SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 8
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सात भूमिका आचार्य ने दर्शन से रहित व्यक्ति को वंदना करने का निषेध किया है क्योंकि सम्यक्त्व रत्न से भ्रष्ट व्यक्ति भवभ्रमण करते रहते हैं। दर्शनभ्रष्ट व्यक्ति को ज्ञान और चारित्र की प्राप्ति भी नहीं हो सकती। आचार्य स्पष्ट उल्लेख करते हैं कि जैसे मूल का विनाश होने पर वृक्ष पुष्पित-फलित नहीं होता, वैसे ही जिन-दर्शन से भ्रष्ट व्यक्ति मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकते। ____ आचार्य ने सज्जन-दुर्जन की संगति के परिणाम को विविध उपमाओं से समझाया है, जैसे चंदन वृक्ष की पवन से प्रेरित अन्य नीम आदि के वृक्ष भी चंदन की सुगंध के रूप में परिणत हो जाते हैं तथा चंपक के फूल से सुगंधित तिल भी चंपा की सुगंध वाले हो जाते हैं। स्वाति नक्षत्र का जल सीपी के मुख में गिरने पर मोती, सर्प के मुख में गिरने पर विष तथा केले के पत्ते पर गिरने पर श्रेष्ठ कपूर बन जाता है। ग्रंथकार का मंतव्य है कि साधु पुरुषों पर संगति का प्रभाव नहीं पड़ता, वे अपने मूल स्वभाव को नहीं छोड़ते। जैसे चंदन की लता पर सर्प अपने विष का प्रभाव नहीं छोड़ सकता। कस्तूरी के मद में रखने पर भी लहसुन अपनी गंध नहीं छोड़ता। काचमणि के साथ रखा हुआ वैडूर्य रत्न काचमणि के रूप में परिणत नहीं होता। चुगली और निंदा करने के दोषों को प्रकट करते हुए आचार्य * कहते हैं कि साधु की निंदा करने से परलोक में घोर दारिद्र्य और विघ्न-बाधाएं प्राप्त होती हैं। उस व्यक्ति को बोधि की प्राप्ति नहीं होती। असाधु के समक्ष साधु की निंदा करने से जीव हाथ-पैर से विकल, मूक, अंध, दरिद्र और घोर दुःखों को प्राप्त करते हैं। अंत में आचार्य ने ललितांगकुमार, भीमकुमार, धम्मिल्ल, दामनक, अगड़दत्त आदि अनेक कथानकों का उल्लेख किया है। - इस छोटी सी कृति में आचार्य ने शकुनशास्त्र के कुछ गूढ़
SR No.004272
Book TitleAgam Athuttari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2012
Total Pages98
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy