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________________ आगम अद्दुत्तरी 20. असढेण समाइण्णं, जं कत्थई' केणई असावज्ज। न निवारितमण्णेहिं, बहुगुणमणुमेयमायरियं // अशठ साधु के द्वारा समाचीर्ण निरवद्य व्यवहार, जिसका अन्य गीतार्थ ने निषेध नहीं किया, वह बहुत गुण युक्त है, ऐसा समझकर उसका आचरण करना चाहिए। 21. आवस्सयाइकरणं, इच्छा-मिच्छादिदसविहायरणं। चिइवंदण-पडिलेहण, संवच्छर-पव्व पव्वतिही॥ 22. उदयतिहीणं ठवणा, विणयाइ सुसाहुमाणणा-दाणं। __एत्थ वि किं आयरणा, बल-बुद्धी का वि हावेइ॥ आवश्यक आदि क्रिया करना, इच्छाकार, मिथ्याकार. आदि दशविध सामाचारी' का आचरण, चैत्यवंदन, प्रतिलेखन, सांवत्सरिक पर्व. पर्वतिथि, उदयतिथि की स्थापना, आचार आदि का पालन तथा सुसाधुओं का सम्मान, दान-क्या इनके आचरण में भी किसी प्रकार 1. कत्थई (ला)। 2. कारणे (बृभा)। 3. आयरियं (ला), बहुमणुमयमेयमाइण्णं (बृभा 4499, पंव 476) / 4. "हणं (ला)। 5. संघीय जीवन को व्यवस्थित रूप से चलाने के लिए भगवान् महावीर ने दशविध सामाचारी का निरूपण किया१. इच्छाकार-कार्य करने या कराने में (तुम्हारी इच्छा हो तो मेरा यह कार्य करो) इच्छाकार का प्रयोग। 2. मिथ्याकार-भूल हो जाने पर यह मिथ्या है' ऐसा जानकर मिथ्यादुष्कृत करना। 3. तथाकार-आचार्य के वचनों को 'तहत्' कहकर स्वीकार करना।। 4. आवश्यिकी-बाहर जाते समय 'आवस्सही'-आवश्यक कार्य के लिए बाहर जाता हूं, ऐसा कहना। 5. नैषेधिकी -कार्य से निवृत्त होकर वापस लौटने पर 'निस्सिही'-मैं निवृत्त हो चुका हूं, ऐसा कहना। 6. आपृच्छा-प्रत्येक कार्य करने में आचार्य की अनुमति लेना। 7. प्रतिपृच्छा-प्रयोजन होने पर पूर्व निषिद्ध कार्य को करते समय पुनः गुरु से पूछना। 8. छंदना-आनीत आहार को साधर्मिक साधुओं को देने की इच्छा। 9. निमंत्रणा-मैं आपके लिए आहार लाऊं-कहकर आचार्य, शैक्ष आदि को निमंत्रित करना। 10. उपसंपदा-ज्ञान, दर्शन और चारित्र की विशेष प्राप्ति हेतु किसी दूसरे आचार्य के पास जाना। (विस्तार हेतु देखें आवनि 436/1-57)
SR No.004272
Book TitleAgam Athuttari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2012
Total Pages98
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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