________________ 44 आगम अद्दुत्तरी सर्वगुण सम्पन्न था। उसका दिल बहुत उदार था अत: दान देने में उसे आत्मतोष का अनुभव होता था। ललितांगकुमार का एक सेवक था। वह नाम से सज्जन लेकिन गुणों से दुर्जन था। एक बार राजा ने प्रसन्न होकर राजकुमार को हार, कुंडल आदि बहुमूल्य अलंकार दिए लेकिन कुमार ने वे सब अलंकार याचकों को दे दिए। सज्जन ने राजा के समक्ष चुगली करते हुए कहा कि ललितांगकुमार इस प्रकार दान देकर राजकोष को खाली कर देगा। राजा ने कुमार को एकान्त में बुलाकर समझाया। राजकुमार ने राजा की बात शिरोधार्य करके दान देने में कमी कर दी लेकिन इससे कुमार को संतोष नहीं हुआ और लोगों में भी अपवाद फैलने लगा। ललितांगकुमार ने पुनः दान देना प्रारम्भ कर दिया। इस बार राजा ने ललितांगकुमार को अपमानित करके राजदरबार में आने के लिए निषेध कर दिया। इस घटना से दुःखी होकर एक रात राजकुमार घोड़े पर सवार होकर महल से बाहर चला गया। वह दुष्टप्रकृति वाला सेवक सज्जन भी साथ में चलने लगा। एक दिन सज्जन ने कुमार से कहा-"धर्म और अधर्म"-इन दोनों में श्रेष्ठ कौन है ? ललितांगकुमार ने कहा-'धर्म की सदा जय और अधर्म की पराजय होती है।' सेवक ने इसका प्रतिकार करते हुए कहा- "मैं मानता हूं कि कभी-कभी अधर्म से भी सुख होता है। यदि ऐसा नहीं होता तो आप जैसे धर्मात्मा की ऐसी स्थिति क्यों होती? ललितांगकुमार ने कहा-'आगे गांव के लोगों से पूछते हैं, वे क्या कहते हैं?' सज्जन ने कहा-"यदि ग्रामीण यह कह दें कि अधर्म की जय होती है तो आप मुझे क्या देंगे?" ललितांगकुमार ने कहा-"मैं घोड़ा आदि सारी वस्तुएं तुम्हें दे दूंगा और जीवन भर तुम्हारा दास बन जाऊंगा।" ग्रामीणों से पूछने पर वे एक साथ बोल उठे-"आजकल तो अधर्म की जय होती है।" ललितांगकुमार ने प्रतिज्ञा के अनुसार घोड़ा, राजसी पोशाक और आभूषण आदि सभी वस्तुएं सेवक को दे दी और स्वयं