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________________ पाठ-सम्पादन एवं अनुवाद हैं। गुणों से युक्त मुझ तृण को आज्ञाभ्रष्ट व्यक्ति से उपमित करते हुए हे कविकुशल! तुम लज्जा का अनुभव क्यों नहीं करते हो? 56. साहसियं बहुलद्धं भक्खे अद्धे करेमि संतोसं। सुहदीहनिद्द जागर', सउज्जमं सूरि! मा जुत्तं // (अब कुत्ता अपनी बात कहता है-) मैं साहस के द्वारा अनेक घरों से भोजन भी प्राप्त करता हूं और जितनी भूख है, उससे आधा अपर्याप्त खाकर भी संतोष करता हूं। मैं सुखपूर्वक दीर्घ निद्रा से जाग जाता हूं, उद्यम-पराक्रम के गुण से युक्त हूं। इसलिए हे आचार्य! आज्ञाभ्रष्ट व्यक्ति से मेरी तुलना युक्त नहीं है। 57. 'सामीभत्त-कयण्ण'३, वाडिं रक्खे रएमि मेहुणयं। एहिं समं तुलंतो, सुपंडिय! किं न लज्जेसि?॥ ___ मैं स्वामिभक्त और कृतज्ञ हूं। घर की रक्षा करता हूं तथा मैथुन में रत रहता हूं। आज्ञाभ्रष्ट लोगों के साथ मेरी तुलना करते हुए हे सुपंडित! तुम लज्जा का अनुभव क्यों नहीं करते? 58. निब-नियगुणमाहप्पं, कहिउं लज्जावितो य कविराओ। आगमभट्ठायारा, लहरी संखुब्भ विण्णेया॥ सबके द्वारा अपने-अपने गुणों का माहात्म्य कहने से कविराज लज्जित हो गया। (तब कवि उपमा देते हुए कहते हैं-) आगम विहित आचार से भ्रष्ट व्यक्ति को समुद्र की लहरों की भांति निरर्थक जानना चाहिए। 59. वंझापुत्तसमाणा, भूमिसिलंधुव्व गयणमुढिव्व। . . अंधग्गे वरतरुणी, हावयभावाई सारिच्छं॥ आगम विहित आचार से भ्रष्ट व्यक्ति वंध्या-पुत्र, पृथ्वी पर उगे कुकुरमुत्ता, आकाश को मुट्ठी में बांधने तथा अंधे व्यक्ति के समक्ष श्रेष्ठ तरुणी के हाव-भाव प्रदर्शन के समान व्यर्थ होते हैं। ..1. “लद्धा (म, ब)। 2. जागरिअं (द, म)। 3. भत्तं कयण्णत्तं (ब, म), "गणुं (अ, ला), सामिभ' (हे)। 4. एएहिं (म)। 5. संखुव्व (अ, ब, हे)। 6. भावा य (ब)।
SR No.004272
Book TitleAgam Athuttari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2012
Total Pages98
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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