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________________ 18 आगम अद्दुत्तरी मानते हैं। ऐसे गुणों से युक्त मुझ मृग से आज्ञा रहित पुरुष की उपमा देते हुए हे कविकुशल! तुम लज्जा का अनुभव क्यों नहीं करते? 43. मत्तंड चंड' दीधिइ', तावपतावेण खेदखिण्णाणं / फेडेमो पंथसमं, पहियाणं पंथखिण्णाणं॥ (अब वृक्ष कहता है)-"मैं प्रचंड सूर्य की किरणों के ताप से तप्त, खेदखिन्न तथा पथ-श्रम से खिन्न पथिकों की क्लान्ति को दूर करता हूं।" 44. अप्पे चारुफलाइं, गिहादिकज्जेसु पोत-नावाए। वीणा-मुयंग वंसुलि, पडहं' ढुल्लाइँ तोरणया॥ मैं सुंदर फल देता हूं। मेरा काष्ठ घर, पोत, नाव आदि को निर्मित करने में काम आता है तथा इससे वीणा, मृदंग, बांसुरी, पटह, ढोल तथा तोरण आदि भी निर्मित होते हैं। 45. रयहरण हत्थदंडा, पडिगहमादीणि कज्जसाधूणं। झाडो वि कप्परुक्खो, वणसई 'सम्वाउ नामाओ७॥ मेरे काष्ठ से साधुओं के योग्य रजोहरण, हस्तदंड, पात्र आदि वस्तुएं निर्मित होती हैं। कल्पवृक्ष भी वृक्ष ही है। सारी वनस्पतियां भी वृक्ष कहलाती हैं। 46. वत्थासण-घुसिण चंदण, चेइकज्जेसु रोगहरणेसु। ओसहिपमुहादीणं, किं बहु वण्णेमि अप्पणया॥ वस्त्र, बैठने का आसन, केशर, चंदन, चैत्य आदि के कार्य में मेरा उपयोग होता है। रोग-हरण में कुछ प्रमुख औषधियों का प्रयोग होता है। मैं अपना वर्णन और अधिक क्या करूं? 1. पयंड (ब)। 2. दिधीइ ( अ, द), दीधीइ (हे)। 3. तावतावेण (म, हे)। 4. खिन्नखि° (अ, ला, हे)। 5. पडुहि (म, ब)। 6. वणस्सइ (अ), वणस्सई (द)। 7. झाडना' (अ, म, ला)।
SR No.004272
Book TitleAgam Athuttari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2012
Total Pages98
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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