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________________ आगम अद्रुत्तरी 90. दाणं वसणालिद्धं', सीलं रंकुव्व पालणं अहलं।. जरदाहुव्व तवादी, झाणं दुक्खे निदाणं च॥ सम्यक्त्व के बिना दान व्यसन रूप, शील का पालन रंक की भांति निष्फल, तप आदि ज्वरदाह के समान तथा ध्यान दु:ख का कारण होता है। 91. कुग्गहगहगहिताणं, सुतित्थजत्ता य चित्तभमणुव्व। ___ भमणुव्व भावणाओ, दंसणभटेण जाणेण॥. दर्शन भ्रष्ट व्यक्ति कुग्रह से गृहीत व्यक्ति के समान होता है। उसकी तीर्थ यात्रा चित्तभ्रमण तथा भावना भवभ्रमण के समान होती है। 92. चंदण-पवणपणुल्लित, परिमलरसियावरे विचंदणया। चंपककुसुमसुगंधित, तिल्ला उ होति चंपिल्लो॥ जैसे चंदन वृक्ष की पवन से प्रेरित परिमल के रसिक अन्य नीम आदि के वृक्ष चंदन की सुगंध के रूप में परिणत हो जाते हैं तथा चंपक के फूल से सुगंधित तिल भी चंपा की सुगंध वाले हो जाते हैं। (वैसे ही अच्छी या बुरी संगति से व्यक्ति उस रूप में परिणत हो जाता है।) 93. साइजलं सुइसिप्पे, पडितं मुत्ताहलं च हालहलं। सप्पमुहे वरघुसिणं, कदलीदलमज्झसंपत्तं॥ स्वाति नक्षत्र का जल पवित्र सीपी में पड़ने से मोती, सर्प के मुख में पड़ने से हालाहल विष तथा केले के पत्ते पर गिरने से श्रेष्ठ कपूर बन जाता है। 94. चंदणलयं भुयंगा, विसं न मिल्हंति तस्स किं दोसो। इच्छुग्गो किं चंड, खारत्तं नेव मेल्हेइ॥ सर्प यदि चंदन लता पर विष को नहीं छोड़ते हैं तो इसमें 1. वसणं लद्धं (अ, क)। 2. निहाणं (मु, द)। 3. कुग्गहगहिया अग्गह (ब, हे)। 4. सुत्तित्थ' (म, क)। 5. व (द, ब)। 6. "लद्ध (अ, द, म, हे)। 7. चंदं (ब, द)। 8. मिल्हेइ (म, द), तु. पंव 733 /
SR No.004272
Book TitleAgam Athuttari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2012
Total Pages98
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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