. आगमअद्भुत्तरिया, रइया सिरिअभयदेवसूरीहिं३ / पढिता हरेति पावं, गुणिता अप्पेति बोधिफलं॥ ___ - यह आगम अष्टोत्तरिका श्रीअभयदेवसूरि द्वारा रचित है। इसको पढ़ने से यह पाप का हरण करती है तथा इसका चिंतन करने से बोधिफल प्रदान करती है। 1. “णईया (म)। 11. दिटुं (द, ब, हे)। 2. दवदंतो (अ, द, म, हे)। 12. तेरापंथ को मूर्तिपूजा मान्य नहीं है। 3-10. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, 13. सूरिहिं (द)। कथा सं. 8-15 / Page #47 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . परिशिष्ट * गाथानुक्रम * कथाएं 0 पद का महत्त्व 0 द्रव्य-परम्परा : मृगावती और प्रद्योत 0 आज्ञा की अवहेलना 0 श्रेणिक की श्रद्धा 0 कृष्ण वासुदेव की वंदना 0 ललितांगकुमार 0 भीमकुमार और कापालिक 0 धमिल्ल .दामनक 0 अगड़दत्त 0 दमदन्त अनगार 0 मुनिपति * मुनि मेतार्य 0 वल्कलचीरी .. सुबुद्धिमंत्री . * विशेषशब्दानुक्रम * शब्दार्थ * संकेतिका * प्रयुक्त ग्रंथ सूची Page #49 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-१ गाथानुक्रम अज्जत्ता जे समणा अणुयोगदारसुत्ते अप्पे चारुफलाई अमराण वंदिताणं अरिहं विणा न देवो असढेण समाइण्णं आगमअट्टत्तरिया आगमं आयरंतेणं आगमभट्ठो मुणिवर आगममायरमाणं आगमायारभट्ठा आणाए अणुचिण्णा.... आणाजुत्तं संघं . . आणाभटुं चरणं आवस्सयाइकरणं आहेडप्पमुहाई इक्कं जिणिंदआणा इक्कडयसुण्णसहितो उदयतिहीणं ठवणा एगुदरसमुप्पण्णा एवं परोवयारो एसिं सुवण्णवादे किं कायमणिनिउत्तो किवणत्तणेण कोई कुग्गहगहगहिताणं कुसलेण घरं पत्तो केण वि रण्णा रंको गच्छायारं दुविधं . 5 गयपारे संसारे 23 गयभुत्तकविट्ठफलं 44 गुरूवदेसो धम्मो 85 चंदण-पवणपणुल्लित 31 चंदणलयं भुयंगा 20 चिंतिज्जंतं पूरइ 115 जं किंचि अणुट्ठाणं 7 . जं जीतं सोधिकरं 9 जं जीतमसोधिकरं 86 जसपरिमलपल्लवितं 79 जह कोइ मिस्सदिट्ठी 24 जह मूलम्मि विणढे 84 जह मूलाओ खंधो 61 जाणामो गीयगुणा 21 जिणपण्णत्तं धम्म 38 जिणवयणं अलहंता .. 66 जिणवयणमोसधमिणं / 65 जिणवयणमोसहेणं 22 जीवादीसदहणं 96 जे के वि धम्मसीला / _97 जे दंसणेण भट्ठा 110 जे रंक-ढिंकपमुहा 98 जेसिं न आणबुद्धी 103 जो कोइ आणरहितो 91 जो पूइज्जति देवो 28 टुंटा मूगा अंधा 26 ठाणाणंगे भणितं 80 णाणं नरस्स सारं Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38 105 104 14 तस्स वि सव्वं भालिय तुट्ठो हरति सिरोरं ते डमरूमणितुल्ला थोवं पि अणुट्ठाणं दंसण-णाण-चरित्ते दंसणमूलो धम्मो दब्भतिणेणं विप्पा दव्वपरंपर दुग्गो दव्वपरंपरवंसो दाणं वसणालिद्धं दिण्णं वहेमि भारं दुट्ठत्तणेण पिसुण.... दुट्ठा सुसाहुनिंदा देवड्डिखमासमणा देवा वसंति पुच्छे धन्नो वक्कलचीरी धम्मा जयं थुवंतो धम्मिल्ल-दामणइया नयणविहीणं सुमुहं न हु देहं वंदिज्जति नाणेण दंसणेण य निय-नियगुणमाहप्पं पढमपहरम्मि दक्खिण परवंचणेण रत्ता पासवणं पावहरं पिट्ठीमंसे रसिया पूया-पच्चक्खाणं बहिराण कण्णजावो भक्खे सुक्कतणाई आगम अद्दुत्तरी 27 मत्तंड-चंड-दीधिइ 43 49 मत्तो जिणहरपडिमा 69 मह चम्माओ सेज्जा..... . 30 मिगमदगंधे लसणं 83 मूढाणं एस ठिती 70 मेहुणसण्णारूढे रण्णो तणघरकरणं 13 रयहरण-हत्थदंडा . 12 रायकरंडग-गिहवति.... राया तह जिणदेवो लंधिज्जति न सीमं लच्छी विणा न सुक्खं लक्ष्ण य मणुयत्तं. लब्भति विमाणवासो. लोयाणं एस ठिती वंझापुत्तसमाणा वत्थासण-घुसिण चंदण 46 विहि-अविहिं च न याणे 114 वेसकरंडगतुल्लेहि संगामे रोसिल्ला संघयणबुद्धिय बलं संजमरहितं लिंग सम्मत्तरयणभट्ठा साइजलं सुइसिप्पे 108 सामीभत्त-कयण्णू 37 साहसियं बहुलद्धं 106 सिरिवद्धमाणपट्टे 34 सिरिवद्धमाणसामी 60 सुत्तत्थकरणओ खलु 36 सुविसाललोयणदलं 42 Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-२ कथाएं 1. पद का महत्त्व एक राजा यात्रा के लिए प्रस्थान कर रहा था। राजा ने किसी ग्राम में संदेश भिजवाया कि प्रयाण के समय पड़ाव के लिए राजा के लिए आवास-स्थान बनवाना है। दूत ने जाकर सभी लोगों को इस बात की अवगति दी। जब ग्रामप्रधान को ज्ञात हुआ कि राजा के लिए आवास-स्थल बनाया जाएगा तो उसने लोगों को कहा कि मेरे रहने के लिए भी एक घर बनवा दो। ग्रामवासियों ने चिन्तन किया कि राजा तो एक दिन रहकर चला जाएगा, उसके लिए अधिक धन लगाकर चित्रकर्म से युक्त सुंदर घर बनवाने की क्या उपयोगिता है? एक घास की झोंपड़ी बनवाकर चारों ओर कांटों की मोटी बाड़ लगवा देंगे। ग्राम के ठाकुर से हमारा प्रतिदिन काम का सम्बन्ध रहता है, वह यदि प्रसन्न रहेगा तो अच्छा होगा इसलिए उसके लिए बहुमूल्य चित्रों से युक्त मनोहर चतु:शाल वाला आवास-स्थल बनवाएंगे। यह सुनकर ग्राम-ठाकुर उन पर प्रसन्न हो गया। ग्रामवासियों ने राजा के लिए घास-फूस का सामान्य घर तथा ग्रामभोजक के लिए रमणीय चतुःशाल का निर्माण करवा दिया। प्रयाण करके जब राजा उस गांव में आया तो राजा ने सोचा कि ग्रामवासियों ने मेरे लिए अच्छा घर बनवाया है। यह सोचकर राजा वंदनवार और लटकती मालाओं से सुशोभित उस सचित्र आवास वाले घर में जाने लगा। ग्रामवासियों ने राजा से कहा-"भगवन्! आपके लिए यह आवास नहीं है, यह ठाकुर का आवास-स्थल है। आपके एक दिन के प्रवास हेतु घास की झोंपड़ी बनाई गई है।" यह सुनकर राजा कुपित हो गया। उसने ठाकुर को ग्राम के आधिपत्य . से च्युत कर दिया तथा ग्रामवासियों को भी दंडित किया। 1. आगम 8, ओनिटी प. 46 / Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40 आगम अद्रुत्तरी 2. द्रव्य-परम्परा : मृगावती और प्रद्योत मृगावती वैशाली गणतंत्र के गणनायक महाराज चेटक की पुत्री थी। उसका विवाह कौशाम्बी के राजा शतानीक के साथ हुआ था। राजा शतानीक अपने राज्य में चित्रशाला बनवा रहे थे। उस चित्रशाला में एक चित्रकार ऐसा भी था, जिसे यक्ष का वरदान प्राप्त था। वह किसी व्यक्ति के एक अंग को देखकर. उसका पूरा चित्र बना सकता था। राजमहल में खड़ी रानी का उसने पैर का अंगूठा देख लिया। उसके आधार पर उसने रानी का चित्र बना दिया। ज्योहि चित्र तैयार हुआ, जंघा पर काले रंग का धब्बा पड़ गया। चित्रकार ने मिटाना चाहा लेकिन जितनी बार वह मिटाने का प्रयत्न करता, उतनी ही बार पुन: रंग का बिंदु वहां गिर जाता। चित्रकार ने उस चिह्न को मिटाने का प्रयत्न नहीं किया। चित्र देखकर राजा के मन में संदेह उत्पन्न हो गया कि यह चित्रकार दुराचारी है, तभी इसे रानी के गुप्त अंग के तिल का ज्ञान हुआ है। राजा ने उसे फांसी की सजा सुना दी। चित्रकार ने राजा को यक्ष के वरदान की बात कही। राजा ने परीक्षा के लिए उसे कुब्जा दासी का मुंह देखकर चित्र बनाने को कहा। चित्रकार ने यथार्थ चित्र बना दिया। इस पर भी राजा का कोप शान्त नहीं हुआ। उसने चित्रकार के दाहिने हाथ का अंगूठा कटवा दिया। अकारण दंडित करने के कारण उसके मन में प्रतिशोध की भावना उत्पन्न हो गई। उसने बाएं हाथ से चित्र बनाने का अभ्यास कर लिया और मृगावती का चित्र बनाकर उज्जयिनी नरेश चंडप्रद्योत को दिखाया। चंडप्रद्योत चित्र देखते ही कामान्ध हो गया। मृगावती को प्राप्त करने के लिए उसने कौशाम्बी पर आक्रमण कर दिया। राजा शतानीक आकस्मिक हमले से भयभीत हो गया। अतिसार रोग होने से उसका प्राणान्त हो गया। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 2 : कथाएं चंडप्रद्योत ने नगर को घेर रखा था। उस समय मृगावती ने साहस के साथ महाराज चंडप्रद्योत को कहलवाया-'अब इस दुनिया में आपके सिवाय मेरा और कौन है?' यदि आप मुझे चाहते हैं तो उज्जयिनी की चारदीवारी तुड़वाकर उन ईंटों से कौशाम्बी की टूटी हुई चारदीवारी को पूरा करवा दो। उसके बाद कुछ चिन्तन किया जा सकता है। राजा ने मृगावती की समयज्ञता और चतुराई को उसका प्रेम-निमंत्रण समझा। प्रेमराग के वशीभूत होकर राजा ने दुर्ग के चारों ओर परकोटा बनवाना शुरू कर दिया। दुर्ग का परकोटा तैयार होते ही प्रद्योत पुनः मृगावती को पाने के लिए लालायित. हो गया। संयोगवश उसी समय भगवान् महावीर का वहां आगमन हुआ।. राजा प्रद्योत भगवान् के चरणों में उपस्थित हुआ और रानी मृगावती भी उदयन को साथ लेकर समवसरण में पहुंची। मृगावती ने भगवान् के चरणों में अपनी प्रार्थना प्रस्तुत करते हुए कहा-"भगवन् ! संसार के स्वरूप को जानकर मैं अब आपके चरणों में प्रव्रजित होना चाहती हूं। बालक उदयन की रक्षा का भार मैं महाराज चंडप्रद्योत को सौंपना चाहती हूं। पुत्र को उसे सौंपते हुए रानी मृगावती ने चंडप्रद्योत से दीक्षा की अनुमति मांगी। समवसरण के प्रभाव से राजा का कामविकार नष्ट हो गया। उसने रानी को सहर्ष दीक्षा की आज्ञा दे दी। प्रद्योत ने मंत्रियों के संरक्षण में उसके पुत्र को कौशाम्बी के सिंहासन पर बिठा दिया। 3. आज्ञा की अवहेलना एक राजा की पत्नी ने किसी दरिद्र पर कृपा करके राजा को निवेदन किया कि इसकी दरिद्रता दूर की जाए। राजा ने पत्नी की बात स्वीकार करके उस दरिद्र पुरुष को धनवान् बना दिया। धनवान् बनने के बाद वह कृतज्ञतावश राजा की भक्ति करने लगा। 1. आगम 13 / Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम अद्भुत्तरी उसकी भक्ति से प्रभावित होकर राजा ने उसे प्रधान पुरुष बना दिया। कुछ दिनों के पश्चात् राजा के मन में दिग्विजय करने की बात उभरी। उस प्रधान पुरुष को सब कुछ दायित्व सौंपकर राजा सेना के साथ अन्य देशों को जीतने चला गया। राजा के जाने के पश्चात् वह अंत:पुर में आसक्त हो गया। भविष्य के परिणाम को न जानकर वह पटरानी के साथ भोग भोगने लगा। दिग्विजय करके राजा सकुशल अपने राज्य में पहुंच गया। वहां पहुंचते ही राजा ने प्रधान पुरुष की शिकायत सुनी। उसके दुश्चरित्र को जानकर राजा ने लोगों के समक्ष विडम्बना करके उसके शरीर के टुकड़े-टुकड़े करवा दिए। 4. श्रेणिक की श्रद्धा राजा श्रेणिक राजगृह नगरी का राजा था। उसकी देव, गुरु और धर्म पर दृढ़ आस्था थी। एक बार सुधर्मा सभा में इन्द्र ने उसकी प्रशंसा की। एक देव ने इन्द्र की बात पर विश्वास नहीं किया। एक साधु का रूप बनाकर वह राजा श्रेणिक के सम्मुख आया। श्रेणिक ने उसके पात्र में मांस देखा। श्रेणिक ने जब साधु से उस संदर्भ में पूछा तो उसने कहा-"सभी साधु जिह्वा-लोलुप होकर छिपछिपकर मांस खाते हैं।" श्रेणिक ने कहा-"यह संभव ही नहीं है कि निर्ग्रन्थ साधु कभी अभक्ष्य का सेवन करें। मेरी साधुओं पर अटूट आस्था है।" आगे चलने पर श्रेणिक ने गर्भवती साध्वी को देखा। धर्मशासन की अवहेलना न हो इसलिए श्रेणिक उसको तलघर में लेकर गया। श्रेणिक ने उस साध्वी का सारा परिकर्म स्वयं किया। देव रूप साध्वी ने मरे हुए गाय के मांस जैसी दुर्गन्ध की विकुर्वणा की लेकिन वह 1. आगम 26-29 / Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 2 : कथाएं विचलित नहीं हुआ। उसकी दृढ़ आस्था देखकर देव तुष्ट हो गया और दिव्य ऋद्धि देकर वापस लौट गया। 5. कृष्ण वासुदेव की वंदना एक बार भगवान् अरिष्टनेमि द्वारिका में समवसृत हुए। कृष्ण वासुदेव भगवान् को वंदना करने राजभवन से निकले। भगवान् के अठारह हजार शिष्यों को वंदना करने की इच्छा से श्रीकृष्ण ने भगवान् से पूछा- "भगवन्! संतों को किस प्रकार से वंदना करूं?" भगवान् ने कहा-"तुम सबको द्रव्य वंदना न करके भाव वंदना करो।" भगवान् से प्रेरणा प्राप्त करके श्रीकृष्ण वासुदेव ने द्वादशावर्त वंदना से सब साधुओं की वंदना की। उनके साथ आए अन्य राजा परिश्रान्त हो गए। वीर कौलिक भी वासुदेव का अनुगमन करता हुआ सबको वंदना कर रहा था। वंदना करते हुए श्रीकृष्ण पसीने से तरबतर हो गए। वंदना के पश्चात् श्रीकृष्ण ने भगवान् अरिष्टनेमि को निवेदन किया-"मैंने जीवन में 360 युद्ध किए हैं, उन युद्धों में मैंने इतनी थकान की अनुभूति नहीं की, जितनी आज हुई है।" भगवान् ने कहा-"कृष्ण! वंदना के द्वारा आज तुमने क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त * कर लिया है और दृढ़ श्रद्धा से तुमने तीर्थंकर नाम गोत्र का बंधन कर लिया है। वंदना से तुमने सातवीं नरक के बंधन को तीसरी नरक .लक सीमित कर दिया। यदि तुम्हारा आयुष्य और होता तो तुम प्रथम नास्की का बंध कर सकते थे। 6. ललिताङ्गकुमार .. श्रीवास नगर में नरवाहन नामक राजा राज्य करते थे। उनकी रानी . का नाम कमला तथा राजकुमार का नाम ललितांगकुमार था। ललितांगकुमार 1. आगम 110, निचू 1 पृ. 20 / 2. आगम 110, आव 2 पृ. 18 / Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44 आगम अद्दुत्तरी सर्वगुण सम्पन्न था। उसका दिल बहुत उदार था अत: दान देने में उसे आत्मतोष का अनुभव होता था। ललितांगकुमार का एक सेवक था। वह नाम से सज्जन लेकिन गुणों से दुर्जन था। एक बार राजा ने प्रसन्न होकर राजकुमार को हार, कुंडल आदि बहुमूल्य अलंकार दिए लेकिन कुमार ने वे सब अलंकार याचकों को दे दिए। सज्जन ने राजा के समक्ष चुगली करते हुए कहा कि ललितांगकुमार इस प्रकार दान देकर राजकोष को खाली कर देगा। राजा ने कुमार को एकान्त में बुलाकर समझाया। राजकुमार ने राजा की बात शिरोधार्य करके दान देने में कमी कर दी लेकिन इससे कुमार को संतोष नहीं हुआ और लोगों में भी अपवाद फैलने लगा। ललितांगकुमार ने पुनः दान देना प्रारम्भ कर दिया। इस बार राजा ने ललितांगकुमार को अपमानित करके राजदरबार में आने के लिए निषेध कर दिया। इस घटना से दुःखी होकर एक रात राजकुमार घोड़े पर सवार होकर महल से बाहर चला गया। वह दुष्टप्रकृति वाला सेवक सज्जन भी साथ में चलने लगा। एक दिन सज्जन ने कुमार से कहा-"धर्म और अधर्म"-इन दोनों में श्रेष्ठ कौन है ? ललितांगकुमार ने कहा-'धर्म की सदा जय और अधर्म की पराजय होती है।' सेवक ने इसका प्रतिकार करते हुए कहा- "मैं मानता हूं कि कभी-कभी अधर्म से भी सुख होता है। यदि ऐसा नहीं होता तो आप जैसे धर्मात्मा की ऐसी स्थिति क्यों होती? ललितांगकुमार ने कहा-'आगे गांव के लोगों से पूछते हैं, वे क्या कहते हैं?' सज्जन ने कहा-"यदि ग्रामीण यह कह दें कि अधर्म की जय होती है तो आप मुझे क्या देंगे?" ललितांगकुमार ने कहा-"मैं घोड़ा आदि सारी वस्तुएं तुम्हें दे दूंगा और जीवन भर तुम्हारा दास बन जाऊंगा।" ग्रामीणों से पूछने पर वे एक साथ बोल उठे-"आजकल तो अधर्म की जय होती है।" ललितांगकुमार ने प्रतिज्ञा के अनुसार घोड़ा, राजसी पोशाक और आभूषण आदि सभी वस्तुएं सेवक को दे दी और स्वयं Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 2 : कथाएं उसका दास बन गया। सज्जन बोला-"अब तो धर्म की जय बोलना छोड़ दो लेकिन ललितांग अपने निर्णय पर दृढ़ रहा। सज्जन बोला-"अब दूसरे गांव के लोगों से पूछा जाए कि वे इस प्रश्न का क्या उत्तर देते हैं ? अब शर्त यह है कि यदि तुम हार जाओगे तो मैं तुम्हारी दोनों आंखें निकाल लूंगा।" कुमार ने उसकी वह शर्त भी स्वीकार कर ली। दूसरे गांव के लोगों ने भी वही उत्तर दिया। उस समय भी ललितांगकुमार बोला-“हे वन देवताओं! मुझे धर्म का सहारा है, यह कहकर शर्त के अनुसार उसने छुरी से अपनी दोनों आंखें निकालकर दे दी। सज्जन घोड़े पर चढ़कर आगे चला गया। उसी समय सूर्यास्त हो गया। वह वृक्ष के नीचे ध्यानस्थ हो गया। वहां भारण्ड पक्षी आपस में बोले-"यहां से पूर्वदिशा में चम्पा नामक नगरी है। वहां जितशत्रु राजा की राजकुमारी जन्मान्ध है। यदि कोई इस वृक्ष में लिपटी लता का रस निचोड़कर भारण्ड पक्षी की बीट मिलाकर आंख में डाले तो राजकुमारी की आंख ठीक हो सकती हैं। आंखं ठीक करने वाले को राजा आधा राज्य देंगे और राजकुमारी से उसकी शादी करेंगे। यदि आज राजकुमारी ठीक नहीं हुई तो राजा और रानी कल चिता में प्रवेश करेंगे। ललितांगकुमार ने सारी बातें सुनकर लता को काटकर दवा तैयार कर ली। उसने दवा अपनी आंख में डाली, जिससे उसे पुनः रोशनी प्राप्त हो गई। राजकुमारी की आंखें भी ठीक हो गईं। राजा ने राजकुमारी के साथ ललितांगकुमार का विवाह करके आधा राज्य उसे दे . दिया। . एक दिन ललितांगकुमार गवाक्ष में बैठा था। उसे राजपथ पर वह अधर्मिष्ठ सेवक दीन-हीन अवस्था में दिखाई दिया। ललितांगकुमार ने उसे ऊपर बुलवाया और कहा कि मैं वही ललितांग हूं, जिसकी तुमने आंखें निकाली थीं। ललितांग ने उसे अच्छे कपड़े दिए और वहीं महल में रहने का स्थान दिया। सज्जन बोला-"अब मैं आपकी बात पर विश्वास करता हूं कि सचमुच धर्म की जय होती है। एक दिन राजकुमारी ने अपने पति Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम अद्दुत्तरी ललितांगकुमार को कहा-"यह सेवक केवल नाम से सज्जन है पर इसका स्वभाव दुष्ट है। इसे कुछ धन या जमीन दे देवें लेकिन अपने पास न रखें। स्वभाव से उदार होने के कारण कुमार ने उसका साथ नहीं छोड़ा। एक दिन राजा ने सज्जन से ललितांगकुमार की जाति आदि के बारे में पूछा / सज्जन ने सोचा कहीं राजा को मेरे बारे में संदेह न हो इसलिए . अपने दुष्ट स्वभाव के कारण कहा-"मैं श्रीवासपुर के राजा नरवाहन का पुत्र हूं। यह मेरा सेवक था। सुंदर होने के कारण किसी सिद्धपुरुष से विद्या सीखकर यहां आया हूं। पूर्वार्जित कर्म से इसे यहां का राज्य मिल गया। इसने मुझे पहचान लिया तथा अपना भेद न खुलने के भय से यह मेरा सत्कार करता है। यह बात सुनकर राजा व्याकुल हो गया और ललितांगकुमार को मारने का उपाय सोचने लगा। एक दिन राजा ने अपने पुरुषों से कहा कि आज रात्रि में महल में जो भी आए उसे बिना पूछे मार देना। रात को राजा ने ललितांग को बुलाया। राजपुरुषों के कहने पर ललितांग जाने को तैयार हुआ लेकिन राजकुमारी ने जाने नहीं दिया। ललितांग ने सज्जन को राजा के पास भेज दिया। राजपुरुषों ने उसे मौत के घाट उतार दिया। प्रात:कालं ललितांगकमार से राजा को यथार्थ की अवगति हुई। राजा ने अपने जामाता ललितांगकुमार से अपने कुकृत्य के लिए क्षमा मांगी और अपना बाकी का आधा राज्य भी उसे दे दिया। राजा स्वयं वन में तपस्या हेतु चला गया। राजा नरवाहन ने भी ललितांगकुमार को राज्य देकर स्वयं संन्यास ग्रहण कर लिया। एक बार संतों का आगमन होने से उन्होंने श्रावक व्रत स्वीकार किए। वृद्धावस्था में पुत्र को राज्य देकर ललितांगकुमार ने संन्यास ग्रहण कर लिया। 7. भीमकुमार और कापालिक कमलपुर नगर में हरिवाहन नामक राजा राज्य करता था। उसके 1. आगम 111 / Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 2 : कथाएं मंत्री का नाम बुद्धिसागर तथा रानी का नाम मदनसुंदरी था। मंत्री राजा के प्रति वफादार था। एक दिन रानी ने स्वप्न देखा कि सिंह उसके पैर चाट रहा है और वह उसके सिर पर स्नेह से हाथ फेर रही है। राजा ने ज्योतिषी से स्वप्न का फल पूछा। ज्योतिषी ने कहा कि आपके सर्वगुण सम्पन्न एक पुत्र होगा। वह पराक्रमी अहिंसक और दयालु होगा। पुत्र उत्पन्न होने पर राजा ने उसका नाम भीमकुमार रखा। उसी समय मंत्री के भी पुत्र का जन्म हुआ, जिसका नाम मतिसागर रखा गया। राजकुमार और अमात्यपुत्र में घनिष्ठ मैत्री थी। एक दिन राजा को एक राजपुरुष ने आकर सूचना दी कि नगर के चम्पक उद्यान में देवचन्द्र मुनि का आगमन हुआ है। राजा ने इस सूचना को सुनकर प्रसन्नता से मुकुट को छोड़कर सारे आभूषण सूचना दाता को दे दिए। राजा सपरिवार प्रवचन सुनने गया। राजा ने मुनि को निवेदन किया"पांच महाव्रत मेरे लिए कठिन हैं अत: मुझे बारह व्रत का संकल्प करवाएं। मुनि ने भीमकुमार को प्रेरणा दी कि जीवन में किसी को कष्ट मत देना। . अहिंसक बने रहना तथा शिकार मत खेलना।" एक दिन भीमकुमार महल में बैठा था। एक कापालिक उसके पास आकर बोला-'मैं भुवनशोभिनी विद्या सिद्ध करना चाहता हूं, उसे सिद्ध करने के लिए मुझे आपका दस दिन का सहयोग चाहिए। राजकुमार ने उसे सहयोग की स्वीकृति दे दी। .. मंत्री को जब यह बात ज्ञात हुई तो उसने राजकुमार से कहा "यह कापालिक दुष्ट है, आपको उसका सहयोग नहीं करना चाहिए।" भीमकुमार ने कहा-“मैं वचन-प्रतिबद्ध हूं अत: मुझे उसके साथ जाना ही होगा।" कृष्णा चतुर्दशी को कापालिक राजकुमार भीम को अपने साथ ले गया। वहां जाकर उसने भीमकुमार को वीरवेश धारण करवाया और मंत्रोच्चार के पश्चात् वह भीमकुमार की चोटी बांधने लगा। भीम ने पूछा-'तुम मेरी - चोटी क्यों बांध रहे हो?' उसने कहा-"मैं तुम्हारी बलि देना चाहता हूं।" Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम अद्दुत्तरी भीमकुमार ने म्यान से तलवार निकाली और बोला-"धर्म के प्रभाव से तुम मेरा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते।" कापालिक ने आंखें लाल करके कहा"देखता हूं तुमको इस श्मशान से कौन बचा सकता है? मैं तुम्हारा शिर काढूंगा। तुमको अभी तक मेरी शक्ति का ज्ञान नहीं है।" कापालिक ने तलवार से घात किया, भीमकुमार फुर्ती से कापालिक के कंधे पर चढ़ गया। कापालिक ने उसके पैर पकड़कर उसे आकाश में उछाल दिया। उसी समय कमला यक्षिणी ने उसे बचा लिया और उसे विन्ध्याचल पर्वत पर ले गई। यक्षिणी ने भीमकुमार से कहा-"मैंने तुमको बचाया है अतः मेरी वासना की पूर्ति करो।" भीमकुमार ने कहा-"आप मेरी माता के समान हैं, मैं स्वप्न में भी यह बात नहीं सोच सकता।" देवी उसकी दृढ़ता देखकर प्रसन्न हो गई और वरदान मांगने को कहा। भीमकुमार बोला"मुझे केवल आपका आशीर्वाद चाहिए।" देवी ने उसे सदैव अजेय रहने . का आशीर्वाद दिया। विन्ध्याचल पर्वत पर भीमकुमार को धार्मिक स्वाध्याय के शब्द सुनाई दिए। खोजते हुए वह स्वाध्यायरत मुनि के पास गया और उनका उपदेश सुनने लगा। उसी समय भीमकुमार के सामने कापालिक का बायां हाथ आया और भीमकुमार को खींचने लगा। भीमकुमार उस हाथ पर बैठ गया। वह हाथ उसे कालिका माता के मंदिर में ले गया। माता की मूर्ति के गले में मस्तक-मुण्डों की माला थी। कापालिक ने दूसरे हाथ से मतिसागर को पकड़ रखा था। कापालिक ने मतिसागर को कहा-“मैं तुम्हारी बलि दूंगा।" मुझे जिनेश्वर भगवान् की शरण है, यह कहते हुए मतिसागर ध्यानस्थ हो गया। भीमकुमार मतिसागर की आवाज सुनकर उसके पास आया। वह मतिसागर को बचाने के लिए उसके पास गया। भीमकुमार ने मतिसागर से पूछा"तुम यहां कैसे आए?" उसने उत्तर दिया-"तुमको घर पर नहीं देखकर तुम्हारी पत्नी व्यथित और राजा-रानी बेचैन हो गए। कृष्णा चतुर्दशी को Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 2 : कथाएं कुलदेवी ने प्रकट होकर बताया कि उसे कापालिक लेकर गया है। देवी की बात सुनकर मैं तुम्हारी खोज करते-करते इधर आया और मैं भी कापालिक के चंगुल में फंस गया। उसी समय देवी प्रकट हुई और बोली-"इस कापालिक ने 107 बलि दे दी, अब एक बलि बाकी है। मतिसागर की बलि देने से उसकी मनोकामना पूर्ण हो जाएगी।" भीमकुमार ने विनम्र शब्दों में देवी से कहा-"आप जगद्माता हैं आपको बलि रूप हिंसा छोड़ देनी चाहिए। भीमकुमार की प्रेरणा से देवी ने अहिंसा की शरण स्वीकार कर ली। कापालिक भी अहिंसक बन गया और भीमकुमार की शरण ग्रहण कर ली। __ भीमकुमार ने. हेमरथ को दुष्ट राक्षस से बचाया और उसकी पुत्री मदालसा से विवाह किया। उसी समय देवी कालिका प्रकट हुई और नौलखा हार देते हुए कहा-"इस हार के प्रभाव से तुम्हें त्रिखण्ड का राज्य मिलेगा। देवी ने भीमकुमार को कमलपुर पहुंचा दिया।" अंत में भीमकुमार ने मुनि क्षमासागर से चारित्र ग्रहण किया और कैवल्य-प्राप्ति के साथ मोक्ष प्राप्त किया। 8. धम्मिल्ल . कुसुमपुर नगर में सुरेन्द्रदत्त नामक सार्थवाह रहता था। उसकी पत्नी का नाम सुभद्रा था। उसके एक पुत्र उत्पन्न हुआ। उसके गर्भ में आने पर माता के मन में धार्मिक भावना की वृद्धि होने लगी अत: उसका नाम धम्मिल्ल रखा गया। कालान्तर में उसने बहत्तर कलाओं का प्रशिक्षण प्राप्त कर लिया। . यौवन आने पर माता-पिता ने उसी नगर के धनवसु सार्थवाह और धनदत्ता की पुत्री यशोमती के साथ उसका विवाह कर दिया। विवाह होने के पश्चात् भी धम्मिल्ल का मन भोग-विलास में लिप्त नहीं हुआ। रात्रि के 1. आगम 111, इस कथा का संक्षेपीकरण गुजराती में लिखित 'भीमकुमार' कथा से किया गया है। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम अङ्गुत्तरी समय भी वह पढ़ने-लिखने में व्यस्त रहता था। उसकी मां ने उसका ध्यान अध्ययन से हटाकर नव विवाहिता वधू की ओर आकृष्ट करना चाहा लेकिन वह सफल नहीं हो सकी। एक बार धम्मिल्ल की सास अपनी पुत्री से मिलने उसके ससुराल आई। उसका आदर-सत्कार किया गया। वह एकान्त में अपनी पुत्री से कुशलक्षेम पूछने लगी। पुत्री ने अपनी मां से दिल खोलकर बात की तथा पति की विरक्ति की बात बता दी। यह सुनकर वह क्रुद्ध हो गई। उसने धम्मिल्ल की मां से बात की। उसके क्रोध को देखकर धम्मिल्ल की मां कांप गई। अश्रुपूरित आंखों से उसने विश्वास दिलाया कि वह अपने पुत्र को समझाएगी। मां भी अपनी पुत्री को आश्वस्त करके चली गई। धम्मिल्ल की मां ने जब अपने पति से इस संदर्भ में बात की तो उसने कहा-'जब तक पुत्र का अध्ययन में मन लगे, यह हमारे लिए प्रसन्नता का विषय है। व्याकरण आदि नई विद्या को स्थिर करने के लिए उसका परावर्तन आवश्यक है। भोगों के प्रति आकृष्ट करने हेतु मां ने धम्मिल्ल को ललितगोष्ठी में सम्मिलित कर दिया। ललितगोष्ठी में सम्मिलित होने पर वह उद्यान, कानन आदि में आंनदपूर्वक समय बिताने लगा। धम्मिल्ल एक बार राजा के यहां बसन्तसेना गणिका की पुत्री बसन्ततिलका के प्रथम नृत्य को देखने गया। वह उसमें आसक्त हो गया। वह गणिका के यहां गया और वहीं रहने लगा। उसके माता-पिता प्रतिदिन पांच सौ मुद्राएं बसन्तसेना वेश्या के यहां भेजते थे। धीरे-धीरे उनकी पूर्वार्जित सम्पदा क्षीण होने लगी। यशोमती घर को बेचकर अपने पीहर आ गई। उसने अपने सारे आभूषणों को गणिका के घर भेज दिया था। जब बसन्तसेना ने आभूषण देखे तो उसने दासी से पूछा-'ये आभूषण किसने भेजे हैं ?' दासी ने कहा-'ये धम्मिल्ल की पत्नी ने भेजे हैं।' वेश्या ने सोच लिया कि अब उसके पास इतना ही धन है। बसन्तसेना ने अपनी पुत्री बसन्ततिलका से कहा कि अब Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 2 : कथाएं धम्मिल्ल के घर में वैभव समाप्त हो गया है अत: इसके साथ हमारा सम्बन्ध उचित नहीं है। पुत्री ने कहा-'मुझे धन से कोई मतलब नहीं है। मैं उसके गुणों से प्रभावित हूं। यदि मुझे जीवित देखना चाहती हो तो भविष्य में आप धम्मिल्ल के सम्बन्ध में कुछ मत कहना। उसके वियोग में मेरा जीना असंभव है। गणिका ने अपनी पुत्री को विविध उपायों से समझाना चाहा लेकिन वह उसके विचारों को नहीं बदल सकी। बसन्तसेना ने अपनी मां से कहा-'आप कृतघ्न हैं। जब तक उसके यहां से धन मिल रहा था, तब तक ठीक था। अब वैभव क्षीण होने पर वह आपको अच्छा नहीं लग रहा है।" बसन्तसेना ने सोचा कि मेरी पुत्री इसमें अत्यन्त आसक्त है अतः और कोई उपाय करना चाहिए। एक दिन गणिका ने बसन्ततिलका की सभी सखियों एवं परिजनों को बुलाया। धम्मिल्ल भी सब अलंकारों से विभूषित होकर वहां उपस्थित हुआ। बसन्ततिलका एवं उसकी सखियों के साथ धम्मिल्ल ने अत्यधिक शराब पी ली। शराब की अधिकता से वह मूर्च्छित हो गया। बसन्तसेना ने उसको एक वस्त्र में बांधकर गांव से दूर छुड़वा दिया। प्रात:काल की शीतल हवा से उसमें चेतना आई / उसका मन ग्लानि से भर गया। वह वहां से उठा और लोगों से पूछते-पूछते अपने घर पहुंच गया। वहां उसने द्वारपाल से पूछा-'यह किसका घर है?' द्वारपाल ने पूछा-'आपको किस घर से प्रयोजन है?' उसने कहा-'धम्मिल्ल के घर से।' द्वारपाल बोला-'धम्मिल्ल के मां और पिता शोक से मर गए। पत्नी . पीहर चली गई और धम्मिल्ल गणिका के घर में है। उसका सारा वैभव क्षीण हो गया है।' यह सुनकर धम्मिल्ल वजाहत सा पृथ्वीतल पर गिर गया। कुछ देर बाद उठकर उसने सोचा-'माता-पिता के वियोग होने पर तथा वैभव के क्षीण होने पर अब जीने का क्या लाभ? वह वहां से उठकर नगर के बाहर चला गया। प्राणत्याग हेतु उसने अनेक उपाय किए लेकिन वह सफल नहीं हो सका। __ इधर दूसरे दिन बसन्ततिलका जब उठी तो उसने धम्मिल्ल को Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 52 आगम अद्भुत्तरी नहीं देखा। उसने अपनी मां से पूछा-'धम्मिल्ल कहां है?' मां ने कहा- . 'मुझे ज्ञात नहीं कि वह कहां गया है?' बसन्ततिलका ने जान लिया कि उसकी मां ने इसीलिए उत्सव का आयोजन करके सखियों को बुलाया था। उसने प्रतिज्ञा करते हुए कहा-'यह मेरा वेणीबंध मेरा प्रिय धम्मिल्ल ही खोलेगा। ऐसा कहकर उसने सारे आभूषण उतार दिए तथा जीर्ण-शीर्ण वस्त्र धारण करके शरीर धारण हेतु अत्यल्प आहार से जीवन व्यतीत करने लगी। प्रिय विरह में वह अत्यन्त दुर्बल हो गई। धम्मिल्ल वहां से उठकर किसी जीर्ण उद्यान में घूमने लगा। वहां उसे अगड़दत्त मुनि के दर्शन हुए। उन्होंने उसे कहा-'धम्मिल्ल! तुम अज्ञानी व्यक्ति की भांति आत्मघात का प्रयत्न क्यों कर रहे हो? धम्मिल्ल बोला-'मैंने पूर्वभव में धर्म नहीं किया इसलिए मुझे इतना दुःख भोगना पड़ा। अगड़दत्त मुनि ने कहा- मैंने भी अपने जीवन में अनेक दुःख देखे हैं। मैं स्वयं उन दुःखों का निग्रह करने में समर्थ हूं, मुझे अपना दुःख कहो।' धम्मिल्ल ने अपना सारा घटना प्रसंग सुनाया और कहा–'मेरे माता-पिता तथा वैभव आदि सबका वियोग हो गया। अब कोई ऐसा उपाय बताएं, जिससे मैं पुनः वैभव प्राप्त कर सकू। अगड़दत्त मुनि ने विद्या की साधना तथा उपवास आदि तपविधि के बारे में बताया। साथ ही यह भी कहा कि जो छह मास तक आयम्बिल तप कर लेता है, उसे ऐहलौकिक इच्छित फल की प्राप्ति हो जाती है। धम्मिल्ल ने कुछ समय के लिए द्रव्यलिंग ग्रहण किया। प्रासुक आहार-पानी के द्वारा आयम्बिल तप प्रारम्भ कर दिया। तप करते हुए उसके छह मास बीत गए। उसके बाद अगड़दत्त मुनि को प्रणाम करके वह वहां से निकला। रास्ते में उसने भूतगृह में विश्राम किया। तपस्या से क्लान्त शरीर होने के कारण उसे नींद आ गई। देवता ने कहा-'धम्मिल्ल तुम आश्वस्त हो जाओ। श्रेष्ठ बत्तीस कन्याओं के साथ तुम्हारा विवाह होगा।' कालान्तर में अनेक कुल कन्याओं के साथ उसका विवाह हुआ। अंत में धर्मरुचि अनगार के पास अपने पूर्वभव को सुनकर वह Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 53 परिशिष्ट 2 : कथाएं विरक्त हो गया और उन्हीं के पास दीक्षित हो गया। दीक्षित होकर अनेक वर्ष श्रामण्य पर्याय का पालन करके वह अच्युत कल्प देवलोक में बावीस सागरोपम स्थिति वाला देव बना। 9. दामनक . राजगृह नगरी में एक सेठ के दामनक नामक पुत्र था। जब दामनक आठ वर्ष का हुआ, तब परिवार में महामारी का प्रकोप हो गया। महामारी के भय से पड़ोसी लोगों ने घर के चारों ओर तीखी कांटों की बाड़ लगा दी। घर का कोई सदस्य बाहर नहीं निकल सका। आठ वर्षीय बालक दामनक किसी प्रकार बच गया। वह भीख मांगकर जीवन बिताने लगा। सेठ सागरदत्त ने अनाथ समझकर उसे अपने घर रख लिया। वह सेठ के यहां परिश्रम से काम करने लगा। सेठ भी उसकी लगन और ईमानदारी से बहुत खुश था। एक बार सेठ के यहां पर दो साधु भिक्षार्थ आए। वृद्ध साधु ने दामनक की ओर संकेत करते हुए कहा कि इस बालक की तकदीर शीघ्र ही बदलने वाली है। कुछ ही दिनों में यह इस घर का मालिक बन जाएगा। साधु के कथन को सेठ ने सुन लिया। सेठ ने सोचा कि जब मेरा पुत्र सभी दृष्टियों से सक्षम है तो यह घर का मालिक क्यों बनेगा? इस बाधा को यहीं समाप्त कर देना चाहिए। सेठ ने चाण्डाल को धन का प्रलोभन देकर दामनक के वध का आदेश देते हुए कहा कि उसकी आंखें निकालकर मुझे दे देना। उसके भोले मुख पर अहिंसा के भाव देखकर चाण्डाल का मन द्रवित हो गया। उसने उसे वहां से दूसरे नगर जाने को कहा और - स्वयं हरिणी के बच्चे की आंखें निकालकर ले गया। दामनक वन में चलता हुआ एक गांव के पास पहुंचा। वहां एक गोपालक ने उसे अपने पास रख लिया। वह वहां गाएं चराते हुए आनंद से रहने लगा। 1. आगम 112, कथा के विस्तार हेतु देखें वसुदेवहिंडी पृ. 27-36 / Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54 आगम अद्दुत्तरी कालान्तर में वह यौवन को प्राप्त हो गया। एक बार सेठ गोपालकों के गांव में आया। दामनक को देखकर उसने उसके बारे में पूछा। सेठ सागरदत्त समझ गया कि चाण्डाल ने इसे जीवित छोड़ दिया है। सेठ ने उसे मारने का अन्य उपाय खोजा। सेठ ने गोपालक से कहा- "इस पत्र को युवक के साथ मेरे घर भिजवा दो, यह गोपनीय पत्र है। यह युवक विश्वासी प्रतीत होता है अतः यह उपयुक्त रहेगा।" दामनक पत्र लेकर चल दिया। नगर के बाहर उद्यान में एक देव मंदिर था। थकान मिटाने हेतु वह वहां लेट गया। ठंडी हवा में उसे गहरी नींद आ गई। उसी समय सेठ सागरदत्त की पुत्री देवपूजन के लिए वहां आई। उसका नाम विषा था। वह दामनक को देखकर उस पर मोहित हो गई। दामनक के पास पड़े पत्र को उसने कुतूहलवश उठा लिया। उसने देखा कि यह पत्र उसके भाई के नाम है तथा उसमें युवक के बारे में लिखा है कि स्वागत-सत्कार करके युवक को तुरन्त विष दे देना, इस कार्य में भूल या असावधानी न हो। विषा दामनक पर पूर्णतया मोहित हो चुकी थी अतः उसने पास पड़े तिनके से आंख में लगाए काजल सै विष के स्थान पर विषा कर दिया और पत्र को वहीं रखकर चल दी। दामनक ने सेठ सागरदत्त के पुत्र को वह पत्र दे दिया। पत्र पढ़कर उसके पुत्र ने दामनक को भलीभांति देखा। उसके व्यक्तित्व को देखकर उसने मन ही मन पिता के निर्णय की सराहना की। उसने सम्बन्धियों को प्रीतिभोज देकर सबकी साक्षी से दामनक का विवाह विषा के साथ कर दिया। सेठ सागरदत्त जब लौटकर आया और दामनक को जमाता के रूप में देखा तो वह फिर उसको मारने का षडयंत्र करने लगा। एक बार दामनक अपने मित्र के साथ नाटक देखने गया। दामनक Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 2 : कथाएं का मन नाटक में नहीं लगा अतः घर के बाहर पुरानी खाट पर सो गया। खटमल के कारण उसको नींद नहीं आई। दामनक ने सोचा'इससे अच्छा तो यही है कि पुनः नाटक देखने जाऊं और मित्र के यहीं सो जाऊं।' इधर नाटक समाप्त होने पर सागरदत्त का पुत्र उसी खाट पर सो गया। भ्रमवश सेवकों ने उसको दामनक समझकर तलवार के प्रहार से मौत के घाट उतार दिया। प्रातः जब रहस्य खुला तो सागरदत्त को बहुत दुःख हुआ। शोक समाप्त होने पर सेठ ने साधु की वाणी को सत्य जानकर उसको अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति का मालिक बना दिया। 10. अगड़दत्त / - उज्जयिनी नगरी में जितशत्रु राजा राज्य करता था। उसके सारथी का नाम अमोघरथ था। अमोघरथ की पत्नी का नाम यशोमती तथा पुत्र का नाम, अगड़दत्त था। अगड़दत्त के पिता छोटी उम्र में ही दिवंगत हो गए। वह दृढप्रहारी के पास रथ चलाने की विद्या सीखने लगा। शिक्षा प्राप्त करके जब वह राजा से मिला तो राजा ने कहा-"तुम्हारी शिक्षा हिंसा प्रधान है, वास्तविक शिक्षा तो महाव्रतों का पालन है।" उसी समय नागरिकों ने राजा के पास आकर प्रार्थना की-"एक चोर से पूरा नगर पीड़ित है। कृपा करके हमें उसके आतंक से मुक्त कराएं।" अगड़दत्त ने राजा के समक्ष चोर को पकड़ने का प्रण किया। उसने चोर को पकड़कर गुप्त स्थान में रखे धन को नागरिकों के यहां वितरित करवा दिया। - अगड़दत्त का विवाह कौशाम्बी निवासी यक्षदत्त की पुत्री श्यामदत्ता के साथ हुआ। विवाह करके वह कौशाम्बी से उज्जयिनी जा रहा था। मार्ग में उसे एक सार्थ मिला, वह भी सार्थ के साथ चलने लगा। उस सार्थ में एक धूर्त परिव्राजक भी था। अगड़दत्त 1. आगम 112 / / Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम अङ्गुत्तरी उसकी चेष्टाओं से समझ गया कि यह परिव्राजक के वेश में ठग है। मार्ग में परिव्राजक ने सबको विषमिश्रित खीर खिला दी, जिससे सभी कालकवलित हो गए। सावधानी के कारण अगड़दत्त और श्यामदत्ता बच गए। अगड़दत्त के साथ संघर्ष करने में परिव्राजक भी मृत्यु को प्राप्त हो गया। मार्गगत अनेक कठिनाइयों को पार करके अगड़दत्त उज्जयिनी नगरी पहुंचा। वह राजा की सेवा करते हुए सुखपूर्वक समय व्यतीत करने लगा। ___ एक बार राजाज्ञा से उद्यान में उत्सव मनाया गया। उस उत्सव में अगड़दत्त भी अपनी पत्नी के साथ सम्मिलित हुआ। वहां श्यामदत्ता को सर्प ने डस लिया, वह मूर्च्छित हो गई। वह पत्नी के शव के पास बैठकर आंसू बहाता रहा। उसी समय दो विद्याधर आकाशमार्ग से गुजरे। उन्हें अगड़दत्त पर करुणा आई। उन्होंने विद्याबल से श्यामदत्ता को निर्विष कर दिया। आधी से अधिक रात व्यतीत होने के कारण अगड़दत्त ने शेष रात्रि उद्यान में बने देवकुल में व्यतीत करने का निर्णय किया। शीत से बचने के लिए वह श्मशान में अंगारे लेने चला गया। जब अगड़दत्त वापस लौटा तो उसे देवकुल में प्रकाश दिखाई दिया। उसने पत्नी से इस संदर्भ में पूछा तो उसने कहा कि आपके हाथ की अग्नि की परछाई होगी। अगड़दत्त ने उस पर विश्वास कर लिया और प्रातः दोनों अपने घर लौट गए। एक दिन अगड़दत्त के यहां दो मुनि भिक्षार्थ आए। उसने उन्हें आहार का दान दिया। पुनः दो मुनि आए। कुछ समय बाद तीसरा युगल आया। अगड़दत्त उद्यान में पहुंचा और पूछा-'आप छहों समान रूप वाले हैं, इतनी छोटी उम्र में आपको वैराग्य कैसे हुआ?' मुनियों ने कहा-'विन्ध्याचल के पास अमृतसुंदरा नामक एक चोरपल्ली है, वहां अर्जुन नामक चोर सेनापति था। एक युवक अपनी पत्नी Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 2 : कथाएं 57 के साथ वहां से गुजरा। उसने हमारे भाई चोर सेनापति को मार दिया। हम छहों उसका पता लगाने हेतु उज्जयिनी आ गए। एक बार उद्यान उत्सव में उसकी पत्नी सर्प काटने से मूर्च्छित हो गई। विद्याधरों ने उसको ठीक कर दिया। जब वह अंगारे लेने गया तो प्रतिशोध के कारण बदला लेने के लिए छोटे भाई को मारने का दायित्व देकर हम वहीं छिप गए। भाई ने दोनों को मारने की धमकी दी। उसकी पत्नी ने कहा-“मैं स्वयं अपने पति को मार दूंगी पर मुझे मत मारो।" हमारा छोटा भाई आश्वस्त हो गया। वह दीपक को ढ़क भी नहीं पाया था कि वह युवक आ गया। वह युवक तलवार अपनी पत्नी के हाथ में देकर आग सुलगाने लगा। पत्नी ने मारने हेतु तलवार उठाई लेकिन हमारे छोटे भाई के हृदय में करुणा उत्पन्न हो गई। उसने तलवार वाले हाथ पर प्रहार किया। तलवार हाथ से छूटकर दूर गिर गई। युवक के पूछने पर उसने बहाना बनाया कि घबराहट में तलवार हाथ से छूट गई। स्त्री स्वभाव की इस कुटिलता से हमें वैराग्य हो गया और हमने दृढ़चित्त अनगार के पास दीक्षा ग्रहण कर ली। ... अगड़दत्त अपने ही जीवन के घटना प्रसंग को सुनकर पत्नी के विश्वासघात को जानकर विरक्त हो गया। उसने मुनियों को कहा कि आपके भाई का घात करने वाला मैं ही हूं। अब आप मुझे .संसार-सागर को पार करने हेतु प्रव्रजित करें। वह वहीं उन मुनियों के पास दीक्षित हो गया। 11. दमदन्त अनगार हस्तिशीर्ष नगर में दमदन्त नामक राजा राज्य करता था। हस्तिनापुर नगर में पांच पांडव रहते थे। दोनों में परस्पर वैर था। एक बार महाराज दमदंत राजगृह में जरासंध के पास गए हुए थे। पांडवों ने उसके राज्य को 1. आगम 112, विस्तार हेतु देखें वसुदेवहिंडी पृ. 35-48 / Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58 आगम अद्दुत्तरी लूट लिया और उसे जला डाला। जब दमदंत वापिस आया तो उसने हस्तिनापुर पर चढ़ाई कर दी। दमदंत के भय से कोई नगर से बाहर नहीं आया। दमदंत ने कहा-'शृगालों की भांति शून्य स्थानों में जहां घूमना हो, वहां इच्छानुसार घूमो। जब मैं जरासंध के पास गया था, तब तुमने मेरे देश को लूटा था, अब बाहर निकलो।' जब हस्तिनापुर से कोई बाहर नहीं निकला, तब महाराज दमदंत अपने देश चले गए। कालान्तर में वे कामभोगों से विरक्त हुए और प्रव्रजित हो गए। एक बार एकलविहार प्रतिमा को स्वीकार कर वे विहार करते हुए हस्तिनापुर आए और गांव के बाहर प्रतिमा में स्थित हो गए। अनुयात्रा के लिए निर्गत युधिष्ठिर ने आकर वंदना की। शेष चारों पांडवों ने भी मुनि को वंदना की। इतने में ही दुर्योधन वहां आ गया। उसके साथियों ने उसे कहा'यही वह दमदंत है।' दुर्योधन ने उसे बिजौरे के फल से आहत किया। उसके पीछे जो सेना आ रही थी, सबने एक-एक पत्थर मुनि की ओर फेंका। देखते-देखते मुनि पत्थर की राशि से ढ़क गए। लौटते समय युधिष्ठिर ने पूछा-'यहां एक मुनि प्रतिमा में स्थित थे। वे कहां हैं ?' लोग बोले-'इस पत्थर-राशि के पीछे मुनि हैं और ये पत्थर दुर्योधन के कारण फेंके गए हैं।' युधिष्ठिर ने दुर्योधन को फटकारा और पत्थरों को हटाया। युधिष्ठिर ने मुनि का तैल से अभ्यंगन किया और क्षमायाचना की। मुनि दमदंत का दुर्योधन तथा पांडवों के प्रति समभाव था। 12. मुनिपति सुव्रता नगरी में मुनिपति नामक न्यायप्रिय राजा राज्य करता था। उसकी रानी का नाम पृथ्वी तथा राजकुमार का नाम मणिभद्र था। एक बार 1. (क) आगम 112, विस्तार हेतु देखें आवनि 565, आवचू 1 पृ. 492, आवहाटी 1 पृ. 243, 244, आवमटी प. 475 / (ख) मरणविभक्ति प्रकीर्णक (443) में दमदन्त महर्षि के सम्बन्ध में निम्न गाथा मिलती हैजह दमदंत महेसी, पंडव-कोरवमुणी थुय-गरहिओ . आसि समो दोण्हं पि हु, एव समा होह सव्वत्थ / / Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 2 : कथाएं रानी अपने पति के बालों को संवार रही थी। उसके सिर पर सफेद बाल देखकर उसने कहा-'राजन्! चोर आ गया है?' राजा ने विस्मय से चारों ओर देखा लेकिन उसको कोई दिखाई नहीं दिया। राजा ने पूछा-'कहां है चोर?' तब रानी ने सिर का सफेद बाल उखाड़कर दिखलाया। इस घटना से राजा विरक्त हो गया। उसने पुत्र को राज्य का भार सौंपकर स्वयं संन्यास ग्रहण कर लिया। दीक्षित होकर वे प्रतिमाधारी बनकर एकाकी विचरण करने लगे। एक बार वे उज्जयिनी नगरी की क्षिप्रा नदी के किनारे कायोत्सर्ग कर रहे थे। उनको वस्त्र रहित देखकर ग्वालों को करुणा आ गई। ग्वालों ने अपने कपड़ों से मुनि के शरीर को वेष्टित कर दिया। उसी नगरी में एक तिलभट्ट नामक ब्राह्मण रहता था। वह स्वभाव से अत्यन्त भद्र था लेकिन उसकी पत्नी धनश्री कुटिला और भ्रष्ट आचरण वाली थी। ब्राह्मण तिल का क्रयविक्रय करता था। ब्राह्मण ने भावी लाभ के लिए एक कोष्ठक में तिलों का संग्रह लिया। उसकी पत्नी ने उसे बेचकर विलासिता में धन का अपव्यय कर दिया। धीरे-धीरे सारे तिल समाप्त हो गए। ब्राह्मणी ने सोचा कि ब्राह्मण जब तिल के बारे में पूछेगा तो मैं क्या उत्तर दूंगी? .... एक बार ब्राह्मण कार्यवश बाहर गया हुआ था। उस दिन कृष्णा चतुर्दशी थी। उसने शरीर को पंखों से ढ़ककर मुंह को काला कर लिया। एक हाथ में जलते हुए अंगारों से भरा शराव और दूसरे हाथ में खप्पर और कटार ले ली। अपने केशों को चारों ओर फैला दिया। जिह्वा को बाहर निकालकर वह जंगल से आते हुए तिलभट्ट के पास गई और बोली"तिलभट्ट को खाऊं या तिलों के ढेर को?" तिलभट्ट भयभीत होकर बोला-"देवी! आप कृपा करके मुझे छोड़ दें, सारे तिलों का आप भक्षण कर लें।" - ब्राह्मणी ने अपने मूल कपड़े जहां उतारे थे, वह वहां आई। वहां * प्रज्वलित चिता के प्रकाश में मुनिपति मुनि को ध्यानस्थ देखकर घबरा गई। उसने सोचा कि कहीं मुनि मेरी बात लोगों को न कह दे, यह सोचकर उसने Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम अद्भुत्तरी एक चिनगारी मुनि की ओर फेंकी। ग्वालों द्वारा परिवेष्टित वस्त्रों ने वह आग पकड़ ली। इधर वह भयभीत ब्राह्मण अपने घर पहुंचा और डरते-डरते पत्नी को सारी बात बताई। भय के कारण उसी रात्रि में उसकी मृत्यु हो गई। संवेरे जब ग्वालों ने मुनि को अर्धनग्न अवस्था में देखा तो उनको बहुत पश्चात्ताप हुआ। सभी ग्वाले कुंचिक श्रेष्ठी के पास गए और सारा घटना प्रसंग बताया। नगर में स्थित अन्य साधु अतुंकारीभट्टा के यहां से लक्षपाक तैल लाए और मुनि का उपचार किया। सम्यक् उपचार से मुनि स्वस्थ हो गए। कुंचिक सेठ ने मुनिपति साधु का चातुर्मास करवाया। सेठ ने पुत्र से छिपाकर कुछ धन उपाश्रय में रख दिया। सेठ के पुत्र ने चोरी से वह धन ग्रहण कर लिया। सेठ ने मुनिपति साधु को कहा-"आप कृतघ्न हैं, मेरे घर में आश्रय लेकर आपने मेरे धन को चुरा लिया। मुनि ने कहा–'मैं निर्दोष हूं लेकिन सेठ को मुनि की बात पर विश्वास नहीं हुआ।' जिनशासन में आए कलंक को देखकर मुनि को आवेश आया और उनके मुख से धुंआ निकलने लगा। सेठ का पुत्र भयभीत हो गया। भावी की आशंका से उसने अपनी गलती स्वीकार कर ली। वास्तविकता का ज्ञान होने पर सेठ ने भी मुनि से * क्षमायाचना की। कुंचिक सेठ इस घटना से विरक्त होकर दीक्षित हो गया। मुनिपति समाधिमरण प्राप्त करके देवलोक में गए। बाद में महाविदेह क्षेत्र से सिद्ध, बुद्ध और मुक्त होंगे। 13. मुनि मेतार्य साकेत नगर का राजा चन्द्रावतंसक था। उसकी दो पत्नियां थींसुदर्शना और प्रियदर्शना। सुदर्शना के दो पुत्र थे-सागरचन्द्र और मुनिचन्द्र। प्रियदर्शना के भी दो पुत्र थे-गुणचन्द्र और बालचन्द्र / सागरचन्द्र को युवराज 1. आगम 112 / 2. चूर्णि के अनुसार रानी का नाम धारिणी था, जिसके दो पुत्र थे-गुणचन्द्र और मुनिचन्द्र। गुणचन्द्र युवराज था, मुनिचन्द्र के पास उज्जयिनी का आधिपत्य था। एक अन्य रानी से राजा के दो पुत्र थे। (आवचू. 1 पृ. 492) , Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 2 : कथाएं बनायां और मुनिचन्द्र को उज्जयिनी नगरी का आधिपत्य दिया। एक बार महाराज चन्द्रावतंसक माघ महीने में अपने वासगृह में प्रतिमा में स्थित हुए। उन्होंने यह संकल्प किया कि जब तक दीपक जलता रहेगा, मैं प्रतिमा में स्थित रहूंगा। शय्यापालिका ने सोचा-'अंधेरे में राजा को कष्ट होगा इसलिए दूसरे प्रहर में बुझते दीपक में उसने तैल डाल दिया।' वह आधी रात तक जलता रहा। उसने आकर पुन: उस दीपक में तैल डाल दिया, जिससे रात्रि के तीसरे प्रहर तक वह दीपक जलता रहा। अंतिम प्रहर में भी दीपक में तैल डाला, जिससे वह. प्रभातकाल तक जलता रहा। राजा बहुत सुकुमार 'था। वेदना से अभिभूत होकर वह.प्रभात बेला में दिवंगत हो गया। उसके बाद सागरचन्द्र राजा बना। एक दिन उसने अपनी माता की सौत से कहा-'तुम्हारे दोनों पुत्रों के लिए मेरा यह राज्य ले लो, मैं प्रव्रजित होऊंगा।' मुझे इससे राज्य प्राप्त हुआ है, यह सोचकर उसने राज्य लेना नहीं चाहा। कालान्तर में सागरचन्द्र को राज्य-लक्ष्मी से सुशोभित देखकर उसने सोचा-'यह मेरे पुत्रों के लिए राज्य दे रहा था परन्तु मैंने नहीं लिया। यदि मैं राज्य ले लेती तो मेरे पुत्र भी इसी प्रकार सुशोभित होते। अभी भी मैं इसको मार डालूं तो राज्य प्राप्त हो सकता है।' यह सोचकर वह इसके लिए अवसर देखने लगी। एक दिन सागरचन्द्र भूख से आकुल था। उसने रसोइये को आदेश दिया कि पौर्वाह्निक भोजन वहीं भेज देना, मैं सभागृह में भोजन करूंगा। रसोइये ने सिंहकेशरी मोदक बनाकर दासी के हाथ भेजे। प्रियदर्शना ने यह देख लिया। उसने दासी से कहा-'मोदक इधर लाओ। मैं इसे देखू तो सही।' दासी ने उसे वह मोदक दिखाया। प्रियदर्शना ने पहले से ही अपने दोनों हाथ विषलिप्त कर रखे थे। मोदक का स्पर्श कर उसे विषमय बना डाला। वह दासी से बोली-'अहो! सुरभिमय मोदक हैं, इसे ले जाओ। उसने दासी को मोदक दे दिया। दासी ने वह मोदक राजा को अर्पित कर दिया। उस समय दोनों कुमार गुणचन्द्र और बालचन्द्र राजा के पास ही बैठे Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम अद्दुत्तरी थे। राजा ने सोचा-'ये दोनों कुमार भी भूखे हैं, मैं अकेला इन्हें कैसे खाऊ?' उस मोदक के दो भाग कर दोनों को एक-एक भाग दे दिया। दोनों . उस मोदक को खाने लगे। तत्काल विष का वेग बढ़ा। वह उनके मुंह पर प्रतीत होने लगा। राजा ने हड़बड़ाकर वैद्यों को बुलाया। वैद्यों ने आकर राजकुमारों को स्वर्ण पिलाया। दोनों स्वस्थ हो गए। राजा ने दासी को बुलाकर सारी बात पूछी। दासी बोली-'किसी ने इस मोदक को नहीं देखा, केवल इन कुमारों की माता ने इसका स्पर्श किया था। राजा ने प्रियदर्शना को बुलाकर कहा-'पापिनी ! मैंने राज्य देना चाहा, तब तुमने नहीं लिया। अब तुम मुझे मारकर राज्य लेने का प्रयत्न कर रही हो। तुम्हारे प्रयत्न से तो मैं बिना कुछ परलोक का संबल लिए ही परलोकगामी बन जाता।' यह सोच, दोनों भाइयों को राज्य देकर राजा सागरचन्द्र प्रव्रजित हो गया। . __एक बार उज्जयिनी से साधुओं का एक संघाटक वहां आया। प्रव्रजित राजा सागरचन्द्र ने पूछा- वहां कोई उपद्रव तो नहीं है?' उन्होंने कहा-'वहां राजपुत्र और पुरोहितपुत्र दोनों साधुओं को बाधित करते हैं।' वह कुपित होकर उज्जयिनी गया। वहां के मुनियों ने उसका आदर-सत्कार किया। वे सांभोगिक मुनि थे अतः भिक्षावेला में उन्होंने कहा-'सबके लिए भक्त-पान ले आना।' उसने कहा-'मैं आत्मलब्धिक हूं, आप मुझे स्थापनाकुल बताएं।' उन्होंने एक शिष्य को साथ में भेजा। वह उसे पुरोहित का घर दिखाकर लौट आया। वह वहां अंदर जाकर ऊंचे शब्दों में धर्मलाभ देने लगा। यह सुनकर भीतर से स्त्रियां हाहाकार करती हुई बाहर आईं। मुनि जोर से बोला-'क्या यह श्राविकाओं के लक्षण हैं?' इतने में ही राजपुत्र और पुरोहितपुत्र-दोनों ने बाहर जाकर रास्ता रोक दिया और दोनों बोले'भगवन् ! आप नृत्य करें।' वह पात्रों को रखकर नाचने लगा। वे बजाना नहीं जानते थे। उन्होंने कहा-'युद्ध करें।' वे दोनों एक साथ सामने आए। मुनि ने उनके मर्मस्थान पर प्रहार किया। उनकी अस्थियां ढ़ीली हो गईं। उनको छोड़कर मुनि द्वार को खोलकर बाहर चले गए। राजा के पास शिकायत Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 2 : कथाएं 63 पहुंची। राजा ने साधुओं को बुलाया। उन्होंने कहा-'हमारे यहां एक अतिथि मुनि आया था। हम नहीं जानते, वह कहां है?' उसकी खोज की गई। साधु उद्यान में था। राजा वहां गया और क्षमायाचना की। वह उन दोनों को मुक्त करना नहीं चाहता था। साधु बोला-'यदि दोनों प्रव्रजित हों तो मुक्त कर सकता हूं।' दोनों को पूछा गया तो उन्होंने प्रव्रजित होना स्वीकार कर लिया। उनकी सारी अस्थियां अपने-अपने स्थान पर स्थित हो गईं। साधु ने लोच करके दोनों को प्रव्रजित कर लिया। राजपुत्र ने सोचा-'मेरे पितृव्य ने ठीक ही किया है।' लेकिन पुरोहित पुत्र साधु से जुगुप्सा करने लगा। वह सोचता था कि मुनि ने कपट से मुझे प्रव्रजित किया है। वे दोनों मरकर देवलोक में उत्पन्न हुए। दोनों ने यह संकेत दिया कि जो देवलोक से पहले च्युत हो, वह दूसरे को प्रतिबोध दे। . पुरोहित पुत्र का जीव देवलोक से च्युत होकर जुगुप्सा के कारण राजगृह नगर में एक मातंगी के गर्भ में आया। उस मातंगी की सखी एक सेठानी थी। उनके सखित्व का एक कारण था कि वह मातंगी मांस बेचती थी। एक दिन सेठानी ने उससे कहा-'मांस बेचने के लिए अन्यत्र मत घूमना। सारा मांस मैं खरीद लूंगी।' मातंगी प्रतिदिन मांस लाती। दोनों में घनिष्ठ प्रीति हो गई। वह सेठानी निन्दु-मृतप्रसवा थी। उसने मृतपुत्री का प्रसव किया। तब मातंगी ने एकांत में सेठानी को अपना पुत्र दे दिया और उसकी मृतपुत्री को ले लिया। वह सेठानी मातंगी के पैरों में उस बालक को .लुठाती और कहती कि यह तुम्हारे प्रभाव से जी सके। उसका नाम मेतार्य रखा गया। वह बढ़ने लगा। उसने अनेक कलाएं सीखीं। उसके मित्र देव ने उसे प्रतिबोध दिया परन्तु वह प्रतिबोधित नहीं हुआ। तब माता-पिता ने एक ही दिन में आठ कन्याओं के साथ उसका पाणिग्रहण कर दिया। नगर में वह शिविका में घूमने लगा। इधर वह मित्र देवता मातंग के शरीर में प्रविष्ट हुआ और रोने लगा। मातंग के शरीर में स्थित देव बोला-'यदि मेरी पुत्री जीवित होती तो आज Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम अद्भुत्तरी मैं भी उसका विवाह इसके साथ करके प्रसन्न होता और मातंगों को भोजन कराता।' तब उस मातंगी ने आकर सारा यथार्थ वृत्तान्त बताया। यह सुनते ही वह मातंग रुष्ट हो गया और देवता के प्रभाव से उस शिविका में बैठे मातंग को नीचे गड्ढे में गिराते हुए बोला-'तुम असदृश कन्याओं के साथ परिणय रचा रहे हो।' मेतार्य बोला-'कैसे?' वह बोला-'तुम अवर्ण हो।' मेतार्य बोला-'कुछ समय के लिए मुझे मुक्त कर दो। मैं बारह वर्ष तक घर में और रहूंगा।' देव बोला-'फिर मैं तुम्हारे लिए क्या करूं?' मेतार्य ने कहा-'तुम मुझे राजा की कन्या दिला दो।' इससे सारी बातें स्पष्ट हो जायेंगी और मलिनता धुल जाएगी। देवता ने उसे एक बकरा दिया। वह मींगनियों के बदले रत्नों का विसर्जन करता था। उससे रत्नों का थाल भर गया। मेतार्य ने पिता से कहा-'रत्नों का थाल ले जाकर राजा से उनकी बेटी मांगो।' पिता ने राजा को रत्नों का थाल भेंट किया। राजा ने पूछा- क्या चाहते हो?' वह बोला-'आपकी पुत्री मेरे पुत्र के लिए चाहता हूं।' राजा ने उसे तिरस्कृत करके बाहर निकाल दिया। वह प्रतिदिन रत्नों से भरा थाल ले जाता परन्तु राजा उसे बेटी देने को तैयार नहीं हुआ। एक दिन अभयकुमार ने पूछा-'इतने रत्न कहां से लाते हो?' वह बोला-'मेरा बकरा प्रतिदिन रत्नों का व्युत्सर्ग करता है।' अभय बोला'हमें भी वह बकरा दिखाओ।' वह बकरे को लेकर आया। उसने वहां अत्यंत दुर्गन्ध युक्त मल का व्युत्सर्ग किया। अभय बोला-'यह देवता का प्रभाव है अतः परीक्षा करनी चाहिए।' अभय ने मातङ्ग से कहा-'महाराज श्रेणिक भगवान् को वंदना करने वैभार पर्वत पर जाते हैं परन्तु मार्ग बड़ा कष्टप्रद है इसलिए रथमार्ग का निर्माण करो।' उसने रथमार्ग का निर्माण कर दिया, जो आज तक विद्यमान है। अभय ने कहा-'स्वर्णमय प्राकार बना दो!' उसने वैसा ही कर डाला। अभय फिर बोला-'यदि यहां समुद्र को लाकर उसमें स्नान कर शुद्ध हो जाओ तो बेटी दे देंगे।' वह समुद्र ले आया और उसमें स्नान कर शुद्ध हो गया। राजा ने शिविका में घूमते हुए उसका विवाह अपनी बेटी के साथ कर दिया। सभी विवाहित कन्याएं भी वहां आ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 2 : कथाएं गईं। इस प्रकार बारह वर्ष तक वह भोग भोगता रहा। देवता ने उसे फिर प्रतिबोधित किया। तब महिलाओं ने बारह वर्षों की मांग की। उनकी मांग पूरी की। फिर चौबीस वर्षों के पश्चात् सभी प्रव्रजित हो गए। मेतार्य नौ पूर्वो का अध्येता बन गया। वह एकलविहार प्रतिमा स्वीकार कर राजगृह में घूमने लगा। एक दिन वह एक स्वर्णकार के घर में गया। वह स्वर्णकार महाराज श्रेणिक के लिए स्वर्ण के आठ सौ यव बना रहा था। श्रेणिक चैत्य की अर्चना त्रिसंध्या में करता था इसलिए यवों का निर्माण हो रहा था। मुनि उस स्वर्णकार के घर गए। एक बार कहने पर उन्हें भिक्षा नहीं मिली। वे वहां से लौट गए। स्वर्णकार के यव एक क्रोंच पक्षी ने निगल लिए। स्वर्णकार ने आकर देखा तो उसे यव नहीं मिले। राजा की चैत्य-अर्चनिका की वेला आ गई। स्वर्णकार ने सोचा-'आज मेरी हड्डी-पसली तोड़ दी जाएगी।' स्वर्णकार ने साधु को शंका की दृष्टि से देखा। उसे यवों के विषय में पूछा पर मुनि मौन रहे। तब स्वर्णकार ने मुनि के शिर को गीले चमड़े के आवेष्टन से बांध दिया। मुनि से कहा-'बताओ, किसने वे यव लिए हैं ?' कुछ ही समय में शिरोवेष्टन के कारण मुनि की दोनों आंखें भूमि पर आ गिरीं / क्रौंच पक्षी वहीं बैठा था। स्वर्णकार के घर में लकड़ी काटी जा रही थी। उसकी एक * शलाका क्रौंच पक्षी के गले पर लगी, जिससे उसने सारे स्वर्ण-यवों का वमन कर दिया। लोगों ने स्वर्णकार से कहा-'अरे पापिष्ठ! ये रहे तेरे यव।' मुनि कालगत होकर सिद्ध गति को प्राप्त हो गए। लोगों ने आकर मेतार्य मुनि को मृत अवस्था में देखा। यह बात राजा तक पहुंची। राजा ने स्वर्णकार के वध की आज्ञा दे दी। वधक स्वर्णकार के घर गए। स्वर्णकार के सभी सदस्य द्वार बंद कर प्रवजित हो गए और बोले-'श्रावक धर्म से बढ़ो।' यह सुन राजा ने उन्हें मुक्त कर दिया और कहा–'यदि मुनित्व को छोड़कर उत्प्रव्रजित हुए तो मैं सबको तैल के कड़ाह में उबाल दूंगा।" 1. आगम 112, आवनि. 565/4, 5, आवचू. 1 पृ. 492-95, आवहाटी. 1 पृ. - 244-46, आवमटी. प. 476-78 / Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम अद्दुत्तरी 14. वल्कलचीरी गणधर सुधर्मास्वामी चंपा नगरी में समवसृत हुए। राजा कोणिक वंदना करने गया। उसकी दृष्टि मुनि जंबू पर पड़ी। उसका रूप-लावण्य देखकर वह विस्मित हुआ। उसने सुधर्मा से पूछा-'भगवन्! इस महती परिषद् में यह मुनि घृत से सिंचित अग्नि की भांति दीप्त और मनोहर है। इसका क्या कारण है? क्या मैं यह मानूं कि इसने पूर्वजन्म में शील का पालन किया, तपस्या की अथवा दान दिया, जिससे इसको ऐसी शरीरसंपदा प्राप्त हुई है?' ___ सुधर्मा बोले-'राजन् ! सुनो। तुम्हारे पिता महाराज श्रेणिक ने भगवान् महावीर से प्रश्न पूछा, तब महावीर ने कहा-'एक बार मैं (महावीर) राजगृह नगर के गुणशील चैत्य में ठहरा हुआ था। राजा श्रेणिक तीर्थंकर की उपासना करने के लिए अपने प्रासाद से निकला। उसके आगे-आगे दो पुरुष अपने-अपने कुटुंब की बात करते हुए चल रहे थे। उन्होंने एक मुनि को आतापना लेते हुए देखा। वह मुनि दोनों बाहुओं को ऊपर उठाए हुए एक पैर पर खड़ा था।' उनमें से एक बोला-'अहो! यह महात्मा ऋषि सूर्याभिमुख होकर आतापना ले रहा है। दूसरे व्यक्ति ने मुनि को पहचान लिया।' वह बोला-'क्या तुम नहीं जानते कि यह महाराज प्रसन्नचन्द्र है। इसके कैसा धर्म? इसने बालक को राज्य देकर अभिनिष्क्रमण किया है।' वह बालराजा मंत्रियों द्वारा राज्यच्युत कर दिया जाएगा। इसने राज्य का नाश कर डाला। न जाने इसके अन्तःपुर का क्या होगा?' ध्यान में व्याघात करने वाले इन वचनों को मुनि ने सुना और सोचा-'अहो! वे अनार्य अमात्य मेरे द्वारा प्रतिदिन सम्मानित होते रहे हैं। अब वे मेरे पुत्र से विपरीत हो गए हैं।' यदि मैं वहां होता तो मैं उन पर अनुशासन करता। यह सोचते हुए मुनि को वह कारण वर्तमान में घटित होने जैसा दिखाई देने लगा अतः वह मन ही मन उन अमात्यों के साथ युद्ध करने लगा। उसी समय तीर्थंकर के दर्शनार्थ प्रस्थित महाराज श्रेणिक वहां आए। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 2 : कथाएं मुनि को देखकर उसने विनयावनत होकर वंदना की और देखा कि मुनि ध्यान में अडोल खड़े हैं। उसने मन ही मन सोचा-'अहो! आश्चर्य है कि राजर्षि प्रसन्नचन्द्र में तपस्या का इतना सामर्थ्य है।' यह सोचता हुआ राजा श्रेणिक तीर्थंकर महावीर के पास पहुंचा। विनयपूर्वक वंदना कर उसने भगवान् से पूछा-'भगवन् ! जिस समय मैंने अनगार प्रसन्नचन्द्र को वंदना की, उस समय यदि वे कालगत हो जाते तो उनकी कौनसी गति होती?' भगवान् बोले-'सातवीं नरक।' श्रेणिक ने सोचा-'मुनियों का नरक-गमन कैसे?' पुनः उसने भगवान् से पूछा-'भगवन्! प्रसन्नचन्द्र यदि अब कालगत हो जाएं तो कौन सी गति में जायेंगे?' भगवान् बोले-'सर्वार्थसिद्ध महाविमान में।' श्रेणिक बोला-'यह दो प्रकार का कथन कैसे? तपस्वियों का नरक और देवगति में गमन एक साथ कैसे?' भगवान् ने कहा-'ध्यान-विशेष से ऐसा होता है।' श्रेणिक ने पूछा-'भगवन्! यह कैसे हुआ?' भगवान् बोले'तुम्हारे आगे चलने वाले पुरुष के मुंह से अपने पुत्र का परिभव सुनकर मुनि ने प्रशस्तध्यान छोड़ दिया। जब तुम उसे वंदना कर रहे थे, तब वह मुनि अपने अधीनस्थ अमात्यों से सेना के साथ युद्ध कर रहा था अतः उस समय वह अधोगति के योग्य हो गया। तुम वहां से आगे बढ़ गए। तब मुनि प्रसन्नचन्द्र यान-करण आदि युद्ध-सामग्री की शक्ति से अपने आपको रहित जानकर, शीर्षत्राण से शत्रु पर प्रहार करूं यह सोचकर अपने सिर पर हाथ रखा। लुंचित सिर पर हाथ रखते हुए उसने प्रतिबुद्ध होकर सोचा'अहो! अकार्य! अहो! अकार्य! मैंने राज्य को छोड़ दिया परन्तु यतिजनविरुद्ध मार्ग में प्रस्थित हो गया। यह सोचकर मुनि अपने कृत्य की निन्दा-गर्दा करता हुआ मुझे वंदना कर मूल स्थान में आरूढ़ होकर आलोचना-प्रतिक्रमण कर प्रशस्त ध्यान में संलग्न हो गया। उस प्रशस्तध्यान से मुनि ने सारे अशुभ कर्मों का नाश कर पुण्य अर्जित किया। इन दो काल-विभागों के आधार पर दो प्रकार की गतियों का कथन किया गया है।' तब कोणिक ने सुधर्मा से पूछा-'भगवन्! प्रसन्नचन्द्र बालकुमार Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम अद्दुत्तरी को राज्य सौंपकर कैसे प्रव्रजित हो गया? यह वृत्तान्त मैं सुनना चाहता हूं।' तब सुधर्मास्वामी बोले-'पोतनपुर का राजा सोमचन्द्र अपनी पटरानी धारिणी के साथ गवाक्ष में बैठा था। रानी राजा के केशों को संवार रही थी। उसने श्वेत केश को देखकर कहा–'स्वामिन् ! दूत आ गया है।' राजा ने चारों ओर देखा। उसे कोई दूसरा व्यक्ति दिखाई नहीं दिया, तब वह बोला-'देवी! तुम्हें दिव्यचक्षु प्राप्त हैं।' तब रानी ने राजा को सफेद केश दिखाते हुए कहा-'राजन्! यह धर्मदूत है।' यह देखकर राजा का मन खिन्न हो गया। यह जानकर देवी बोली-'क्या आप वृद्धत्व के भावों से लज्जित हो रहे हैं? पटहवादन से इस वृद्धत्व का निवारण करवा लो।' राजा बोला-'देवी! ऐसी कोई बात नहीं है। कुमार अभी बालक है। वह प्रजापालन में असमर्थ है-यह सोचकर ही मेरा मन खिन्न हुआ है। मैंने अपने पूर्वजों के मार्ग का अनुसरण नहीं किया, यह विचार मुझे खिन्न कर रहा है। तुम कुमार प्रसन्नचन्द्र का संरक्षण करती हुई घर में ही रहो।' देवी ने इसको मानने से इन्कार कर दिया। तब राजा ने राज्य-परित्याग का निश्चय कर पुत्र को राज्यभार संभलाकर एक धायमाता तथा रानी के साथ दिशाप्रोक्षित तापस के रूप में दीक्षा ग्रहण कर ली। वह शून्य आश्रम में निवास करने लगा। दीक्षित होते समय रानी गर्भवती थी। क्रमशः गर्भ वृद्धिंगत होने लगा। प्रसन्नचन्द्र के चारपुरुषों (गुप्तचरों) ने उसे यह बात बताई। समय पूरा होने पर रानी ने एक बालक को जन्म दिया। उसे वल्कल में रखने के कारण बालक का नाम वल्कलचीरी रखा गया, वह इसी नाम से प्रसिद्ध हो गया। बालक का प्रसव होते ही विसचिका रोग से ग्रस्त होकर रानी मर गई, तब धायमाता ने बालक का वनमहिषी के दूध से पालन-पोषण किया। कुछ ही समय के पश्चात् धायमाता भी काल-कवलित हो गई। ऋषि रूप में सोमचन्द्र वल्कलचीरी के लालन-पालन में कठिनाई का अनुभव करते थे। ज्यो-ज्यों बालक बड़ा होने लगा, महाराज प्रसन्नचन्द्र अपने गुप्तचरों से प्रतिदिन वल्कलचीरी के Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 2 : कथाएं विषय में जानकारी प्राप्त करते रहते। जब बालक बड़ा हुआ, तब चित्रकारों ने उसका चित्रांकन कर राजा प्रसन्नचन्द्र को दिखाया। तब महाराज प्रसन्नचन्द्र ने स्नेह के वशीभूत होकर लघुवय वाली गणिकाओं को ऋषि का रूप धारण कराकर उसके पास भेजा और कहा–'तुम वल्कलचीरी को विविध प्रकार के फलों के टुकड़ों, मीठे वचनों तथा शरीर के स्पर्श से लुभाओ।' वे ऋषिवेश में आश्रम में गईं और ऋषि वल्कलचीरी को गुप्त रूप में विविध फलों, मीठे वचनों तथा सुकुमाल, पीवर और उन्नत स्तनों के पीलन रूप स्पर्श से उसे मोहित किया। उनमें लुब्ध होकर उसने उनके साथ जाने का संकेत दे दिया। जब वह अपने तापस उपकरणों को एकत्र संस्थापित करने के लिए वहां से गया, तब वृक्ष पर आरूढ़ चारपुरुषों ने उन गणिकाओं को संकेत दिया कि ऋषि आ रहे हैं। वे गणिकाएं वहां से खिसक गईं। वल्कलचीरी उन गणिकाओं के मार्ग का अनुसरण करता हुआ आगे बढ़ने लगा। परन्तु उन्हें न देखकर अन्य मार्ग से चला और एक अटवी में पहुंच गया। अटवी में भटकते हुए उसने रथ में बैठे एक व्यक्ति को देखकर पूछा-'तात! मैं तुम्हारा अभिवादन करता हूं।' रथिक ने पूछा-'कुमार! तुम कहां जाना चाहते हो?' वह बोला-'पोतन नामक आश्रम में जाना चाहता हूं। तुम कहां जाओगे?' रथिक बोला-'मैं भी वहीं जा रहा हूं।' वल्कलचीरी उनके साथ चल पड़ा। वह रथिक की पत्नी को 'तात' इस संबोधन से संबोधित करने लगा। पत्नी ने रथिक से पूछा-'यह कैसा उपचार-संबोधन?' रथिक बोला-'सुंदरी ! यह कुमार स्त्री-विरहित आश्रम में बड़ा हुआ है इसलिए यह विशेष कुछ नहीं जानता। इस पर कुपित नहीं होना चाहिए।' घोड़ों को देखकर वह बोला-'तात! इन मृगों को रथ में क्यों जोता गया है?' रथिक बोला-'कुमार! इस कार्य में ये ही लगाए जाते हैं, इसमें कोई दोष नहीं है।' रथिक ने कुमार को मोदक दिए। कुमार बोला_ 'पोतन आश्रमवासियों ने भी मुझे पहले ऐसे ही फल दिए थे।' वे आगे बढ़े। मार्ग में एक चोर मिला। रथिक ने उसके साथ युद्ध Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 70 आगम अद्भुत्तरी प्रारंभ कर दिया। रथिक ने उस पर गाढ़ प्रहार किया। चोर उसकी युद्धशिक्षा से परितुष्ट होकर बोला-'हे वीर! मेरे पास विपुल धन है। तुम उसे ले लो।' तब तीनों ने रथ को धन से भर दिया। आगे चलते हुए वे पोतन नगर में पहुंचे। रथिक ने वल्कलचीरी को कुछ धन समर्पित कर उसे उदक की गवेषणा करने के लिए विसर्जित कर दिया। वह घूमता हुआ एक गणिका के घर में प्रविष्ट हुआ। गणिका बोली-'तात! मैं तुम्हारा अभिवादन करती हूं।' वल्कलचीरी बोला-'इतना मूल्य लेकर मुझे उदक दो।' गणिका बोली"पहले मैं तुम्हें यहां निवास देती हूं।' उसने नापित को बुलाया। वल्कलचीरी नख-परिकर्म करवाना नहीं चाहता था। उसका ज्योंहि स्नान कराने का उपक्रम किया गया, वह बोला-'मेरा ऋषिवेश मत उतारो।' तब गणिका ने कहा-'जो यहां उदकार्थी आते हैं, उनके साथ ऐसा ही व्यवहार किया जाता है।' फिर उसको स्नान करवाया और विशेष वस्त्र पहनाए गए। अनेक आभूषणों से उसको अलंकृत किया और गणिका की कन्या के साथ उसका पाणिग्रहण कर दिया। तब वे गणिकाएं वधूवर संबंधी गीत गाने बैठ गईं। इधर कुमार वल्कलचीरी को लुब्ध करने के लिए ऋषिवेश में भेजी गई गणिकाएं भी वहां आ पहुंचीं। उन्होंने आकर राजा प्रसन्नचन्द्र से कहा-'कुमार अटवी में चला गया। हम ऋषि के भय से उसे बुला नहीं सकी।' यह सुनकर राजा विषण्ण हो गया। अहो! अकार्य हो गया। न कुमार पिता के पास रह सका और न ही यहां आया। पता नहीं, उसके साथ क्या हुआ होगा? राजा चिंतातुर हो गया। इतने में ही उसके कानों में मृदंग की ध्वनि पड़ी। उसका मन दुःखी हो गया। उसने सोचा-'मैं दुःखी हो रहा हूं। ऐसी स्थिति में कौन दूसरा व्यक्ति इस प्रकार नृत्य-गीत से क्रीड़ा कर रहा है?' गणिका को यह बात एक व्यक्ति ने कही। वह आई और प्रसन्नचन्द्र महाराज के चरणों में गिरकर बोली-'देव! एक नैमित्तिक ने मुझे यह बताया था कि अमुक दिन, अमुक वेला में जो तरुण तापसवेश में तुम्हारे घर आए, उसे उसी समय अपनी दारिका दे देना, उसके साथ दारिका का Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 2 : कथाएं विवाह कर देना, वह उत्तम पुरुष है। उसके साथ वह दारिका विपुल सौख्यभागिनी होगी। नैमित्तिक ने मुझे जैसा बताया था, वैसा तरुण आज मेरे घर पर आया। नैमित्तिक के कथन को प्रमाण मानकर मैंने अपनी दारिका उसे दे दी। उसके निमित्त यह उत्सव मनाया जा रहा है। मुझे ज्ञात नहीं था कि आपका कुमार भाग गया है। आप मेरा अपराध क्षमा करें।' राजा ने अपने आदमियों को भेजा। जिन लोगों ने कुमार को पहले उद्यान में देखा था, उन्होंने कुमार को पहचान लिया। उन्होंने आकर राजा को यह बात बताई। तब राजा स्वयं गणिका के घर गया। उसने चांद की भांति सोमलेश्या से युक्त कुमार को देखा। राजा का मन परम प्रीति से आप्लावित हो गया। वह वधूसहित कुमार को अपने प्रासाद में ले गया। सदृश कुल, रूप, यौवन आदि गुणों से युक्त कन्याओं के साथ उसका पाणिग्रहण हुआ। राज्य का संविभाग प्राप्त कर कुमार वल्कलचीरी सुखपूर्वक रहने लगा। उस रथिक को चोर द्वारा प्रदत्त धन ले जाते हुए देखकर राजपुरुषों ने उसे चोर समझकर पकड़ लिया। राजकुमार वल्कलचीरी ने प्रसन्नचन्द्र को ज्ञात कराकर उसे मुक्त करवा दिया। - इधर राजर्षि सोमचन्द्र कुमार को आश्रम में न देखकर शोकसागर - में डूब गए। महाराज प्रसन्नचन्द्र द्वारा भेजे गए पुरुषों ने आकर कहा–'हमने पोतनपुर में राजा के पास कुमार को देखा है।' यह सुनकर राजर्षि आश्वस्त हुए। फिर भी प्रतिदिन कुमार की स्मृति करने के कारण वे अंधे हो गए। वे ... .ऋषियों के साथ वहीं आश्रम में रहने लगे। कुमार वल्कलचीरी को राजप्रासाद में रहते बारह वर्ष बीत गए। एक बार आधी रात बीत जाने पर वह जाग गया और अपने पिता के विषय में चिंतन करने लगा। उसने सोचा-'मैं निघृण हूं, न जाने मेरे से विरहित मेरे पिता कहां हैं?' उसके मन में पिता के दर्शन की तीव्र उत्सुकता जाग गई। प्रभात होते ही वह महाराज प्रसन्नचन्द्र के पास जाकर बोला-'देव! पिता को देखने की मेरी उत्कंठा जाग गई है। आप मुझे विसर्जित करें।' प्रसन्नचन्द्र Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ आगम अद्भुत्तरी ने कहा- हम दोनों साथ चलते हैं।' वे आश्रम में गए और राजर्षि से बोले-'प्रसन्नचन्द्र प्रणाम करता है।' चरणों में लुठते प्रसन्नचन्द्र का राजर्षि ने हाथ से स्पर्श किया और कहा–'पुत्र! नीरोग तो हो?' वल्कलचीरी ने प्रणाम किया। राजर्षि ने चिर समय तक उसे आलिंगित किया। आंखों से आसुंओं की बाढ़ चल पड़ी। राजर्षि के नयन खुल गए। दोनों पुत्रों को देखकर राजर्षि परम संतुष्ट हुए। बीते समय की सारी बातें उनसे पूछीं। कुमार वल्कलचीरी कुटिया में यह देखने के लिए गया कि राजर्षि पिता के तापस-उपकरण किस स्थिति में हैं? वह कुटिया में गया और अपने उत्तरीय के पल्ले से उनकी प्रतिलेखना करने लगा। अन्यान्य उपकरणों की प्रतिलेखना कर चुकने के पश्चात् ज्योंही वह पात्र-केसरिका की प्रतिलेखना करने लगा तो प्रतिलेखना करते-करते उसने सोचा-'मैंने ऐसी क्रियाएं पहले भी की हैं।' वह विधि का अनुस्मरण करने लगा। तदावरणीय कर्मों का क्षयोपशम होने पर उसे जातिस्मृति ज्ञान उत्पन्न हो गया। उससे देवभव, मनुष्यभव तथा पूर्वाचरित श्रामण्य की स्मृति हो आई। इस स्मृति से उसका वैराग्य बढ़ा। विशुद्ध परिणामों में बढ़ता हुआ, शुक्ल-ध्यान की दूसरी भूमिका का अतिक्रमण कर, ज्ञान-दर्शन, चारित्र में अवगाहन कर मोहान्तराय को नष्ट कर वह केवली हो गया। वह उटज से बाहर निकला। उसने अपने पिता राजर्षि सोमचन्द्र तथा महाराज प्रसन्नचन्द्र को जिनप्रज्ञप्त-धर्म का उपदेश दिया। दोनों को सम्यक्त्व की प्राप्ति हुई। दोनों ने केवली को सिर नमाकर प्रणाम किया। वे बोले-'तुमने हमको अच्छा मार्ग दिखाया है। प्रत्येकबुद्ध वल्कलचीरी पिता को साथ ले वर्द्धमानस्वामी के पास गया। महाराज प्रसन्नचन्द्र अपने नगर में चले गए। तीर्थंकर भगवान् महावीर विहरण करते हुए पोतनपुर के मनोरम उद्यान में समवसृत हुए। महाराज प्रसन्नचन्द्र को वल्कलचीरी के उपदेश से वैराग्य उत्पन्न हुआ। तीर्थंकर के वचनों से उनका उत्साह बढ़ा और वे बाल-पुत्र को राज्यभार संभलाकर प्रव्रजित हो गए। उन्होंने सूत्रार्थ का ज्ञान प्राप्त कर लिया। तप और संयम से अपने आपको भावित करते हुए Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 2 : कथाएं राजर्षि प्रसन्नचन्द्र मगधपुरी (राजगृह) में आए। वहां वे आतापना ले रहे थे। महाराज श्रेणिक ने उनको सादर वंदना की। यह उनके निष्क्रमण की कहानी है। भगवान् महावीर श्रेणिक के समक्ष प्रसन्नचन्द्र राजर्षि के अशुभशुभ ध्यान के कारण नरक-देवगति की उत्कृष्ट स्थिति का वर्णन कर रहे थे, इतने में ही राजर्षि जहां आतापना में स्थित थे, वहां देवों का उपपात होने लगा। श्रेणिक ने भगवान् से पूछा-'भगवन्! यह देव-संपात क्यों हो रहा है?' भगवान् बोले-'अनगार प्रसन्नचन्द्र को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई है इसलिए देव आ रहे हैं।' फिर श्रेणिक ने पूछा-'भगवन् ! केवलज्ञान कबकिससे व्युच्छिन्न होगा?' उस समय ब्रह्मलोक का देवेन्द्र सामानिक विद्युन्माली देव अपने तेज से दसों दिशाओं में उद्योत करता हुआ वंदना करने आया। भगवान् ने श्रेणिक को दिखाया कि यही अंतिम केवली होगा। 15. सुबुद्धि मंत्री, - क्षितिप्रतिष्ठित नामक नगर में चन्द्रक नामक राजा राज्य करता था। उसके मंत्री का नाम मतिसार था, जिसके दो पुत्र थे। मंत्री ने दोनों पुत्रों को अध्ययन हेतु भेजा। अपने नाम के अनुरूप पहला सुबुद्धि कलावान् तथा सभी विद्याओं में पारंगत बन गया लेकिन दूसरा अज्ञानी, विद्याहीन और मूर्ख बना रहा। गुणों के अनुरूप लोग पहले को सुबुद्धि तथा दूसरे को दुर्बुद्धि कहने लगे। .. उस नगरी में धन नामक सेठ रहता था, जिसके चार पुत्र थे-१. जावड़, 2. भावड़, 3. बाहड़, 4. सावड़। अपने अंतिम समय को जानकर सेठ ने अपने पुत्रों से कहा-'मेरे मरने के बाद तुम चारों भाई प्रेम से रहना।' मैंने तुम चारों भाइयों के लिए घर के चारों कोने में एक-एक चरु गाढ़ दिए . हैं, वे मेरी मृत्यु के बाद निकालना। .. सेठ के दिवंगत होने पर पुत्रों ने चारों कोनों से चरु निकाले। उनमें 1. आगम 113, आवनि. 545, आवचू. 1 पृ. 455-60, आवमटी. प. 457-60 / . Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 74 .. आगम अद्दुत्तरी बड़े भाई के नाम बालों से भरा कलश, दूसरे भाई के नाम मिट्टी से भरा ' कलश, तीसरे भाई के नाम कागज से भरा कलश तथा सबसे छोटे भाई के नाम स्वर्ण रत्न से भरा कलश निकला। तीनों भाई उदास हो गए लेकिन छोटा भाई अत्यन्त खुश था। वे आपस में झगड़ा करने लगे। छोटे भाई ने कहा-'हमें पिताश्री की अंतिम सीख पर ध्यान देना चाहिए। विवाद छोड़कर आपस में प्रेम से रहना चाहिए।' ___ राजा ने निर्णय हेतु मतिसार मंत्री को बुलाया लेकिन वह निर्णय नहीं कर सका आखिर उसके बड़े पुत्र सुबुद्धि ने कहा-'इस विवाद का निर्णय मैं करूंगा। सुबुद्धि ने चारों पुत्रों को एकान्त में बुलाकर कहा-"तुम लोग आपस में झगड़ा मत करो। तुम्हारे पिताजी बहुत बुद्धिमान थे, उन्होंने बहुत सोच-समझकर बंटवारा किया है। जिसका चरु बालों से भरा है उसको सेठ ने गाय, घोड़ा आदि पशु धन दिए हैं। जिसके चरु में मिट्टी है, उसे खेती, बाड़ी आदि जमीन दी है, जिसका चरु कागजों से भरा है, उसे देनदारों का धन दिया है। चौथे पुत्र को उतने ही कीमती स्वर्ण और रत्न दिए हैं। इस निर्णय को सुनकर राजा बहुत प्रसन्न हुआ और उसे मंत्री पद दे दिया। एक बार केवलज्ञानी उस गांव में पधारे। उनसे पूर्वभव का वर्णन सुनकर सुबुद्धि मंत्री विरक्त हो गया। उसने आचार्य के पास दीक्षा ग्रहण कर ली। धर्माचार्य से प्रतिबोध तथा शास्त्रों के पठन-पाठन से आयुष्यपूर्ण कर वह पांचवें देवलोक में गया। 1. आगम 113 / Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-३ विशेषशब्दानुक्रम 23 अइसिंगी (वाद्य) 40 | किंपाग (फल) अंध (रोगी) 107 / किमिय (तिर्यञ्च) अगडदत्त (व्यक्ति) 112 | कीड (तिर्यञ्च) अणुयोगदार (ग्रंथ) | कुक्कर (तिर्यञ्च) अभयदेव (आचार्य) 115 कुत्तीयावण (आपणविशेष) 48 अय (धातु) कोसंबी (नगरी) अहर (अवयव) खर (तिर्यञ्च) आगमअद्भुत्तरिया (ग्रंथ) 115 | गय (तिर्यञ्च) आवस्सय (अनुष्ठान) . 21 | गो (तिर्यञ्च) इच्छु (फल) गोतम (गणधर) उट्ठ (अवयव) 1| घुसिण (सुगंधित द्रव्य) 46, उल्लू (तिर्यञ्च) चंदण (वृक्ष) 46, 92, कंचण (धातु) ___47 | चंपक (वृक्ष) 92 ककच (शस्त्र) चिंतामणि (रत्न विशेष) - कक्कंधु (वृक्ष) 96 / जंबु (आचार्य) * कणग (वनस्पति) . | जरदाह (रोग) कणग (शस्त्र) जलसप्पिणी (तिर्यञ्च) कणग (धातु) टुंट (रोगी) कण्ह (वासुदेव) ठाण (ग्रंथ) कदली (वृक्ष) डमरू (वाद्य) कप्प (वृक्ष) 45 / ढिंक (तिर्यञ्च) कवड्डिया (कौड़ी) ढुल्ल (वाद्य) कवालिय (व्यक्ति) 111 / तंबडय (मुद्रा) कविट्ठ (फल) 62 | तिल्ल (वनस्पति) कायमणि (मणि) 98 | दंत (अवयव) Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '76 42 ... आगम अदुत्तरी दक्खिण (दिशा) मुत्ताहल (रत्न) * दमदंत (व्यक्ति) 112 | मुयंग (वाद्य) दामणय (व्यक्ति) 112 मुह (अवयव) दुद्ध (खाद्य) 36, 53 | मूग (रोगी) 107 देवड्डिखमासमण (आचार्य) 14 | मेयारिय (मेतार्य मुनि) 112 धम्मिल्ल (व्यक्ति) 112 | रयहरण (साधु-उपकरण) 45 नयण (अवयव) रवि (ग्रह) .. 30 नालेर (द्वीप) ललितंगकुमार (व्यक्ति) 111 नावा (वाहन) लवण (खाद्य विशेष) पउम (पुष्प) लसण (वनस्पति) पज्जोय (राजा) 13 | लोयण (अवयव) पडह (वाद्य) लोह (धातु) पडिगह (साधु-उपकरण) वंसुलि (वाद्य) पयंग (तिर्यञ्च) . वक्कलचीरि (मुनि) पाद (अवयव) वड. (वृक्ष) पारस (प्रस्तर विशेष) वद्धमाण (तीर्थंकर) 2-4 पित्तविकार (रोग) वीणा * (वाद्य) 44, पोत (वाहन) वेद (ग्रंथ) बहिर (रोगी) वेरुलिय (मणि) भमर (तिर्यञ्च) सप्प (तिर्यञ्च) 93, भीमकुमार (व्यक्ति) साइ (नक्षत्र) भुयंग (तिर्यञ्च) 94 | सिंगी (वाद्य) मगहाहिव (राजा श्रेणिक) सुणग (तिर्यञ्च) मयंक (ग्रह) सुबुद्धि (मंत्री) मिग (तिर्यञ्च) . सुहम्म (गणधर) मिगा (रानी) सूल (शस्त्र) मुणिवति (मुनि) 112 / सोहम्म (गणधर) 4, 17 Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-४ शब्दार्थ अंसु (किरण) 1 | उज्झ (त्यक्त) अक्खय (अक्षय) 76 | उट्ठ (ओष्ठ) अज्जय (दादा) . 10 | उत्त (उक्त) अणुट्ठाण (अनुष्ठान) 30, 67 | उत्ति (उक्ति, कथन) अणुयोगदार (अनुयोगद्वार | उवदिट्ठ (उपदिष्ट) नामक मूल सूत्र) 23 | उवदेस (उपदेश) अप्प (समर्पित करना) 36 | ककच (करवत) अभिक्खण (प्रतिक्षण) 80 | कक्कंधु (बैर का वृक्ष) अमर (देवता). 85 | कज्ज (कार्य) अमिय (अमृत) 36 | कणग (धतूरा) अमेज्झ (दुर्गन्धयुक्त) 106 | कणग (बाण) अय (लोहा) . 61 अवण्णवाद (निंदा) 103 | | कण्णजाव (चुगली) अवर (अपर, दूसरा) 92 कण्ह. (कृष्ण वासुदेव) अहर (होठ) कदली (केला) अहल (निष्फल) 90 | कप्परुक्ख (कल्पवृक्ष) अहिव (राजा) 110 | कम (क्रम) आइण्ण (आकीर्ण) 16 | कयण्णु (कृतज्ञ) आलि (पंक्ति) 1 | करंडग (पेटी) . आलिद्ध (युक्त) 90 | कर (किरण) आलीढ (आकीर्ण, युक्त) | कवड्डिया (कौड़ी) आवस्सय (आवश्यक) 21 | कविट्ठ (कपित्थ फल) आहेड (शिकार) 38 | कसवट्टय (कसौटी) इक्कडय (दे. एक | कायमणि (काचमणि) का अंक) 65 / किंतणय (काटना) . 98 69 Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 78 . आगम अद्दुत्तरी किमिय (कृमि) 106 | झाण (ध्यान) 90 . कीड (कीट) 105 | टुंट (दे. हाथ से विकल) 107 . कुक्कर (दे. कुत्ता) ठवणा (स्थापना) कुपत्त (कुपात्र) | ठवित (स्थापित) कुसुम (पुष्प) 34 | ठाण (स्थान नामक केसर (पराग) 1 तृतीय अंग) .. कोसंबी (कौशाम्बी) 13 | ठिति (स्थिति) . खंडाखंडि (टुकड़े-टुकड़े) 28 | ढिंक (पक्षि विशेष) खंति (क्षांति, क्षमा) 83 ढुल्ल (दे. ढोल) खय (क्षय) 77 | णिरत्थग (निरर्थक) खर (गधा) 35 णेह (स्नेह) गय (गज, हाथी) तंबडय (दे. तांबे का सिक्का) 66 गयण (गगन) 59 | तण (तृण) गिहवति (गृहपति) 17 | तत्त (तप्त) गो (गाय) 35 | तिक्काल (त्रिकाल) घुसिण (केशर) 46 | तिक्ख (तीक्ष्ण) चंड (प्रचण्ड, तेज) 43 | तिण (तृण) चम्म (चर्म) | तित्ति (तृप्ति) चारु (सुंदर) तिमिर (अंधकार) चुक्क (दे. रहित) 12 | थुवंत (स्तुति करता हुआ) 111 चेइ (चैत्य) 46 | थोव (थोड़ा) 30 छगण (दे. गोबर) | दक्खिण (दक्षिण दिशा) 42 जरदाह (ज्वरदाह) 90 | दब्भ (दर्भ, तृण विशेष) जलसप्पिणी (जलसर्पिणी) 106 | दमग (दरिद्र) झाड (दे. वृक्ष) 45 दल (पत्ता) Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 4 : शब्दार्थ दह (दश) 30 | पडिगह (पात्र) दारिद्द (दारिद्र्य) 107 | पडिबुद्ध (प्रतिबुद्ध) दिट्ठि (दृष्टि) | पडिलेहण (प्रतिलेखन) दीधिइ (सूर्य की किरण) 43 | पण्णत्त (प्रज्ञप्त) दुग्ग (दुर्ग) 13 | पत्त (पात्र, योग्य) दुद्ध (दूध) 36 / पमत्त (प्रमत्त) दुवियड्ड (दुर्विदग्घ, जिसे पमुह (प्रमुख) समझाना कठिन हो) 105 | पयंग (सूर्य) देवड्डिखमासमण (देवर्धिगणि | पयंग (पतंगा) क्षमाश्रमण) 14 | पयण (पकाना) धणव (धनवान्) 26 | पवित्त (पवित्र) धम्म (धर्म) 12 | पव्व (पर्व, उत्सव) धम्मायरिय (धर्माचार्य) 113 | पहर (प्रहर) नड (नट, नर्तक) 60 | पहाण (प्रधान) नालेरदीव (नालिकेरद्वीप) 68 | पहिय (पथिक) निउण (निपुण) पासत्थ (पार्श्वस्थ श्रमण) निउत्त (नियुक्त) पासवण (प्रस्रवण, मूत्र) 37 निच्छय (निश्चयनय) पिट्ठीमंस (चुगली) निदाण. (कारण) पुच्छ (पूंछ) . निद्दि? (निर्दिष्ट) पुत्थिया (पुस्तिका) निव्वाण (निर्वाण) पोसह (पौषध) पउम (पदम) बज्झ (बाह्य) पच्चक्खाण (प्रत्याख्यान) पज्जय (दादा) पज्जोय (चंडप्रद्योत राजा) 13 बीय (बीज) पडह . (पटह) 44 / बोल्ल (डुबोना) ला) 10 / बहिर (बधिर) Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 110 80 . आगम अद्भुत्तरी भज्जा (भार्या) 26 / मूग (मूक) भट्ठ (भ्रष्ट) 72 मोक्ख (मोक्ष) भत्त (भक्त) | रंक (दरिद्र) भमण (भ्रमण) रक्खा (रक्षा) भव्व (भव्य) | रयण (रत्न) भाणु. (सूर्य) रसिय (रसिक) .. भायण (पात्र, बर्तन) | राय (राग) भालिय (देखकर). 27 रुक्ख (वृक्ष) भुत्त (खाया हुआ) रुहिर (रुधिर) भुयंग (सर्प) | लच्छी (लक्ष्मी) मंति (मंत्री) 113 लसण (ल्हसुन) मगह (मगध देश) लहरी (समुद्र) मगहाहिव (राजा श्रेणिक) 110 लोगुत्तर (लोकोत्तर) मज्जाया (मर्यादा) लोयण (आंख) मज्झ (मध्य) | वंझा (वन्ध्या) मत्तंड (सूर्य) वंस (वंश). मयंक (चन्द्रमा) 41 / वंसुलि (बांसुरी) मिगतण्हा (मृगतृष्णा) वक्खाण (व्याख्यान) मिगा (मृगावती रानी) वडतरु (वटवृक्ष) मियच्छि (मृगाक्षी स्त्री) वणसइ (वनस्पति) मिल्ल (मिलकर) | ववहार (व्यवहारनय) मिस्सदिट्ठि (मिश्रदृष्टि) | ववहारी (व्यापारी) मुट्ठि (मुष्टि) | वसण (व्यसन) मुत्ताहल (मोती) वाडि (दे. घर) मुयंग (मृदंग) | वाहि (व्याधि, रोग) मुय (मृत) 38 | विज्जा (विद्या) 35 41 Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 4 : शब्दार्थ विण्णाण (विज्ञान) 35 | सवण (श्रवण) वितह (वितथ, मिथ्या) 111 | साइ (स्वाति नक्षत्र) वित्थार (विस्तार) 25 | साइय (स्वाति सम्बन्धी) विप्प (ब्राह्मण) | सारिच्छ (सदृश) विस (जहर) 78 | साहा (वृक्ष की शाखा) विसद (ज्ञानी) | सिंगी (वाद्य) विहि (विधि) 114 | सिग्घ (शीघ्र) विहिष्णु (विधिज्ञ) | सिढिल (शिथिल) विहूण (रहित) 62 | | सिणेह (स्नेह) वेरुलिय (वैडूर्यमणि) 98 सिप्प (सीपी) वेसा (वेश्या) 15 सिस्स (शिष्य) सउण (शकुन) 42 | सुइ (पवित्र) संखुब्भ (क्षुब्ध) 58 | सुक्क (शुष्क) संझा (सन्ध्या) | सुक्ख (सुख) संताव (संताप) | सुणग (कुत्ता) संथवण (संस्तव) 114 | सुण्ण (शून्य) संपत्त (संप्राप्त) 93 | सूल (शूल, शूलि) संसणया (प्रशंसा) 108 | सोया (श्रोता) सज्झाय (स्वाध्याय) 68 | सोवाग (चाण्डाल) सत्त (सत्त्व, शक्ति) 112 | सोवाण (सोपान) सप्प (सर्प) 93 सोस (शोषण करना) सम (श्रम) 43 | सोहम्म (सुधर्मा) समाइण्ण (समाकीर्ण) ___20 | हट्ट (दे. हाट) सम्मत्त (सम्यक्त्व) 110 | हालहल (जहर) Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम अद्भुत्तरी संकेतिका अष्टांग आगम आवचू आवनि आवमटी आवहाटी ओनिटी ओभा अष्टांग हृदय आगम अद्रुत्तरी आवश्यक चूर्णि आवश्यक नियुक्ति आवश्यक मलयगिरि टीका आवश्यक हारिभद्रीय टीका ओघनियुक्ति टीका ओघनियुक्ति भाष्य गाथा जीतकल्पभाष्य निशीथ चूर्णि पंचवस्तु परिशिष्ट जीभा बृभा व्यभा बृहत्कल्पभाष्य व्यवहारभाष्य स्थानांग स्था स्थाटी स्थानांग टीका Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयुक्त ग्रंथ सूची अनुयोगद्वार-वा.प्र. आचार्य तुलसी, प्रसं. युवाचार्य महाप्रज्ञ, जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.), प्र. सं. 1987 / अष्टांग हृदय-कृष्णदास अकादमी, बनारस, चौखम्भा प्रेस, सन् 1994 / आवश्यक चूर्णि भा. १-जिनदासगणि, श्री ऋषभदेव केशरीमल श्वे. संस्था, रतलाम, प्र. सं. 1928 / आवश्यक नियुक्ति (खण्ड-१)-आचार्य भद्रबाहु, सं. समणी कुसुमप्रज्ञा, जैन विश्व भारती संस्थान (राज.), प्र. सं. 2001 / आवश्यक मलयगिरि टीका-आचार्य मलयगिरि, आगमोदय समिति, बम्बई, प्र. सं. सन् 1928 / आवश्यक हारिभद्रीया टीका (भा. १)-आचार्य हरिभद्र, भैरुलाल कन्हैयालाल कोठारी धार्मिक ट्रस्ट, बम्बई, वि. सं. 2038 / ओघनियुक्ति टीका-द्रोणाचार्य, आगमोदय समिति, बम्बई, प्र. सं. वि. सं. 1975 / ओभा-द्रोणाचार्य, आगमोदय समिति, बम्बई, प्र. सं. वि. सं. 1975 / जीतकल्पभाष्य-वा.प्र. आचार्य तुलसी, प्रसं. आचार्य महाप्रज्ञ, सं. समणी कुसुमप्रज्ञा, जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.), सन् 2010 / . जैन आगम वाद्य कोश-वा.प्र. आचार्य तुलसी, प्रसं. आचार्य महाप्रज्ञ, सं. मुनि वीरेन्द्रकुमार, मुनि जयकुमार, जैन विश्व भारती संस्थान, लाडनूं, प्र. सं. 2004 / जैन धर्म के प्रभावक आचार्य-ले. साध्वी संघमित्रा, जैन विश्व भारती संस्थान, लाडनूं (राज.), प्र. सं. 2006 / Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 84 आगम अद्भुत्तरी ठाणं-वा.प्र. आचार्य तुलसी, प्रसं. युवाचार्य महाप्रज्ञ, जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.), वि. सं. 2033 / नंदी-वा.प्र. गणाधिपति तुलसी, सं. आचार्य महाप्रज्ञ, जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.), प्र. सं. सन् 1997 / नियुक्ति पंचक-वा.प्र. आचार्य तुलसी, प्रसं. आचार्य महाप्रज्ञ, संपा. समणी कुसुमप्रज्ञा, जैन विश्व भारती, लाडनूं, प्र.सं. 1999 / / निशीथ चूर्णि-सं. मुनि कमल, सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा, सन् 1982 / पंचवस्तु –देवचन्द-लालभाई जैन पुस्तकोद्धार, बम्बई, सन् 1927 / बृहत्कल्प भाष्य-सं. मुनि पुण्यविजय, जैन आत्मानंद सभा, भावनगर, सन् 1936 / ब्रह्मवैवर्त पुराण-हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग, सन् 2002 / भविष्यमहापुराण-नाग प्रकाशन, जवाहर नगर, दिल्ली-११००३५, तृ. सं. 2003 / मरणविभक्ति (पइण्णयसुत्ताई)-सं. मुनि पुण्यविजय, श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई, प्र. सं. सन् 1984 / वसुदेवहिंडी-संघदासगणी, सं. मुनि पुण्यविजय, गुजरात साहित्य अकादमी, गांधीनगर, अहमदाबाद, सन् 1989 / व्यवहारभाष्य-वा.प्र. आचार्य तुलसी, प्रसं. युवाचार्य महाप्रज्ञ, सं. समणी कुसुमप्रज्ञा , जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.), सन् 1996 / स्थाटी-आचार्य अभयदेव, सेठ माणेकलाल, चुन्नीलाल, अहमदाबाद, द्वि. सं.१९३७। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर) JEE पमोक्खो परतीबाडनू जैन विश्व भारती लाडनूं (राज०)