SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 43
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ __ आगम अट्टत्तरी करती मनोवाञ्छित लक्ष्मी को प्राप्त कर सकता है लेकिन दुर्लभ रत्न की भांति गए हुए सम्यक्त्व को प्राप्त नहीं कर सकता। 100. संजमरहितं लिंगं, दंसणभटुं न संजमं भणितं। आणाहीणं धम्मं, निरत्थगं होति सव्वं पि॥ संयम रहित लिंग, दर्शनभ्रष्ट संयम और आज्ञाहीन धर्म-ये सब निरर्थक हैं। . 101. जिणवयणं अलहंता, जीवा पावेंति तिक्खदुक्खाई। लहिऊण जं पमत्ता, ताणं चिय घोरसंसारो॥ जिनवचन को प्राप्त नहीं करने वाले जीव तीक्ष्ण दुःखों को प्राप्त करते हैं। जो सम्यक्त्व रूप सम्पदा को प्राप्त करके प्रमाद करते हैं, उनको घोर संसार ही प्राप्त होता है। 102. गयपारे संसारे, आणानिहणा अणंतसो कालं। न लहंति बोधिलाभं, लहिऊण वि के वि हारेंति॥ इस अपार संसार में आज्ञा रहित व्यक्ति अनंत काल तक बोधि को प्राप्त नहीं करते। कुछ व्यक्ति बोधि को प्राप्त करके भी उसे गंवा देते हैं। 103. किवणत्तणेण कोई, दोसे पयडेति साधुसंघाणं / __'जंपति अवण्णवादं", संगं न करे सुसाहूणं॥ कृपणता के कारण कोई व्यक्ति साधु-संघ के दोषों को प्रकट करता है, उनके प्रति अवर्णवाद बोलता है और अच्छे साधुओं की संगति नहीं करता है। 104. 'दुट्ठा सुसाहुनिंदा , इह परलोगे वि दुट्ठदारिद्दा / पइजम्मं विग्घकरी, 'सुरक्खिया सप्पजाइव्व॥ सुसाधुओं की निंदा अच्छी नहीं होती। इससे इहलोक तथा 1. अणोरपारे (ब, म)। 2. किविण (अ) 3. कोइ (ब, म), केइ (हे)। 4. सुसाहुसं° (ब, म)। 5. अवण्णवायं जंपइ (म, ब)। 6. सुसाहुनिंदा दुट्ठा (ब, म)। 7. "दालिद्दा (अ, द, म, हे)। 8. भवे भवे (ब, म)। 9. सुपक्खचाएण दट्ठव्या (अ, द, हे)।
SR No.004272
Book TitleAgam Athuttari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2012
Total Pages98
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy