________________ आगम अद्भुत्तरी और भय से उसका आचरण नहीं करते। पाप का अनुमोदन करने वाले उन लोगों को भी बोधि की प्राप्ति नहीं होती। 80. गच्छायारं दुविधं, तीसु' वि जोगेसु संजमो वावि। णाणम्मि करणसुद्धे, अभिक्खणं दंसणं होति॥ द्विविध गच्छाचार-उत्सर्ग और अपवाद, तीन योग-मन, वचन और काया में संयम तथा ज्ञानयोग और करणयोग में शुद्धि होने पर उसको अभीक्ष्ण दर्शन की प्राप्ति होती है। .. .. 81. जीवादीसदहणं, सम्मत्तं जिणवरेहिं पण्णत्तं। ववहारनिच्छएणं, जाणतो लहति सम्मत्तं॥ जिनेश्वर भगवान् ने जीव आदि नव पदार्थों पर श्रद्धा रखने को सम्यक्त्व कहा है। व्यवहार और निश्चय को जानता हुआ प्राणी सम्यक्त्व को प्राप्त करता है। 82. जिणपण्णत्तं धम्मं, सद्दहमाणस्स होति रयणमिणं। : सारं गुणरयणाण य, सोवाणं पढममोक्खस्स॥ जिन-प्रज्ञप्त धर्म में श्रद्धा करने से सम्यक्त्व-रत्न की प्राप्ति होती है। यह सभी गुण-रत्नों में सारभूत तथा मोक्षमार्ग का प्रथम सोपान है। 83. दंसण-णाण-चरित्ते, तव नियमे विणय-खंति गुणइल्ला। एते वि वंदणीया, जे गुणवादी गुणधराणं॥ जो दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, नियम, विनय और शांति आदि गुणों से युक्त हैं तथा गुणी व्यक्तियों की गुणोत्कीर्तना करने वाले हैं, वे वंदनीय होते हैं। 84. आणाजुत्तं संघ, दटुं जो मण्णते न मच्छरिओ। सो संजमपडिवण्णो, मिच्छादिट्ठी मुणेतव्वो॥ आज्ञा युक्त संघ को देखकर जो मात्सर्य से उसे स्वीकार नहीं करता, संयम स्वीकार करने पर भी उसे मिथ्यादृष्टि जानना चाहिए। 1. गंथं वायं (द)। 2. तेसु (ला)। 3. जीवाईस (म, ब)। 4. नियम (ब, म)। 5. आवश्यकनियुक्ति में वंदना किसको करनी चाहिए और किसको नहीं करनी चाहिए, इसका विस्तार से वर्णन है। (द्र. आवनि 719-26)